चीन के महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस एकांत में बैठे चिंतन कर रहे थे , तभी उस रास्ते से चीन का सम्राट निकला। अपनी ही धुन में बैठे कन्फ्यूशियस ने सम्राट की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
यह बात सम्राट को बहुत बुरी लगी क्योंकि अक्सर सम्राट जब किसी राह से गुजरते तो प्रजा नतमस्तक होकर सम्मान करती थी। सम्राट संत के पास गये और उनसे पूछा - तुम कौन हो ? कन्फ्यूशियस ने कहा - मैं शहंशाह हूं।
सम्राट को यह सुनकर गुस्सा आया और साथ ही आश्चर्य भी हुआ। उसने अपने क्रोध को दबाते हुए कहा - सम्राट तो मैं हूं। शहंशाहों का शहंशाह हूं। देखो , मेरे पास सेना है , सेवक है , धन - दौलत है , मान - सम्मान है। तुम्हारे पास तो कुछ भी नहीं है। न महल है , न कोई ठाट - बाट और न ही कोई सेवक , यहां तक कि रहने के लिए एक अच्छा सा मकान तक नहीं है। तो तुम बताओ भला कैसे शहंशाह हो ?
संत कन्फ्यूशियस ने बड़ी ही नम्रतापूर्वक कहा - देखिए सेना उसको चाहिए जिसका कोई शत्रु हो , पर मेरा कोई शत्रु नहीं है। सेवक , नौकर - चाकर उसे चाहिए जो आलसी हो और अपना खुद का काम करने की ताकत न रखता हो। मैं न तो कमजोर हूं और न ही आलसी और कामचोर। अत : सेवक की कोई जरूरत नहीं। रही धन - दौलत की बात , तो भाई यह उसको चाहिए जो गरीब हो , दरिद्र हो।
संत की यह बात सुन सम्राट ने आश्चर्य से पूछा , पर आपका धन तो दिखाई नहीं पड़ता। संत ने हंस कर कहा - भाई , मेरे पास संतोष है। ये सोना , चांदी , हीरे , जवाहारात मेरे लिए व्यर्थ हैं। अत : अब तुम ही बताओ कि सम्राट कौन है ? शहंशाह कौन है ?
संत की बात सुनकर सम्राट नतमस्तक हो गया , और उनके चरणों में गिर पड़ा।
कहा है न -
" गो धन , गज धन , बाज धन और रतन धन खान। जब आवै संतोष धन , सब धन धूरि समान। तो सबसे बड़ा धन क्या हुआ ? संतोष - धन"।
दिन - रात हमारी दौड़ भौतिक पदार्थों का संग्रह करने में लगी है जिसके पीछे एक ही मकसद है सुख - शांति की प्राप्ति। लेकिन हो विपरीत ही रहा है। सुख - शांति के बजाय अशांति और दु : ख मिलने लगा है। मतलब कहीं न कहीं गड़बड़ है। और वह गड़बड़ है हमारे सोच की , हमारे चिंतन की।
संत - महात्माआों ने हमेशा से कहा है कि जिस सुख , शांति , संतुष्टि को तुम चाहते हो , वह तो सदैव तुम्हारे अंदर है। जरूरत है अंतर्मुख होने की। ज्ञान द्वारा हमारा चिंतन , हमारा सोच अंतर्मुखी हो सकता है। ज्ञान - चिंतन से वैराग्य , अपरिग्रह , ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव जाग्रत होता है। इससे सहज में संतोष धन की प्राप्ति होती है।
लोग यह पूछते हैं कि , इसके लिए क्या हमें घर - गृहस्थी , नौकरी - धंधा छोड़ना होगा , फकीर बनकर जंगल में जाना होगा ? नहीं , ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं। अपने कर्तव्यों को निभाते हुए ज्ञान - चिंतन का सरल सहज मार्ग अपना सकते हैं।
अंतर्मुखी - चिंतन से कामनाओं पर अंकुश लगता है , अपने आप ही मन रूपी शैतान जो दिन - रात परेशान करता है , शांत होने पर मजबूर हो जाता है। मन जब शांत होगा तब सच्चा सुख और संतोष प्राप्त होता है। आवश्यकता है ज्ञान की जो सच्चे सद्गुरु द्वारा ही प्राप्त होता है।
यदि हमारी सोच बदल जाए तो हम शहंशाह हो सकते हैं। कुल मिलाकर कामनाओं का निग्रह करना है और इसके लिए ज्ञान रूपी हथियार कारगर है। ज्ञान से तात्पर्य है खुद का ज्ञान। दूसरे शब्दों में निज का अनुभव ही हमारे जीवन की दिशा बदल सकता है और हम संतोष - धन पाकर शहंशाह हो सकते हैं।
अंतर्मुखी होकर ज्ञान - चिंतन करने का सरल व सहज मार्ग अपनाकर सचमुच में जीवन सफल किया जा सकता है। इधर - उधर भटकने की , ठोकरें खाने की कोई जरूरत नहीं।
क्योंकि पहले से ही विधाता ने अनमोल रतन हमारे आंचल में बांध दिया है - सब के पल्ले लाल है , सब ही साहूकार हैं।
"इसलिए शहंशाह बनो , कंगाल नहीं"।