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सत्या-ज्ञान

6 नवम्बर 2021

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....आज फिर वही तड़प !...वहीं निशब्द- सी प्रतिध्वनि! मानस मे शायद फिर से कुछ दरक रहा था ।"अनभिज्ञ भी तो नहीं हो सकती मैं इन सब से !मजबूरियां यूं ही नहीं मिट जाया करती।" सत्या की निरुद्वेगता.. मन में उठते विचारों के भंवर  उसकी रुग्णता को प्रज्ज्वलित से कर रहे थे।हां रुग्ण थी वह!... और ये रुग्णता उसके मानस से शुरू होकर कब उसके शरीर को अपने बहू पास में कसता चला गया जब वह बिस्तर पर निढाल होकर गिरी इसका पता तब चला। आंखों के दोनों पोर से बहते आंसू कब अपना निशान छोड़ कर गायब हो गए उसे पता ही नहीं चला। 30 साल ही तो हुए थे उसके जीवन के, इतने कम समय में इतना कुछ खोना... समेटना....! हे ईश्वर यह कैसा इंसाफ है?.... क्यों कर कोई तुम पर विश्वास करें ? आकांक्षाओं की परिणति ....!...इच्छाओं की परिणति! और अब जीवन की भी ..!
"नैराश्य... इस शब्द को मैंने अपने शब्दकोश में कभी जगह नहीं दी ।लेकिन आज.... थकती हूं ...हंसती हूं... फिर थक जाती हूं! ...यह कैसा जीवन है?"
" सत्या दी.....!" अचानक एक आवाज अंदर आई ।
"अरे ज्ञान, तुम आ गए?" होठों पर बनावटी मुस्कान लाते हुए सत्या ने कहा।
" मैं आप की दवाइयां ले आया"
"मेरे लिए इतना क्यों करते हो भैया? यू भी इन दवाइयों से कुछ होना नहीं है !"सत्या ने ज्ञान की तरफ निरिहता से देखते हुए कहा।
" आप ऐसा ना कहो दी...! आप ठीक हो जाओगी।"
" मुझे बहला रहे हो ?पता है ना यह बीमारी मुझे मौत के बाद ही छोड़ेगी!" सत्या ने मुस्कुराने की कोशिश की।
मैं ऐसा नहीं होने दूंगा।" कहते-कहते वह सत्या से लिपट कर रोने लगा ।
बहुत छोटी थी सत्या जब सर से मां- बाप का साया उठ गया। जीवन यात्रा के अंतहीन सिलसिले में यह छोटी सी आंधी थी ,तूफान तो अभी आने थे! मामा के घर प्रथम दिवस के आगमन ने ही इसका एहसास उसे करा दिया था।
".... सत्या ..अरे..ओ ...सत्या !"
"आती हूं मामी...!" कर्कश आवाज को सुनकर दौड़ के आती सत्या बोली ।
"कपड़े अभी धुले नहीं.... ?"मामी चिल्लाई ।
"वह मामी जी मैं अभी कर देती हूँ।"
".....यहां हमने कोई धर्मशाला नहीं खोल रखा !...काम करोगी तो खाने को मिलेगा, वरना यहां से रास्ता नाप!"मामी ने उसकी बात काटते हुए कहा।
शब्दों की ये नस्तर उसके दिल में घुसते चले गए। फिर तो हर रोज की यह कहानी बनती चली गई ,पर सत्या के लिए यह सब सहना दिन-ब-दिन दुरुह होता जा रहा था ।वह परिस्थितियों से सामंजस्य बैठाने की कोशिश करती, लेकिन ताने सुनने और पिटने के बहाने बढ़ते ही जा रहे थे।...अंततः उसने घर छोड़ना ही उचित समझा और घर से निकल गई। पर अकेली लड़की कहां जाती है , वह ऐसे लोगों के हाथ जा लगी जिन्होंने उसके जीवन की दिशा ही बदल दी ।उन लोगों ने उसके नारीत्व को उससे निचोड़ना शुरू कर दिया। नन्ही सी जान उनके हाथों की कठपुतली बन गई ।
एक दिन वह उनके पैरों पर गिर पड़ी ,"मुझे जाने दीजिए!" वह गिड़गिड़ाते हुए बोली ।

"अभी कैसे जाने दें तुझे ...अभी तो तुझमें बहुत कुछ बाकी है... अभी तो तेरी पूरी कीमत वसूलनी है।" उन्होंने उसे फिर से बंद कर दिया, सत्या चिल्लाती रह गई।... अंततः उसने नियति से हार मानना ही बेहतर समझा ।


".....अगर मेरे जीवन में अच्छे दिन होने होते तो क्या मेरे मां-बाप मुझे छोड़ कर चले जाते ?....मामा- मामी ...उसने घृड़ा से मुंह फेर लिया।.... यह लोग इतने नीच भी हो सकते हैं! उन्होंने तो सब कुछ मेरा ले लिया !...क्या मांगती थी मैं उनसे?... प्यार के दो बोल ही ना ....!पर वह भी.....! सत्या रोने लगी ।...मां तू क्यों छोड़ कर चली गई?... मुझे अपने साथ ही क्यों नहीं ले गई !"अचानक दरवाजे खुलने की आवाज आई ।उसने सामने देखा तो एक 60-65 साल का बुढ़ा खड़ा खींसे निपोर रहा था। सत्या जब तक कुछ समझ पाती , उसने दरवाजा बंद कर दिया ।


"देखो... मुझे छोड़ दो...!" वह गिड़गिड़ाने लगी ।


"अरे कैसे जाने दूं... मैंने पूरी कीमत दी है तुम्हारी ।"वह सत्या को दबोचने के लिए आगे बढ़ा ,अचानक सत्या का एक  भरपूर लात उसके मुंह पर पड़ा और वह बेहोश होकर नीचे गिर पड़ा। सत्या ने अवसर देखा, वह भाग कर बाहर आई। इधर उधर देखा ,कोई नजर नहीं आ रहा था। ईश्वर को स्मरण किया और वहां से दौड़ पड़ी ।अंधेरा काफी था, वह बेतहाशा दौड़ती चली गई ।ह्रदय- गति धौकनी की तरह चल रहा था ।जब पैरों ने भी साथ देना बंद कर दिया तो सत्या गिर पड़ी ।पास में ही 2-4 झोपड़ी सरीखे मकान दिख रहे थे ।जिसमें एक झोपड़ी के बाहर एक बारह-तेरह साल का लड़का सो रहा था ।उसने जब सत्या के गिरने की आवाज सुनी तो उठकर सत्या के पास आया। वाह पानी -पानी चिल्लाए जा रही थी। लड़का पानी ले आया।


" अब आप ठीक है?" उसने सत्या से पूछा।


" हां !"वह धीरे से बोली ।


"पर दीदी ...आप इतनी रात गए इस तरह से भागती हुई कहां से आ रही है?" सत्या रोने लगी ।


"दीदी ....वह भी रुआंसा हो उठा ।....आप चुप हो जाइए, मेरा आप को रुलाने का प्रयोजन नहीं था।"


"नहीं भैया  .!"सत्या बोली ।"मैं तो अपनी किस्मत को रो रही थी!" सत्या ने अपनी पूरी कहानी बता दी ।


"अच्छा आप मेरे घर चलिये।"उसने सत्या का बांह पकड़ते हुए कहा।


" तुमने अपने बारे में नहीं बताया !"सत्या ने आंसू पोछते हुए कहा।


" मेरा नाम ज्ञान है ...और यह जो सामने अब झोपड़ी देख रही है ना वह मेरा घर है ।"


"कौन-कौन रहता है तुम्हारे साथ?" सत्या बोली।


" बस मैं अकेला!"


" क्या...!" सत्या को आश्चर्य हुआ।


" हां बापू बीमार रहते थे ,मां घरों में साफ-सफाई का काम करती थी। 1 दिन बापू की तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब हो गई ।मां उनके लिए दवाइयां लेकर आ रही थी अचानक सामने से आते ट्रक ने मुझे हमेशा के लिए मां-बाप  दूर कर दिया। मां तो मरी ही, दवाइयों के अभाव में बापू भी चल बसे ।अब मैं बचा हूं खुद को ढोने के लिए। सारा दिन जूते पॉलिश करता हूं और शाम को यहां उनकी यादों के साथ पड़ जाता हूं।"


सत्या उसका मुंह देखे जा रही थी, कितनी सहजता से यह सब कुछ कह गया!... और एक वह है जो छोटे से छोटे दुख से भी घबरा उठती हैं।... ईश्वर को कोसने लगती है!


दीदी आप मेरे साथ रहेंगीं?"ज्ञान के शब्दों में याचना भरी थी।


" हां भैया!" सत्या के आखों मे आंसू भर आए ।उसने ज्ञान को अपनी गोद में भींच लिया।


सत्या सुबह बाहर निकली अपने लिए  एक काम भी ढूंढा आई ।ज्ञान पढ़ने भी जाने लगा। दोनों का समय मजे से बितने लगा ।पर सत्या चाह कर भी खुद को अपने काले अतीत से उबार नहीं पाई ।बहुत कोशिश करने पर भी खुद को सहज नहीं कर पाती ।शारीरिक घाव तो इंसान सह जाता है.... पर जब चोट आत्मा ने खाई हो तो स्थिति और असह्य हो जाती है। सत्या बीमार रहने लगी ।उसने डॉक्टर को दिखाया उसने जो बीमारी बताई उससे सत्या का रहा सहा धैर्य भी टूट गया।


सत्या वापस घर के लिए चल पड़ी, पैर जैसे मनो -बोझ से भर उठे थे। आंखों के आगे अंधेरा फैलता जा रहा था। ज्यों ही वह अंदर घुसी सामने ज्ञान का मुस्कुराता चेहरा दिखाई पड़ा।


" दीदी ..!"वह खुशी से उसका पैर छूता हुआ बोला।" आज आपकी तपस्या पूरी हो गई, मुझे नौकरी मिल गई!... तनख्वाह जानती है ?...महीने के पूरे 25000 ..!आप तो जैसे मेरे जीवन में देवी बन के आ गई !"ज्ञान भावुक होते हुए बोला।.... वरना आज मैं पता नहीं क्या होता! .. और आजसे आपका काम करना बंद...!... और दीदी .. वह बोलते बोलते रुक गया!" उसने देखा सत्य की आंखों में आंसू भरे हैं !


"....क्या हुआ दीदी?"


" कुछ नहीं  ..!....कुछ भी तो नहीं !"सत्या ने मुस्कुराने की कोशिश की।


" नहीं आप मुझसे कुछ छुपा रही हैं !"


"नहीं भैया ,यह तो खुशी के आंसू हैं!" सत्या ज्ञान से छिपा तो गई  पर जब बीमारी बढ़ती गई तो डॉक्टर को ज्ञान को बताना ही पड़ा कि सत्या एचआईवी से ग्रसित है। ज्ञान की तो जैसे दुनिया ही उजड़ गई।
"आह ईश्वर..! क्या जीवन में खुशियां इतने दिनों के लिए थी !...जब अंततः यही करना था तो क्यों दिखाया झूठा सपना ?...क्यों दी खुशियां..?हमें अपने हाल पर छोड़ देता।"ज्ञान का जी कर रहा था वह फूट-फूटकर रोए। उसने खुद को किसी तरह संयमित किया और दवाइयां लेकर घर की तरफ चल पड़ा ।अचानक सत्या से लिपटे ज्ञान को महसूस हुआ वह निश्चेष्ट हो गई है ।उसने सत्या के चेहरे की तरफ देखा ,आंखें पथरा  गई थी।
" .. दी! अचानक वह चीख पड़ा ।"यह क्या किया ...!क्यों मुझे छोड़ कर चली गई?. क्यों ?
"चुप हो जाओ बेटे !"ज्ञान ने देखा पड़ोस का एक बुढ़ा- सा व्यक्ति खड़ा था। "रो कर  इस पवित्र आत्मा को दुखी मत करो । यह देवियां ऐसी ही होती है... सहसा किसी के जीवन में आ....उसके दुखों को स्वयं में समेट गायब हो जाती हैं !.....चाहे इसके लिए खुद ही इतने कष्ट उठाने पड़े!.. तुम इसके क्रिया- कर्म का इंतजाम करो ।"
ज्ञान ने देखा सत्या के चेहरे पर एक अद्भुत- सा प्रकाश फैल रहा था और उसके होठों पर मुस्कुराहट थी। उसके मुंह से जैसे आवाज आ रही थी-" सदा खुश रहो भैया ... सदा खुश रहो!" ज्ञान की आंखों से एक बार फिर से आंसू छलक पड़े।


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