जैसलमेर
सन 1998 की बात है। मैं जे.एल.एन. कॉलेज एटा में एम. ए .(भूगोल) उत्तरार्द्ध की छात्रा थी। उस समय डॉ एस.एल.शर्मा जी हमारे विभागाध्यक्ष हुआ करते थे। पाठ्यक्रम के अनुसार हमारी भ्रमण आख्या हेतु 10 दिन का भ्रमण अनिवार्य था।भ्रमण प्रभारी आदरणीय डॉ सत्यपाल सिंह जी, डॉ रामकिशोर त्रिपाठी जी थे।मेरे लिए सहशिक्षा के दौरान घर से बाहर अकेले इतनी लंबी अवधि की यात्रा का यह द्वितीय अवसर था।
मैं पहले तो अन्दर से बहुत सहमी हुई थी और मुश्किल ये कि हम 4 छात्राएं थी। मैं तनुजा यादव संध्या और सुनीता शेष तेरह छात्र जबकि एम.ए. पूर्वार्ध के 35 छात्र और 13 छात्राएं एक लैब असिस्टेंट थे। भ्रमण केन्द्र जैसलमेर राजस्थान था तो हम सभी बहुत उत्साहित थे उस समय इंटरनेट का प्रचलन न कर बराबर था तो फोन भी डॉट हुआ करते थे। हम 6 फरवरी1998 जैसलमेर के विजय चौक कर पास एक होटल (नाम याद नहीं) में ठहरे। सच मानिए मेरे मन का सारा भय गायब हो चुका था अब सीनियरिटी के दायित्व का वोध था।
हल्की हल्की बारिश हो रही थी, फ़रवरी का आरम्भ था, तो हमने स्थानीय निकटवर्ती बाजार घूमने का कार्यक्रम बना लिया। विजय चौक पर हमारा फोटो शेषन चल ही रहा था उस समय कोडक के बी.10 का जलवा हुआ करता था। बारिश ने तीव्रता धारण कर ली हम सभी को सामने एक हनुमान मन्दिर दिखाई दिया और सभी उसी मंदिर के बरामदे में शरणार्थी बन गए। कुछ देर बारिश के रुकने की प्रतीक्षा की फिर लैब असिस्टेंट जो कि मथुरा के थे हम सभी उन्हें पांडेय जी बुलाते थे उन्होनें कहा, चलो तब तक हम हनुमान जी का गुणगान कर लेते हैं। सभी ने एक सुर में हां कर दी। मन्दिर के पुजारी ने ढोलक मंजीरा घण्टिया खड़ताल दे दी जम गई मण्डली।
.... देखते देखते मंदिर में जाने कहाँ से भीड़ एकत्र हो चुकी थी फिर क्या था चढ़ावा आने लगा , पुजारी जी ने भी माइक लगा दिया, हनुमान चालीसा फिर हुनमाष्टक उसके बाद मेरी बारी आई तो सुन्दर कांड आरम्भ हुआ, सभी की तालियां एक अदभुत संगीतमय दृश्य उत्पन्न कर चुकी थी। हमें रात्रि 10 बज गए, एकत्र हुए जनसमुदाय ने हमें सचमुच ही कीर्तन मण्डली वाला समझ लिया साथ में ढावा था उन्होंने हम दस लोगों को स्वेच्छिक भोजन कराया और वहाँ पर कीर्तन मण्डली की बुकिंग आरम्भ हो गई। वहाँ के लोग भक्तिमयी प्रस्तुति से इतने प्रभावित थे कि हमें आमंत्रित करने लगे। हम सारे के सारे शरारती और वो सभी आनन्दित और श्रद्धावान, बात बड़ते बड़ते हमारे सर के पास पहुंची तो पहले तो व एगुस्सा हुए फिर हंसते हुए हम सभी को समझाया और आमंत्रण करने वालों को भी।
उन्शोने स्पष्ट किया भ्रमण आख्या के कागज दिखाए सभी को बिठाया फिर भी आमन्त्रण कर्ता सर को अपन साथ ले गये और उनका बहुत आदर सत्कार किया ......और उन्हें विश्वास हुआ कि हम कीर्तन मण्डली वाले नहीं है| सर की प्रशंशा इसलिए किये जा रहे थे कि हम सभी युवा छात्र छात्र्यें थे तो भी इस तरह रामन चरित मानस को इतने अच्छे ढंग से प्रस्तुत कर पाए ...........सच्चाई जान लेने के बाद भी किसी ने हमें 50, 100, 150 रुपए दिए स्नेह और आशीर्वाद दिया। यह है हमारी हिन्दी संस्कृति, भारतीय संस्कृति हम चाहें तो समाज को वास्तव में निवीन दिशा और सोच दे सकते हैं। आज भी हनुमान मन्दिर की वह घटना हमारे मन में रोमांच उत्तपन्न करती है अच्छा था सभी के पास मोबाइल नहीं था तो स्वयं में सभी व्यस्त नहीं थे।
अगले दिन हम सभी जैसलमेर की मार्केट देखने गए, मुझे आज भी याद है हम सभी पढ़ लिख जरूर गए हैं लेकिन वास्तव एमन अपनी जड़ों से काफी दूर हो गए हैं , हम अपनी परंपराओं का सम्मान नहीं करते जबकि दुनिया पर राज करने वाला ब्रिटेन का संविधान ही केवल सदियों से चली या रही परम्पराएं हैं .... मेरा यहाँ यह लिखने का आशय कदापि लेख लिखने नहीं है अपितु एक दृश्य जो हाम्रा आगरा से ही पीछा करता हुआ चल रहा था उसका जिक्र करना है ..
एक जर्मन लड़की थी जो निरंतर हमें घोड़े पर मिलती रही और हम सभी प्रभावित थे उसके पीताम्बर से.. पीताम्बर से तात्पर्य है कि एक पीला लंबा चादर और उस पर अंकित बिभिन्न श्लोक या राम राम मुझे अच्छी तरह याद है उस पर लिखा था .. करमंडे वधिकारस्ते मा फलेसऊ कदाचिने , ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय नमः
हमारे सर अक्सर उसे देखकर कहते थे कि ऐसा लगता हिय कि जहां जहां हम जाते हैं है वहीं पहुँच जाती है .... उससे पहले हमने उसे महारानगढ़ किले में भी मिली थी अंतिम दिन आखिर हमने उससे बात की और पूछा कि वो कहाँ से आई है और कब तक भारत में है ....हमें यह जानकर भी हैरानी हुई कि जैसलमेर में कई गाइड ऐसे थे जिनकी पत्नी विदेशी थीं इतना ही नही वे पारम्परिक राजस्थानी पहरावे में हम लोगों अर्थात पर्यटकों का पूरा गाइड कार्यक्रम भी संभल रहीं थी | हमारे गाइड ने कई असी परिवारों से मिलवाया और उन्हों बताया कि लोग तो 30 -30 वर्षों से भारत में ही रह रहे हैं उन्हें यहाँ अच्छा लगता है किसी बकरी, किसी ने गाय भी पाली हुई थी |
चलिए आगे जैसलमेर घूमते हैं : सोनार किले में पहुंचे वहां एक तारा को भिटिन्डा या टुम्बी जैसा कोई शब्द से सम्बोधित करते हैं बिल्कुल इकतारे जैसा ही होता हैं मैंने वो भी बजाना सीख लिया था , वहां से हम पटवा हवेलियाँ देखने गए और फिर वहीँ आस पास 24 जैन तीर्थंकरों के भव्य मन्दिर हैं जिनके मुख्य केवल तीन गेट हैं जिनमें अकेले कोई भी भटक सकता है जो हमारी भारतीय संस्कृति की उच्च कोटि कि शिल्पकला तथा विरासत को दिखलाते हैं अब वहां हम भारतीयों को कैमरा ले जाना अलाऊ नही था लेकिन मैंने गाइड से पूछ लिया उसने मुझे बता दिया कि छिपा कर ले जाना हमने हाफ जैकेट पहना हुआ था सो उसमें अंदर छिपा लिया आगे आगे मैं पीछे पीछे वहां तैनात कमांडो ..
जैसे ही मैंने उसमें प्रवेश किया शायद कोई विश्वास न करे मैं वो सारे मन्दिर अपने स्वप्न में देखे हुए थे और उन्स एबाह्र निकलने का रास्ता भी तो मुझे कोई दिक्कत हुई ही नही अंदर मैंने जब चरों तरफ देखा तो मेरे साथ का कोई भी नही दिखाई दिया एक युगल जो आस्ट्रेलिया से था उससे अपने कैमरे में फोटो सेशन कराया जो आज ब ही मेरे पास है और दुसरे गेट से आराम से निकल भी गई ..............और में बाजार में जाकर खो गई ............सभी छात्र छ्त्राएँ मुझे खोज रहे थे उस दिन मेरी खूब अच्छी क्लास लगी मुझे कोई फर्क नहीं था क्यों मैंने तो अन्दर फोटोग्राफी कर ही ली थी | मुझे आज भी राजस्थान बहुत पसंद है |
हर भ्रमण ने हमें भू के आकार से ही नहीं सभ्यता और संस्कृति से परिचित करवाया है। हम अपने राष्ट्र की विविधताओं से अनभिज्ञ हैं अन्यथा हम भारतीय सन्सार की महानतम सभ्यता के द्योतक हैं और रहेंगे।
मिलते हैं फिर कोई नई यात्रा का संस्मरण लेकर तब तक हमरे साथ बने रहिये पढ़ते रहिये और भारत को जानते रहिये