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संथाली

5 नवम्बर 2021

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साली और देवर विवाह सामाजिक रूप से मान्य है। विधवा विवाह का भी प्रचलन है।


बाँझपन, परित्रहीनता, एक साथ रहने की अनिच्छा एवं डायन होने की आशंका पर तलाक भी मान्य है, तलाक होने पर वधु

मूल्य लौटाने की परम्परा है।


झारखण्ड की संथाल जनजाति में जीवन साथी प्राप्त करने के विभिन्न प्रकार के बापला अर्थात विवाह देखने को मिलते हैं। सभी

के अलग अलग नियम हैं।


इन बापला मंे मुख्यत‘ सादाई बापला, गोलाईटी बापला, दूनकी दिपिल बापला, घरदी जावांय बापला, अपगिर बापला, इतुत

बापला, निर्वाेलक बापला, बहादूर बापला, राजा रानी बापला, सांगा बापला, कीरिंग जावांय बापला प्रमुख हैं।


संथाल जनजाति में मरणोपरांत शव संस्कार, अस्थि प्रवाह तथा श्राद्ध की रस्में पूरी की जाती है। शव-संस्कार, शव को जलाकर

या दफनाकर करने की प्रथा है। मृतक की निजी उपयोग में लाई जाने वाली वस्तुएँ जैसे-बर्तन, धनुष, बाण, लाठी वाद्य यंत्र

कपड़े इत्यादि शव के साथ रख दी जाती है।


संथालों मंे यह विश्वास है कि मृत व्यक्ति की आत्मा मायामयी दुनिया में चली जाती है। वहाँ उसे इन वस्तुओं की आवश्यकता

पड़ती है। साथ ही एक मुर्गी का बच्चा, हल्दी, छप्पर का थोड़ा पुवाल तथा बिनौले के तावा के साथ शव को नये कफन में ढक

कर अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जाता है। जलाते समय चिता उत्तर दक्षिण की ओर बनाई जाती है। मृतक का सिर दक्षिण

की ओर रखा जाता है। शव को चिता पर रखने के बाद खूंटी पर मुर्गी के बच्चे की बली चढ़ाई जाती है। मृतक को मुखाग्नि देने

का अधिकार क्रमशः पुत्र, पौत्र, पिता, भा्रता, चाचा एवं भतीजा को है। मुखाग्नि देने के पश्चात पट्टिदारी के उपस्थित लोग भी

एक-एक लकड़ी डालते हैं, या दफन करना हो तो मिट्टी डालते हैं।


शवदहन के पश्चात् वहीं घाट पर सभी लोग मुण्डन करवाते हैं और स्नान करते हैं। शहदाह के पश्चात राख को वहीं नदी में

प्रवाहित कर दिया जाता है। मृत्यु के पांचवे दिन तेल नहान किया जाता है। इस अवसर पर गांव के सभी बुजुर्ग व्यक्ति पुनः

मृतक के घर बाल मुंडवाते हैं और स्नान करते हैं। फिर आत्मा पितर तथा मरांग बुरू के नाम से तीन व्यक्ति मृतक के घर पर

झूमते हैं। लोग इनसे मौत का कारण पूछते हैं तथा भविष्य की विघ्न बाधाओं से मुक्ति पाने का आग्रह करते हैं। शाम को एक

छोटे स्तर पर भोज का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर मुर्गे की बलि दी जाती है और बिना नमक की खिचड़ी पकाई

जाती है। मृतात्मा को खिचड़ी का भोग चढ़ाया जाता है।


भाण्डान (श्राद्ध) मृतात्मा का अंतिम संस्कार माना जाता है। जब तक मुण्डन नहीं होता है, तब तक मृतक का परिवार एवं पूरा

गाँव अशुद्ध माना जाता है। वे किसी सामाजिक कार्य में हिस्सा नहीं ले सकते हैं और ना औरतें कोई साज-सज्जा कर सकती हैं

और ना ही कोई धार्मिक कार्य।


भाण्डान के अवसर पर मृतक का श्राद्ध तथा कुटुम्ब के लोगों को भोज दिया जाता है। इस अवसर पर बकरे की बलि दी जाती

है। इस रात्रि भोज में लोग हडिया पीते हैं और नाचते गाते भी हैं। भाण्डान का भोज मृतक के परिवार एवं गांव वालों का

अशुद्धता से मुक्ति की स्वीकृति मानी जाती है।


संथाल जनजाति वहिविवाही गोत्रों में विभक्त हैं, इनके गोत्र गोत्रार्था या सिव में बंटे होते हैं, संथाल अपने गो.त्र तथा सिव में

विवाह नहीं कर सकते हैं। वे अपने माता के सिव में विवाह कर सकते हैं।


संतान पिता का गात्र पाते हैं, माता का नहीं। लड़की शादी के पश्चात पति के गोत्र को धारण करती है। प्रत्येक गोत्र का अपना

गोत्र चिन्ह होता है। यह गोत्र चिन्ह किसी पशु-पक्षी या पौधे के नाम पर होता है। गोत्र चिन्ह को किसी भी प्रकार का नुकसान

पहुंचाना निषेधित माना जाता है। गोत्र चिन्ह के प्रति भय सामाजिक जीवन को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करता है।


अनैतिक यौन संबंध को संथाल ईश्वरीय प्रकोप मानते हैं। बिटलाहा द्वारा अपराधी को दंड देकर वे अपने देवताओं को प्रसन्न

करते हैं। उनके अनुसार ईश्वरीय प्रकोप से अकाल, अतिवृष्टि, महामारी इत्यादि फैलने का डर होता है। बिटलाहा का शाब्दिक अर्थ निर्वासित या वहिष्कृत होता है।


सामाजिक बहिष्कार की यह सजा संथ पंचायत के निर्देशानुसार निर्धारित किया जाता है। जब कोई संथाल महिला अपने ही

गोत्र या निकट संबंधी या किसी गै़र पुरूष के यौन सहवास में आसक्त पाई जाती है या इस आशय की सूचना प्राप्त होती है तो

ऐसे यौन अपराध की सज़ा देने के लिए गाँव का मांझी (मुखिया) अपने सहयोगियों के साथ विचार विमर्श तथा सही जाँच

पड़ताल करने के बाद ही सज़ा देता है। किन्तु यौन अपराध सिद्ध न होने पर अफवाह फैलाने वाले को कड़ी से कड़ी सज़ा

दिया जाता है।


बिटलाहा किये जाने वाले लोगोें को पुनः समाज में शामिल किये जाने का प्रावधान भी है बशर्ते अपराधी क्षमा याचना कर एक

ब़ड़े भोज का आयोजन करने में सक्षम हो।


संथाल जनजाति का धार्मिक जीवन देवी देवताओं तथा प्रेतात्माओं में विश्वास तथा पर्व त्यौहारों से जुड़ा है।


सनातन संथालों का विश्वास है कि किसी व्यक्ति परिवार या गाँव की कुशलता उनके बोंगा गुरू तथा हापड़ामको (पितरों तथा

देवी देवता को) की दया पर ही निर्भर है। अतः उन्हें प्रसन्न रखने के लिए उनकी आराधना करना तथा उन्हें बलि-हड़िया या

भोग चढ़ाना ज़रूरी है।


संथालों का सबसे बड़ा देवता संिगा बोंगा (सूर्य) सिंग बोंगा के बाद मरांग बुरू उनका दूसरा सबसे बड़ा देवता है।


इस जनजाति के अन्य बोंगा हापड़ामको गोसाई एरा, मोंडेक, तुइको जाहेर एर मांझी हड़ाम बोंगा, ओड़ाक, अनगे बोंगा (ग्रह

देवता) तथा पूर्वज बोंगा का निवास घर के अंदर होता है।


कुछ संथाल भूत-प्रेत पे विश्वास नहीं रखते.... वे केवल एक ईश्वर पर ही विश्वास रखते हैं.... वे साफाहोड़ (शुद्ध संथाल) संप्रदाय

के हैं।


गोत्र चिन्ह के नाम पर ही गोत्र का नामकरण होता है। विवाह इत्यादि जैसे विशेष अवसर पर गोत्र चिन्ह की पूजा अर्चना भी

किया जाता है। गोत्र वंश का ही एक विस्तृत रूप होता है। एक गोत्र के सभी सदस्य अपने को एक सामान्य पूर्वज की संतान

मानते हैं। इसलिए समगोत्रिय भाई-बहन होते हैं। संथाल जनजाति के बीच पितृवंशीय गोत्र पाये जाते हैं।


संथाल जनजाति विभिन्न गोत्रों में विभाजित है- जैसे हंसदाक, मूर्म, किस्कू, हैम्ब्रम, मरांडी, सोरेन, टुडू, बेसरा, पौड़ियाबसके,

चोड़े इत्यादि संथाल में इन मुख्य गोत्रों के अतिरिक्त डेढ-दो-सौ उपगात्र भी पाये जाते हैं, जो मुख्यतः पूजा अर्चना से संबंधित

होते हैं।


समाज द्वारा स्वीकृत जिन विशिष्ट सामाजिक संबंधों द्वारा मानव बंधा होता है, वो नातेदारी कहलाता है। संथाल जनजाति के

बीच रक्त तथा विवाह संबंधित नातेदारी होती है।


इस जनजाति में मैंस्कुर तथा जेठसाब को देवता स्वरूप माना जाता है। इनको छुआ नहीं जाता है और ना ही उनकी चारपाई

पर बैठ सकते हैं। यदि भूल से कभी स्पर्श हो जाए तो इनके बीच आरूप् जंगा की रस्म पूरी करने की प्रथा है। संथाल महिलाएँ

सर पर घूँघट नहीं डालती, किंतु गुरूजनों के समक्ष वे अपने बालों को खुला नहीं छोड़तीं.....


संथाल जनजाति में पति के की बहन को बहुत आदर दिया जाता है। उसे ब्रह्मणतुल्य माना जाता है।


संथाल अंतर्विवाह जनजाति है। इसके बीच समगोत्र यौन संबंध निषिद्ध है। जब कोई इस मार्यादा को लांघित करता है तो उसे

बिटलाहा यानी जाति से अलग कर दिया जाने के प्रथागत कानून के अंतर्गत दंडित किया जाता है।


संथाल जनता के जीवन में पर्व त्यौहारों का विशेष महत्व है। इनके बीच सभी त्यौहार सामूहिक तौर पर मनाये जाने की परम्परा

है। गाँव के नायके (पुजारी) गाँव के गांव के सभी लोगों की ओर से व्रत रखता है तथा पूजा-अर्चना करता है। उत्सव मनाने के

सिलसिले में आयोजित नाच गाना मंे सभी संथाल पुरूष-महिलाएँ समान रूप से हिस्सा लेते हैं।


संथाल जनजाति के त्यौहारों का शुभारंभ आषाढ मास से होता है।


एरांक, हरियाड़, जापाड , सोहराई, साकरात, भागसिम, बाहा इत्यादि संथाल जनजाति के प्रमुख पर्व हैं।


संथाल जनजाति मूलतः कृषि, लघु वन, पदार्थ, शिकार इत्यादि कार्यों में निपुण होते हैं और इन्हीं से इनकी अर्थव्यवस्था भी

चलती है।
वैसे आजकल संथाल जनजाति के लोग, औद्योगिक क्षंेत्रों मंे भी कार्यरत हैं। अधिकतर लोग मजदूरी करते हैं। राजनीति में

भी इनकी अच्छी पैठ हो रही है। यहाँ तक कि झारखण्ड की राजनीति मं इनकी अच्छी पैठ है।
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