एक बार की बात है रीवा की, मैं अक्सर जब जब भी मम्मी बाजार जाती थी तो मुझे भी अपने साथ मदद के लिए बाजार ले जाती थीं। ऐसे ही एक शाम मैं और मेरी मम्मी बाजार गए सबसे पहले मम्मी ने किराना का सामान लिया उसके बाद अनाज की मंडी में गए और वहां से गेहूं दाल चावल वगैरह खरीदा उसके बाद रिक्शा किया गया उसमें सारी बोरियां लादी गईं फिर किराने का सामान भी रखा गया और ऊपर से सबसे ऊपर हमें बैठाला गया। मुझे घर के लिए रवाना कर दिया गया और मम्मी सब्जी खरीदते हुए पीछे से पैदल ही घर आ जाया करती थीं। यह सब होते होते अंधेरा हो बी था हल्की बारिश का समय था। रिक्शे में बिना तय करे ही सामान रख लिया था। मम्मी ने मुझसे कहा की पैसे रख लो और हिसाब से रिक्शे वाले को पैसे दे देना हम पीछे पीछे आते हैं। मैं घर पहुंची रिक्शे से। रिक्शावाले से पूछा कितना लोगे उसने कहा ₹5, कम कराने की आदत में बड़ी बहादुरी से मैने पूछा चार रुपए लोगे भैया तो उसने कहा चलो ठीक है बिटिया दे देना हमने कहा सामान उतरवा ने में थोड़ा मदद कर दो तो उसने मना कर दिया और सीट पर ही बैठा रहा ब्रेक लगाकर बोला घर से किसी को बुला लो और सामान उतरवा लो घर के सामने अंधेरा सा था ।मैंने भी ज्यादा बोलना उचित नहीं समझा और घर का दरवाजा खटखटाया भैया लोग बाहर आए और फटाफट सामान अंदर रखा सामान उतरवाते हुए घर की रोशनी रिक्शे पर पढ़ रही थी इतने में हमारी नजर रिक्शा वाले के पैर पर पड़ी। तो मैं चौक गई उस रिक्शेवाले का एक पैर ही नहीं था। बहुत ग्लानि हुई की हमने उससे पैसे कम क्यों करवाए मैंने उससे पूछा इतनी तकलीफ में रिक्शा चला रहे हैं अंधेरे में मैं देख नहीं पाई। पहले नहीं बताया आपने। तो उन्होंने कहा अरे यह तो रोज का काम है कहां तक किसी से बताएंगे। इतने में मम्मी भी घर तक आ गई मैंने मम्मी से जल्दी से धीमी आवाज़ में बताया की एक पैर से रिक्शा चलाया है मम्मी भी दंग रह गई और अफसोस किया की अंधेरे में देख नहीं पाए नहीं तो इतने वजन ही लिए कोई और रिक्शा देख लेते फिर मम्मी ने उन्हें 10रुपए दिए उस समय 10रुपए बहुत हुआ करते थे और उन्हें रोककर कुछ कपड़े और खाने का सामान भी दिया। रिक्शावाला बहुत खुश हुआ और उसने कहा कि हम बहुत तसल्ली से जा रहे आपके घर से। इतना अच्छे से कोई भी हमसे व्यवहार नहीं करता है हम लोग भी उसको जाता देख कर गरीबी और मजबूरी पर सोचने को विवश थे कि संसार में कितनी लाचारी है और ईश्वर को धन्यवाद किया की बहुत दिया आपने।
©डॉ मुदिता खरे