ले कटोरा हाथ में चल दिया हूं फूटपाथ पे
अपनी रोजी रोटी की तलाश में
मैं भी पढना लिखना चाहता हूं साहब
मैं भी आगे बढ़ना चाहता हूं साहब
मैं भी खिलौनो से खेलना चाहता हूं साहब
रुक जाता हूं देखकर अपनी हलात को
क्योंकि साहब मैं अनाथ हूं।
सबसे मैं मिन्नते और फरियाद करता हूं,
कभी किसी की गालियां तो कभी
किसी का फटकार सुनता हूं
बस दो वक्त की रोटी की तलाश में
मन नहीं करता फिर भी विवश होकर
खड़ा हो जाता उसी फूटपाथ पे
क्योंकि साहब मैं अनाथ हूं।
वर्षो से बैठा हूं मैं किसी की मदद की
आश में
फिर जब किसी को नहीं पाता हूं अपने
आस-पास में
तो फिर से लग जाता हूं अपने दिनचर्या की
शुरुआत में
जब कुछ समझ में नहीं आता तो फिर से
खड़ा हो जाता हूं उसी फूटपाथ पे
क्योंकि साहब मैं अनाथ हूं।
फुटपाथ से ही शुरू होती है मेरी जिंदगी
वही पर होती है ख़तम
मैं इसी चौराहे का राजा और इसी चौराहे
का रंक
जब कोई हम उम्र को देखता हूं गाड़ियो से
जाते हुए
तो खो जाता हूं उसी के ख्वाब में
अब नहीं रहता किसी की आश्वासन या विश्वास में
बस दो वक्त की रोटी की तलाश में
फिर से खड़ा हो जाता हूं उसी फुटपाथ पे
क्योंकि साहब मैं अनाथ हूं।
©विकास कुमार गिरि