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संथाली

5 नवम्बर 2021

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संथाल जनजाति

संथाल जनजाति पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार, मध्यप्रदेश, ओडिशा और असम राज्यों में इनका निवास स्थान रहा है। इस

राजनीति को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के साओत क्षेत्र में लंबे अरसे तक रहने के कारण साओंतर कहा जाता था, जिसे

आगे चलकर संथाल कहा जाने लगा.... वैसे भी ये झारखण्ड और बिहार के कई जिलों में इनका वास है। इनका रहन-सहन

और खान-पान पूर्ण रूप से आदिवासी ही रहा है... ये अनुसूचित जनजातियों में आते हैं। झारखण्ड में संथालों की संख्या और

जगहों से अधिक है।

संथाल जनजाति की भाषा और बोलचाल संथाली है। इस भाषा का संबंध आस्ट्रो-एशियाई भाषा परिवार से है... संथाली भाषा

की लिपि ओलचिकी है।

प्रजातीय तत्व के अनुसार संथालियों का कद मध्यम रंग काला या भूरा, कपाल बड़े, बाल काले व सीधे और घुघराले भी होते

हैं... नाक मध्यमाकार और जड़ से दबी हुई सी आँखें मध्यम आकार की तथा काली होती है। मुह बड़ा एवं होंठ मोटे और

लटके हुए होते हैं। शरीर पर बालों की संख्या न के बराबर होती है और दाढ़ी भी कम ही होती है। हट्टन संथाल जनजाति को

प्रजातीय वर्गीकरण के अनुसार से पूर्व द्रविड़ियन, गुहा प्रोटोओस्ट्रोलायड, शिमट आस्ट्रो, एशियाटिक, तथा रगेरी आस्ट्रोलायड-

वैदिक मानते हैं।

सथाल जनजाति गाँवों में प्रायः दूसरी जनजातियों एवं जातियों के साथ निवास करती है। इनके गाँव छोटे होते हैं, जिनमें 10-15

विभिन्न गोत्रों के संथाल परिवार निवास करते हैं। इनके मकान मिट्टी से बने होते हैं और लंबी कतारों में बनो होते हैं। इनके

मकान के चारों तरफ एक चौड़ा चबूतरा होता है। कमरे बाँस और लकड़ियों से बने होते हैं। घर में एक मचाननुमा छत भी

होता है, जिनमें ये अपने अनाज और अन्य सामग्री भी जमा रखते हैं। इनके मकान की दीवारें प्रायः चारकोल के काले रंग से

रंगे होने के कारण आकर्षक लकते हैं। इनकी औरतें घर को साफ सुथरा रखती हैं। अन्य अनुसूचित जातियों की तरह ये गंदगी

में नहीं रहते हैं।

वैसे अब कुछ संथाली जो शहरों में जाकर काम कर रहे हैं, वो अपने घर पक्के भी बनाने लगे हैं और उनमें शहरी वातावरण

का असर भी आने लगा है।

संथाल जाति के परम्परागत पोशाक कुपनी, कांचा, पंची,, पारहांड दह््ड़ी, पाटका इत्यादि आधुनिक पोषाकं से विस्थापित हो

चले हैं।
संथाल महिलाएँ भी साड़ी पहनने लगी हैं। संथाल महिलाएँ अपने जुड़ों को गोलाकार रूप् में एक विशेष ढंग से बांधती हैं।

इनके हाथ पैर तथा गले में गोदना चिन्ह अनिवार्य रहता है। वैसे आजकल गोदना का रिवाज कम होता जा रहा है या ये कहें कि

इन पर भी आधुनिकता का रंग चढ़ने लगा है।

संथाल महिलाएँ शंख कांसे पीतल, तांबे तथा चांकी से निर्मित आभूषण पहनती हैं। गले में हँसली, हाथों में शंख निर्मित सांखा

कांसे पीतल या चाँदी के बने सकोम, बाँह में खागा, एवं गले में हँसली तथा सकड़ी और कानों में सोने या चाँदी से निर्मित

पानरा, नाक में मकड़ी, पाँवों में कांसे की बांक- बंकी तथा पाँव की अंगुलियों में बटरिया इनके सामान्य आभूषण हैं।

युवकों के आभूषण में हाथों में चाँदी के टोडोर, बाँहों में खांगा तथा कानों में कुंडल हैं। इनके अलावा फूल तथा पत्तियों से भी

अपने शरीर को सजाया करते हैं।

संथाल संगीत व नृत्य के बड़े ही प्रेमी होते हैं। बंसी, ढोल, नगाड़े (वायलिन) इनके प्रमुख वाद्य यंत्र हैं। विवाह तथा हर उत्सव में

ये संगीत और नृत्य का भरपूर आनंद लेते हैं। इनके लोक संगीत कर्णप्रिय और लोक गीत जीवन के अनुभवों में पगे होते हैं।

नगाड़े की थाप पर इनके लोक नृत्य जीवन की मधुरिमा बिखेरते हैं।

इनके पैतृक संपति पर पहला अधिकार पुत्रों का होता है, फिर अविवाहित पुत्रियों या फिर पट्टिदारों का होता है। ये एकाकी भी

रहते हैं, पर अधिकांश संयुक्त परिवार होता है। पिता ही परिवार का मुखिया होता है।

संथाल महिलाएँ सरल तथा काफी परिश्रमी होती हैं... बच्चों के लालन- पालन से लेकर, खाना बनाने, पानी लाने, कृषि एवं

व्यवसाय में भी संथाली महिलाओं का प्रमुख योगदान रहता है। हाटों में सामान बेचने तथा आवश्यक भी खरीद्दारी भी संथाल

महिलाएँ ही करती हैं।

संथाल महिलाएँ पूजा-पाठ, पंचायत, हल चलाने एवं छप्पर छाने जैसे कार्यों में प्रतिबंधित होती हैं। कन्या का जब तक विवाह

नहीं होता है, वह पिता की संपत्ति होती है। विवाह के पश्चात् वह पति की संपत्ति हो जाती है। विवाह से पहले वर पक्ष को पोन

अर्थात वधु मूल्य चुकाना होता है। संथाल समाज में महिलाओं को आदर मिलता है। विशेषकर बुजुर्ग महिलाओं को, उनकी

सलाह भी मानी जाती है।

संथाल जनजाति में प्रसव के समय घर या पड़ोस की बुजुर्ग महिलाएँ दाई का कार्य करती है। नवजात शिशु का नाल नुकीले

तीर से काटे जाने का प्रचलन है।

संथाल जनजाति में बेटे के जन्म पर पांचवें दिन तथा बेटी के जन्म पर तीसरे दिन छठियार यानी छठ्गी मनाये जाने की पंरपरा

है। इस अवसर पर गांव में मांझी तथा कुदम नायके सहित अन्य लोग नाई द्वारा अपने और बच्चों का मुंडन कराते हैं। निकाले

गये बालों को एक दोने में रखा जाता है। उसके पश्चात हल्दी और तेल लगाकर सभी स्त्री पुरूष स्नान करते हैं। बच्चे के कटे

बालों को नदी के घाट पर बहा दिया जाता है। जच्चे और बच्चे को घर पर ही स्नान कराया जाता है। स्नान करके लौटने के

पश्चात दाई चावल के चूर्ण को पानी में घोलकर सभी पर छिड़काव कर छूतक को दूर किया जाता है। उसके बाद दाई हास्य

और विनोद के वातावरण में बारी बारी से सभी को प्रणाम करते हुए बच्चे के नाम की घोषणा करती है। प्रायः पहली संतान को

दादा-दादी या नाना-‘नानी का नाम दिया जाता है।

इस अवसर पर नीम की पत्तियों के साथ पकाई गई खिचड़ी या मांडी लोगों के समक्ष खाने के लिए परोसी जाती है, जिसे

नवजात शिशु की ओर से उपहार माना जाता है। इस अवसर पर दाई को उपहार भी दिया जाता है।

विवाह के पूर्व बच्चों का चांचो छठियार मनाया जाता है। इसके लिए कोई उम्र या दिन सुनिश्चित नहीं होते हैं। इस संस्कार के

द्वारा ही संथाल जनजाति में उत्पन्न हुए शिशु को जनजाति प्राप्त होती है। इसलिए जिस शिशु की मृत्यु उसके चाचो छठियार के

पूर्व हो जाती है, उसका न तो शव दाह किया जाता है और ना ही श्राद्ध।

इस अवसर पर गांव के बुजुर्ग एकत्रित होते हैं, जिन्हें तेल हल्दी लगाई जाती है, फिर हडिया की छाक ढाली जाती है। इस

अवसर पर बुजुर्ग लोग सृष्टि से लेकर आज तक भ्रमण का वर्णन अपनी जानकारी अनुसार करते हैं।

विवाह संथाली परिवार की आधारशिला होती है- जिसके आधार पर समाज की निरंतरता कायम रहती है। विवाह के अंतर्गत

धार्मिक, कानूनी तथा सामाजिक स्वीकृति जरूरी होती है... जो यौन एवं आर्थिक उत्तरदायित्व के निर्वाहन का अधिकार प्रदान

करता है।

झारखण्ड की संथाल जनजाति के बीच समगोत्रिय विवाह निषिद्ध है। संथाल जनजाति मंे एक विवाह की प्रथा है।

ईसाई धर्म के प्रचार, औद्योगिकरण एवं शहरीकरण के कारण इनके बीच इन दिनों गैर जनजातिय विवाह का छुट-पुट

उदाहरण देखने को मिलने लगा है। वरना विवाह के मामलों में संथाल बहुत ही कट्टर हैं। इनमें बाल-विवाह का प्रचलन नहीं है।

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