दिनांक—14/02/0217
आज से लगभग दो दशक पहले देश के राजनेता एवं उनकी राजनीति किसी हद तक नैतिक मूल्यों पर चला करती थी। विभिन्न दलों और मतदाताओं दोनों ही कहीं न कहीं आदर्श एवं नैतिकता का पालन करते हुए राजनीति की गरिमा को बनाए रखते थे, लेकिन वर्तमान समय में इसकी स्थिति पूरी तरह से बदल चुकि है। वर्तमान समय की ज्यादातर राजनीतिक दलें ठीक चुनावी वक्त पर तरह—तरह के लोक—लुभावन घोषणाएं करके जनता को अपनी ओर आकृष्ट करने की कोशिशें करते हैं इस पर मौजूदा दौर की स्थिति यह प्रश्न उठना स्वाभाविक सी बात है। विभिन्न पार्टियां जिस तरह अपनी सीमा से आगे बढ़कर लोक—लुभावन वादे करने में कोई कसर नही छोड़ती हैं ऐसी हरकतों को किसी भी तरह से जनहित में तो नहीं कहा जा सकता है। अनगीनत लुभावनें घोषणाओं के समय आने पर पूरे नही होने के कारण आश्वासन देने वली पार्टियों को इसका तात्कालिक लाभ तो जरूर मिल जाता है लेकिन, इसका देश में दीर्घकालिक अर्थव्यवस्था एवं सामाजिक गतीविधियों पर प्रतिकूल असर पड़ने से समाज में विभिन्न प्रकार की समस्याएं पैदा होने लगती है। अभी कुछ समय पहले कई राज्यों में हुए चुनावों में कुछ पार्टियों ने गरीबों को मुफ्त में गेहूं और चावल बांटने का चुनावी दांव चलाया था लेकिन फिर उन्हें दो—तीन रुपये किलो की दर से गेहूं, चावल उपलब्ध कराने की बात कही गई। वर्तमान समय में ऐसे ही वादे करने की होड़ कुछ एक पार्टियों में भी चल रही है। यह खेल तमिलनाडु की राजनीति में उस वक्त शुरू हुई जब वहाँ मंगलसूत्र से लेकर साड़ीयाँ मिक्सी, टीवी जैसे प्रतिदिन की आवश्यकताओं की वस्तुओं को आम लोगों के मध्य बांटने की संस्कृति ने जन्म लिया। आज देश के ऐसे बहुत से राज्यों में इस तरह की संस्कृति का विस्तार हो गया है। जो कि आज वर्तमान समय में भी थमने का नाम ही नहीं ले रही है। इसी संस्कृति के विस्तार के क्रम में सस्ते दरों पर अनाज मुहैया कराने जैसी परंपराएं समाज के लिए भविष्य में अधिक घातक सिद्ध होने वाली है। यदि इसी प्रकार सब कुछ आगे भी चलता रहा तो देश में किसानों को अपनी खेती में काम करने की क्या आवश्यकता रह जायेगी? सीमांत वर्गी जैसे किसानो (जिन कृषको पर देश के 50 प्रतिशत से अधिक कृषि उत्पादन का भार है) देश में चलने वाली नरेगा, मनरेगा या अन्य किसी भी तरह की दिहाड़ी मजदूरी वाले कामों से प्रतिदिन 300 रुपयों तक की आमदनी कर ही लेगें। जाहिर सी बात है कि इन रुपयों से वे अपने परिवार के लिए पर्याप्त अनाज प्राप्त कर ही सकते हैं। अब यहाँ यह प्रश्न उठना लाजमि है कि ऐसे में अपने खेतों में कौन व्यक्ति खेती करना पसंद करेगा? यहाँ पर एक बात पर ध्यान देने योग्य है कि कृषि जैसे कारोवार मौजूदा दौर में लाभ का सौदा नहीं रह जाने से देश में ऐसी मुफ्तखोरी की संस्कृतियों के प्रसार से खाद्यान्न उत्पादनों पर प्रतिकूल असर पड़ना स्वाभावि सी बात है। देश की राजनीतिक दलें इस बात से बखूबी बेखबर हैं कि ऐसी लोक—लुभावन वायदों की राजनीति के चलते इसके किस तरह के दुष्परिणाम आने वाले वर्षों में हमारे सामने होगें यह कहना तो अभी से बहुत कठिन हैं लेकिन यह बात निश्चित है कि देश की राजनीतिक दलें सत्ता हथियाने के लिए देश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को एक ऐसी अंधेरी खाई की ओर धकेलने में तत्पर हैं जहां से देश को बाहर निकलना कठिनाई भरा काम होगा। इसके विपरित यदि हमारे देश की राजनीतिक दलें देश के विभिन्न कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्धि करके उन सीमांती किसानों एवं खेतिहर श्रमिकों को लाभ देने की भरपूर कोशिश करते तो निश्चित तौर पर इससे समाज को कई अन्य प्रकार के लाभ होते, जिससे खेती—किसानी के कामों में एक स्थायित्व बाजार बन्ने के साथ ही साथ कृषि उत्पादित वस्तुओं पर लाभ अधिक हो जाने से देश के किसान परिवारों की खुशहाली का मार्ग प्रशस्त होता। यहाँ इसके ठिक विपरीत देश में नरेगा—मनरेगा जैसे योजनाओं के चलते देश के अनेकों राज्यों में पिछले 10—15 वर्षों के मध्य शराब की बिक्री बढ़ जाने से अनाज में खर्चे की बचत से गरीबों की एक बड़ी आबादी प्रति दिन शराब पीने की लत पड़ती चली जा रही है। देश के उत्तराखंड जैसे राज्य का एक अनुभव में हमें यह आभास कराता है कि यहां पिछले 15 वर्षो के दौरान शराब की खपत में अच्छी—खासी बढ़ोत्तरी हो जाने के कारण गयी इस प्रदेश में इसके खिलाफ कई जन आंदोलन हुए भी हैं, लेकिन यहाँ के सरकार के कानो में जूं तक नहीं रेंगी। उत्तर भारत में ऐसे राजनीतिक दलों की संख्याएं दिनो—दिन बढ़ती चली जा रही है जिसके कारण वर्तमान समय में चुनाव के मौकों पर लोकलुभावन वादे अधिक से अधिक किए जाने लगें। इससे पहले अधिक से अधिक युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने के उद्देश से लैपटॉप, साइकिल और अन्य तरह—तरह की सुविधाएं देने जैसे वादें किए जा रहे हैं। वर्तमान समय में तो स्मार्ट फोन सें लेकर पेट्रोल आदि देने तक के भी वायदे किए जा रहे हैं। चूंकि ऐसे लोक—लुभावन वायदे अधिकतर आर्थिक नियमों की अनदेखी करके किए जाने से इसका प्रभाव देश के अर्थव्यवस्था पर पड़ने के अलावा वास्तव में हम ऐसे तरीकों से एक ऐसे समाज का निर्माण कर रहे हैं जो कि आने वाले समय में उत्पादक नहीं बनकर आश्रित जैसे लोगों को जन्म देगा जिसका सीधा असर देश की प्रगति एवं पारिस्थितिकी, दोनों पर ही असर पड़ेगा। अब यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि इस राजनीति और अनैतिकताओं का हम कब तक साथ देते रहेंगे? सही अर्थो में समाज में फैले ऐसे अनैतिकता पर अंकुश लगाने का प्रथम दायित्व जनता का ही है, जाहिर सी बात है कि इस तरह के हमारे प्रयासों से समाज की प्राथमिकताओं को बल तो मिलेगा ही साथ ही साथ रेवड़ियां बांटने जैसे लोक लुभावन वादें राजनीतिक मुद्दे राजनीति से हमेशा के लिए खुद वा खुद गायब हो जाएंगे। तरह—तरह की चीजें मुफ्त में बांटने जैसे वादें करने वाली मौजूदा राजनीति एवं रानीतिज्ञों को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि यह वह राजनीति है जो देश को सक्षम, सबल एवं आत्मनिर्भर बना सकती है। ध्यान रहे कि इस वेपटरी हुई राजनीति को सही पटरी पर आने में जितनी अधिक विलम्ब होगा, देश के आत्म निर्भर बनने में उतना ही विलंम्ब होगा।