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ख़ुदकुशी करते रहे

9 जुलाई 2017

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यूँ मुसलसल ज़िन्दगी से मसख़री करते रहे

ज़िन्दगी भर आरज़ू-ए-ज़िन्दगी करते रहे


एक मुद्दत से हक़ीक़त में नहीं आये यहाँ

ख्वाब कि गलियों में जो आवारगी करते रहे


बड़बड़ाना अक्स अपना आईने में देखकर

इस तरह ज़ाहिर वो अपनी बेबसी करते रहे


रोकने कि कोशिशें तो खूब कि पलकों ने पर

इश्क़ में पागल थे आंसू ख़ुदकुशी करते रहे


आ गया एहसास के फिर चीथड़े ओढ़े हुए

दर्द का लम्हा जिसे हम मुल्तवी करते रहे


दिल्लगी दिल कि लगी में फर्क कितना है नदीश

दिल लगाया हमने जिनसे दिल्लगी करते रहे



* लोकेश नदीश

मनोज कुमार खँसली-" अन्वेष"

मनोज कुमार खँसली-" अन्वेष"

आ गया एहसास के फिर चीथड़े ओढ़े हुए,.....दर्द का लम्हा जिसे हम मुल्तवी करते रहे ,....वाह वाह वाह,....क्या बात है आपकी,.....नदीश जी,....बहुत ही उम्दा रचना|

12 जुलाई 2017

रेणु

रेणु

लोकेश जी बहुत अच्छी रचना है आपकी -- खासकर चौथा और पांचवा शेर मुझे बहुत पसंद आये --------- हार्दिक शुभकामना आपको ------

9 जुलाई 2017

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तुम्हारे हिज़्र में

6 जुलाई 2017
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गिर रही है आँख से शबनम तुम्हारे हिज़्र में एक ही बस एक ही मौसम तुम्हारे हिज़्र में क़तरे-क़तरे में शरारों सी बिछी है चांदनी बन गयी है हर ख़ुशी मातम तुम्हारे हिज़्र में आईना-ओ-

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शामिल रहा है वो

7 जुलाई 2017
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खोया है कितना, कितना हासिल रहा है वोअब सोचता हूँ कितना मुश्किल रहा है वोजिसने अता किये हैं ग़म ज़िन्दगी के मुझकोखुशियों में मेरी हरदम शामिल रहा है वोक्या फैसला करेगा निर्दोष के वो हक़ मेंमुंसिफ बना है मेरा कातिल रहा है वोपहुँचेगा हकीकत

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वक़्त बिताया जा सकता है

8 जुलाई 2017
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यूँ भी दर्द-ए-ग़ैर बंटाया जा सकता हैआंसू अपनी आँख में लाया जा सकता हैखुद को अलग करोगे कैसे, दर्द से बोलोदाग, ज़ख्म का भले मिटाया जा सकता हैमेरी हसरत का हर गुलशन खिला हुआ हैफिर कोई तूफ़ान बुलाया जा सकता हैअश्क़ सरापा ख़्वाब मेरे कहते हैं मुझसेग़म की रेत पे बदन सुखाया जा

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ख़ुदकुशी करते रहे

9 जुलाई 2017
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यूँ मुसलसल ज़िन्दगी से मसख़री करते रहेज़िन्दगी भर आरज़ू-ए-ज़िन्दगी करते रहे एक मुद्दत से हक़ीक़त में नहीं आये यहाँ ख्वाब कि गलियों में जो आवारगी करते रहे बड़बड़ाना अक्स अपना आईने में देखकर इस तरह ज़ाहिर वो अपनी बेबसी करते रहे रोकने कि कोशिशें तो खूब कि पलकों ने पर इश्क़ में पागल थे आंसू ख़ुदकुशी करते रहे आ गया

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मुश्किल रहा है वो

10 जुलाई 2017
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खोया है कितना, कितना हासिल रहा है वोअब सोचता हूँ कितना मुश्किल रहा है वोजिसने अता किये हैं ग़म ज़िन्दगी के मुझकोखुशियों में मेरी हरदम शामिल रहा है वोक्या फैसला करेगा निर्दोष के वो हक़ मेंमुंसिफ बना है मेरा कातिल रहा है वोपहुँचेगा हकीकत तक दीदार कब सनम कासपनों के मुसाफिर की मंज़िल रहा है वोकैसे यक़ीन

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वो गाँव दर्द का है और ठहरना है अभी

23 सितम्बर 2017
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अपने होने के हर एक सच से मुकरना है अभीज़िन्दगी है तो कई रंग से मरना है अभीतेरे आने से सुकूं मिल तो गया है लेकिनसामने बैठ ज़रा मुझको संवरना है अभीज़ख्म छेड़ेंगे मेरे बारहा पुर्सिश वालेज़ख्म की हद से अधिक दर्द उभरना है अभीनिचोड़ के मेरी पलक को दर्द कहता हैमकीन-ए-दिल हूँ मैं

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