पंछियों ने पंख समेटे, चले नीड़ की ओर,
की संध्या हो चली है।
ले सुखद सपने समेटे खुद में, होगी फिर भौर
की संध्या हो चली है।
चौपायों से उड़ती धूल, टर्र टर्र करते ग्वाले,
की संध्या हो चली है।
किरणे समेटी दिनकर ने,चला पश्चिम की और
की संध्या हो चली है।।
(प्रकृति)
बरसा सावन उमड़ घुमड़ कर, अब बदरा छंट गए
की संध्या हो चली है।
धरती से निपजे स्वेद सोना, कर्ज के पन्ने कट गए
की संध्या हो चली है।
कृषक के घर खुशी छाई, आज पकवान बन गए
की संध्या हो चली है।
पैर फैलाकर सोया मनुज,अब दिन वो बदल गए
की संध्या हो चली है।।
(किसान)
सड़को पर जलूस निकला, धर्मो में में हम बंट गए
की संध्या हो चली है।
सफेद पहनकर करते काले कर्म,अपने घर बन गए
की संध्या हो चली है।
रिस्तो का मोल नही, बेटियों पर गिद्ध बनकर टूट गए
की संध्या हो चली है।
माता पिता वृद्धाश्रम में, बेटे बहु आज पार्टी करने गए
की संध्या हो चली है।।
(सामाजिकता)
पत्थर से प्रेम पनप गया, लहू का रिश्ता टूट गया
की संध्या हो चली है।
अपनत्व है गायब यहां,, स्वार्थ का बंधन बंध गया
की संध्या हो चली है।
पार्टी है बड़ी, है देश छोटा, शासन धंधा बन गया
की संध्या हो चली है।
भृकुटि ताने युवा चला है,नशा ही खाना बन गया
की संध्या हो चली है।।
(मानवता)
नैतिक मूल्य बिक गए, अराजक नेता बन गया
की संध्या हो चली है।
कुर्शी नीचे गड्डी फेंकी, अब मैं अफसर बन गया
की संध्या हो चली है।
नेता बिके,वर्दी बिकी,शिक्षक महत्ता खो गया
की संध्या हो चली है।
खाया खौफ रजनीचर का, शरीफ अब सो गया
की संध्या हो चली है।।
(कुकृत्य)
जब संध्या होती है तो घोर अंधकार छा जाता है,
जागो संध्या डूब गई है।
समाज बंटा तो खून खराबा,मानव हिंसक हो जाता है
जागो संध्या डूब गई है।
दोष किसी पर मत मंडो, खुद ही दोषी बन जाता है
जागो संध्या डूब गई है।
चिर युवा तुम कहे जाते हो, उठे तूफां उठ जाता है
जागो संध्या डूब गई है।।
(आह्वान)
विनोद महर्षि अप्रिय