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महिला दिवस - आओ कुछ सोचें! कुछ संकल्प करें

8 मार्च 2017

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स्त्री को देवी समझो - अहोभाग्य! किंतु इन्सान क्यूँ नहीं ?

महिलाएँ पहले - धन्यवाद! किंतु महिलाएँ साथ क्यूँ नहीं ?

केवल महिलाओं के लिए - अनुगृहित! किंतु सभी के लिए क्यँू नहीं ?

महिलाओं के लिए संसद में विशेष आरक्षण - सम्मानित! किंतु पुरुषों को प्रतियोगिता देकर संविधान की सर्वोच्च संस्था में प्रतिनिधित्व

बढ़ाने पर जोर क्यँू नहीं ?

महिलाएँ शाम ढलते ही घर पर हों - इतनी ंिचता! किंतु क्या अंधेरे में शहर शहर नहीं ?

महिलाओं को शिक्षित करो - सराहनीय! किंतु क्या पुरुष शिक्षित होकर भी अशिक्षित तो नहीं ?

महिलाएँ छोटे कपड़े पहन कर सड़को में न घुमें - अच्छी सलाह! किंतु क्या पूरे कपडों में ढका पुरुष अब भी जानवर ही तो नहीं ?


एक बेटी, एक बहन, एक पत्नी, एक माँ और सबसे बढ़कर एक स्त्री होने के नाते ये कुछ सामाजिक सरोकार बार-बार मेरे अवचेतन को झकझोरते हैं। मैं गाहे-बगाहे इन सवालों में खो जाती हूं कि क्यूं आज 21वीं सदी में भी इन बैसाखियों के सहारे की आवश्यकता का अहसास हमें कराया जाता है ? जबकि महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में अपनी योग्यता, हुनर और हिम्मत से अपनी एक विशेष छाप छोड़ते हुए निरंतर एक विशिष्ट पहचान, एक विशिष्ट जगह बनाती चली आ रही हैं। क्या ये हमारे पुरुष प्रधान समाज की दोहरी मानसिकता का परिचायक नहीं जिसमें आज भी महिलाओं को इंसान नहीं एक वस्तु की तरह ही देखा जाता है?


हमारी भारतीय संस्कृति में शिव और शक्ति को सृष्टि का आधार समझा गया है। शक्ति के बिना शिव शिव नहीं “शव“ कहलाते हैं। यही कारण है कि शिव को “अर्द्धनारीश्वर“ भी कहा जाता है। आदि काल से पुरुष और स्त्री को एक दूसरे का पूरक माना गया है। किंतु क्या आज ऐसा है ? ईमानदारी से सोचिएगा! क्या आपको नहीं लगता कि आज हमारी सामाजिक सोच ही अत्यंत दूषित हो चुकी है ? अगर हम इस पर गंभीरता से विचार करें तो पाएंगे कि पुरुष द्वारा महिलाओं को समाज में दोयम दर्जा देने और उन पर हावी रहने की मानसिकता के बीज उसके पैदा होने की साथ ही जाने-अनजाने में उसके आस पास के समाज की हवा रोपित कर देती है। उसके बढ़ने के साथ-साथ यह पल्लवित होते-होते अदृश्य रूप में उसके चरित्र में समा जाती है और अवसर मिलते ही दृश्य रूप में भी परिलक्षित हो जाती है। (निश्चय ही कुछ प्रतिशत लोग मुझसे सहमत नहीं होंगे और असहमति का प्रतिशत जितना अधिक होगा उतना ही हमारे समाज के लिए सकारात्मक होगा)।


इन ही सवालों की उधेड़बुन में ही कभी ये सोचती हूं कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम महिलाएँ हवाओं से इन बीजों को ही हटा देने की एक कोशिश शुरू करें और संतान के पैदा होने के साथ ही नैतिकता के बीज उसके व्यक्तित्व में रोपित करने का संकल्प लें। क्यूंकि यदि पिता अपनी संतान के लिए एक शिक्षक है तो माता उसके लिए एकसंपूर्ण पाठशाला होती है। हम प्रयास करें कि प्रत्येक महिला, चाहे वो शिक्षित हो या अशिक्षित इस संकल्प में सम्मिलित हो। मैं जानती हूं कि यह इतना भी आसान नहीं है किंतु कोशिश करने में कोई हर्ज तो नहीं। ये कोशिश आज नहीं तो कल कामयाब अवश्य होगी और समाज की सूरत भी धीरे-धीरे ही सही बदलेगी जरूर। कवि बच्चन ने भी कहा है कि, “लहरों से डरकर नैय्या पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती“।


समस्त मानवजाति को महिला दिवस की शुभकामनाएं।

(ममता जुयाल)



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