वास्तविक प्रेम किसे कहते हैं -
मुझसे कल किसी ने प्रश्न किया था कि "वास्तविक प्रेम" क्या है हमने कल कहा था इस पे एक पोस्ट लिखेगे -आज बताना चाहता हूँ कि प्रेम वास्तविक या अवास्तविक नहीं होता है प्रेम तो बस प्रेम होता है या तो प्रेम है या नहीं है प्रेम निस्वार्थ होता है और ये बिना किसी अपेक्षा के किया जाता है प्रेम में छल नहीं होता है प्रेम तो निश्छल होता है-
वास्तविक प्रेम एक ऐसी भावना है जिससे सुधा रस छलकती है वास्तविक प्रेम की भावना केवल प्रेमी या प्रेमिका के लिए व्यक्तिगत नहीं होती बल्कि सार्वजनिक हो जाती है प्रेम में संलिप्त होकर व्यक्ति अपना सर्वश्व अपने प्रियतम के लिए न्योछावर कर देता है सच्चे प्रेम में स्वार्थ की भावना नहीं होती है -
आइये प्रेम को समझने के लिए हमें तीन बातों को समझना आवश्यक है प्रेम में किसी प्रकार का क्रय विक्रय नहीं होता है प्रेम की परिभाषा तत्व की दृष्टि से "मैं" से परे हट जाना ही है- हम जब सोचते है कि ये व्यक्ति हमारा प्रेमी है इनसे हमें हर समय मदद की है या नहीं मैनें तो हमेशा इसकी मदद की है ऐसा सोचना भी प्रेम जगत में प्रेम को नहीं समझना है-
प्रेमी तो अपने प्रेमी के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देता है उसके बदले में कोई चाह (इच्छा) नाम की बात ही नहीं होती है जैसे उदाहरण के तौर पर आप वीर हनुमान जी को ले ले - प्रेम में पुरस्कार भी नहीं होता है न प्रेमी पुरस्कार चाहता है और न प्रशंसा और न किसी प्रकार का आदान प्रदान- यही सच्चे प्रेमी का लक्षण है- प्रेम तो सदा प्रेमी के लिए रोता है वह अपने प्रेमी का सच्चा उत्थान चाहता है जिसमें यदि स्वयं को भी हानि हो तो भी परवाह नहीं होती है -
प्रेम का अब एक दूसरा तत्व है " भयवश प्रेम नहीं किया जाता है" भय वश प्रेम करना अधम का मार्ग है जैसे बहुत से लोग नरक के डर से भगवान से या हानि लाभ के डर से देवी देवताओं से प्रेम करते है- वह अधम मार्ग है- प्रेम में न तो कोई बड़ा होता है न कोई छोटा-
"प्रेम इसलिए करो कि परमात्मा प्रेमास्पद है"
प्रेम का तीसरा तत्व "प्रेम में कोई प्रतिद्वंदता नहीं होती है" सच्चा प्रेम उसी व्यक्ति से होता है जिसमें मन की शूरता, मन की सौंदर्यता और उदारता कूट-कूट कर भरी हो- सच्चा प्रेमी वह है जो अपने प्रेमी को जिताने के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है स्वयं हार कर भी उसको जिताना चाहता है-
प्रेम की वाणी मौन होती है तथा आँखों से जल बरसता है और हाथ अपने प्रेमी की सेवा करने के लिए तत्पर रहते है जैसे "श्रीकृष्ण व सुदामा" -प्रेम तभी सफल होता है जब अपने हृदय के अंदर प्रेमी के प्रति प्रतिद्वंदता,भय या आदान प्रदान रहित होकर प्रेमास्पद बन जाए तो वही प्रेम आनंदमय हो जाता है-
आज का प्रेम -
अब हम बीसवी और इक्कीसवी सदी के प्रेम की बात करें तो आज के इस आधुनिक समय मैं किसी को किसी के लिय समय ही कहाँ है तो ये प्रेम की व्याख्या प्रासंगिक नहीं है यहाँ पर उपरोक्त व्याख्या सटीक नहीं बैठती है आज कल के स्मार्ट युग में प्रेम स्मार्ट हो चुका है मोबाइल प्रेम से शुरू होकर वासनात्मक प्रेम पे ही जा के समाप्त होता है -प्रेम स्वार्थ रूपी हो चुका है एक दूसरे से अपेक्षाए जुडी है शारीरिक वासना की अपेक्षा प्रथम द्रष्टिगोचर हो जाती है -
आज के स्मार्ट युग और इस भाग दौड़ भरी लाइफ में प्यार भी आजकल फ़ास्ट फ़ूड की तरह होकर रह गया है इतना फ़ास्ट की जितनी जल्दी होता है उतनी जल्दी इसका भूत भी उतर जाता है आपको यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन सच्चा प्यार करता है और कौन सिर्फ दिखावे के लिए आपके साथ मात्र टाइमपास कर रहा है-
कमियां तो सब में होती है आपकी सच्ची साथी वही है जो आपकी कमियों को जानती है और जानने के बाद भी आपसे दूर नहीं जाती वो बिना लड़ाई किये आपका साथ देती है हर कदम पे आपके साथ रह कर आपकी कमियों को दूर करने का प्रयास करती है और एक न एक दिन आपको अपने प्रति ही समर्पण करा लेती है-
वास्तविक प्रेम तो मन की एक उत्कृष्ट अभियक्ति है या फिर आप ये समझ ले कि एक सुखद अहसास है इसमें जब स्वार्थ,वासनात्मक आसक्ति,इर्ष्या,क्रोध का समावेश हो गया तो प्रेम का स्थान कहाँ बचा है -हम आजकल के लोगो को प्रेम का दंभ भरते हुए देखते है तो सोचने पे मजबूर हो जाता हूँ कि अगर आज कल का प्रेम अगर यही है तो फिर कृष्ण और गोपियों का प्रेम क्या था-
श्री राधा और श्री कृष्ण का प्रेम भी एक उदाहरण है -राधे ने तो अपने आराध्य से कुछ भी नहीं चाहा- केवल मात्र अपने आराध्य की इच्छा में अपनी इच्छा को समर्पित किया -क्या आज किसी का प्यार उस सीमा तक है -शायद नहीं -
आज एक पत्नी का पति अगर दूसरे किसी और से प्यार कर ले तो कोई रुक्मणी नहीं चाहेगी कि उसके और उसके पति के बीच में कोई राधा आ जाए- साम,दाम,दंड,भेद,कोई भी जुगत लगानी पड़े पर उसे अपने पति को उस प्यार से वंचित ही करेगी -यदि सफल नहीं हुई तो बात तलाक तक भी पहुँच जाती है -
अब बात पतियों की भी ले लो वो भी निस्वार्थ रूप से बिना वासना आसक्ति के किसी को प्यार नहीं करते है तो फिर वो सिर्फ अपनी पत्नी से दगाबाजी ही कर रहे है ऐसे में पत्नी का पूर्ण रूपेण अधिकार बनता है कि वो कोई भी मार्ग आपनाए और आपको अपने वशीभूत करे- ये बात पति-पत्नी दोनों पे लागू होती है -
वास्तविक प्रेम मानव मन की या फिर कहें तो एक सुखद अहसास है प्रेम त्याग , समर्पण है,प्रेम आपको विनम्र बनाता है हम जब प्रेम से भरे होते हैं तो सभी के लिये हमारे दिल में प्रेम भरे भाव होते हैं जब किसी एक के लिये प्रेम व किसी अन्य के लिये दिल में नफरत भरी हो तो वो प्रेम का आभासी रूप होता है- हमें सिर्फ महसूस होता है कि हमारा प्रेम सच्चा है जबकी वो प्रेम होता ही नहीं है बल्कि सिर्फ आसक्ति होती है-
प्रेम व्यक्ति को साहस देता है - शक्ति प्रदान करता है और हमें जिम्मेदार बनता है - प्रेम की भी कुछ मर्यादाएं है प्रेम में गुस्से का कोई स्थान ही नहीं होता है -
Upcharऔर प्रयोग-
http://www.upcharaurprayog.com/2016/04/my-thinking-love-definition.html