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पाँव के नीचे की जमीन

14 सितम्बर 2015

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गाँव में अब बच्चे नहीं खेलते गुल्ली डंडा, कबड्डी, छुप्पा-छुप्पी अब वे नहीं बनाते मिट्टी की गाडी नहीं पकड़ते तितलियाँ गौरैयों और कबूतरों के घोंसलों में देख उनके बच्चों को अब वे नहीं होते रोमांचित अब उन्हें रोज नहीं चमकानी पड़ती लकड़ी की तख्ती ढिबरी की कालिख से मांज कर और न ही उस पर बनानी पड़ती हैं दूधिया सतरें खड़िया से और अब वे नहीं रटते पहाड़े दो दूनी चार... क्रिकेट, टीवी, कंप्यूटर मोबाइल और सोशल मिडिया के युग में, खपरैल की जगह स्कूल की पक्की इमारतों और अंग्रेजी के पैबंद के बावजूद क्यों लगता है कि इन बच्चों के लिए हम नहीं तैयार कर पा रहे वह ठोस जमीन जहां बैठ वे बुन सके सपने भविष्य के खड़े हो कर जिस पर वे उड़ सके छू लेने को आसमान.

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साधना सिंह

साधना सिंह

बहुत सुन्दर ॥.वे भाग्यशाली हैं जिनका बचपन संचार क्रांति से पहले बीता; प्रकृति के सानिध्य में बारिश ,तितली, रेत, पंछी और पतंगों से खेलते हुए ।अब तो स्कूल भी एयर कंडीशंड हैं ऊपर से बहुमंजिले भी....पहले समय में तो स्कूल का मतलब ही आज़ादी और ढेर सारा विस्तार था ॥

15 सितम्बर 2015

वर्तिका

वर्तिका

सुंदर रचना! बिल्कुल सत्य! टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के युग में, बच्चों की दुनिया इन्ही तक सिमट के रह गयी हैं|

15 सितम्बर 2015

ओम प्रकाश शर्मा

ओम प्रकाश शर्मा

"नहीं पकड़ते तितलियाँ गौरैयों और कबूतरों के घोंसलों में देख उनके बच्चों को अब वे नहीं होते रोमांचित"..... उत्कृष्ट रचना !

14 सितम्बर 2015

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