कहते हैं परिवार मनुष्य के प्रथम पाठशाला है और समाज की छोटी इकाई भी ।मनुष्य एक परिवार के बीच जो संस्कार पाता है वही बड़ा होकर समाज को लौटाता है। ...यानी वह अपने संस्कार के अनुसार ही समाज निर्माण करता है ,अतः इससे सिद्ध होता है कि हमें अगर एक चैतन्य समाज का निर्माण करना है तो सबसे पहले परिवार में ही मूल्यों को भरना होगा। आज जबकि वर्तमान समय में परिवार टूट रहे हैं, चारों तरफ स्वार्थ के अंधीदौड़ मची है, समाज की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है! तो मूल्य चेतना का महत्व और भी बढ़ जाता है ।
पुराने जमाने में जब परिवार संयुक्त होता था, लोग हर रिश्तो की कद्र करते थे। बच्चे उनके बीच रहकर अच्छाइयां सीखते थे ।..चाचा -चाची, भैया- बहन, फूफा ताया, दादी, काका, रिश्तो का कुछ ऐसा ताना-बाना होता था कि अनचाहे में ही हम बहुत कुछ सीख जाते थे। छोटों को प्यार करना ,बड़ों को सम्मान देना ,भले ही गलती बड़ों की हो पर अगर वे हमसे बड़े हैं तो उनके सामने जुबान ना खोलना ।पारिवारिक सुख -दुख को महसूस करना ।कभी ज्यादा पाना... तो कभी अभावों को झेलना।.....मतलब इन सारे रिश्तो को मीठी चासनी में पककर हम संपूर्ण मानव बन जाते थे।.... और वही संपूर्णता हम समाज को सूद समेत वापस लौटाते। अगर पड़ोस में किसी का देहांत हो जाए ,किसी की घर कोई उत्सव हो ,या फिर बाजार से किसी को कोई सामान लाना हो, हम सहर्ष तैयार होते, जैसे हमारा अपना काम हो ।किसी के दुखों में हम हमेशा अपना कंधा आगे कर देते ।पर आज...... मैं यहां अतीत की खूबियां गिनाने नहीं बैठा, बल्कि बता रहा हूं ,सच कहूँ तो रो रहा हूं कि क्या हो गया हमारे मूल्यों को!... हम तो ऐसे न थे!
आखिर क्यों जरूरत पड़ी हमें इन सामाजिक मूल्यों को खोजने की? क्यों खो गया सब कुछ? किसी विद्वान ने कहा है कि अगर आप अपने बच्चे को कुछ अच्छा बनाना चाहते हैं तो उन्हें परियों की कहानियां सुनाइए ...और अच्छा बनाना चाहते हैं तो और ज्यादा कहानीया सुनाइए। सच ही तो है दादी कहानियां सुनाती थी कि परी अच्छी थी, राक्षस खराब। अंत में वह राक्षस को मार देती है। अच्छाई जीत जाती है। यह कहानी बताती थी कि अगर हमें भी जीतना है तो अच्छा बनना होगा। पर यह सब हम ना जाने कब का भूल चुके हैं !आज समाज टूट रहा है! परिवार टूट रहे हैं! पति-पत्नी छूट रहे हैं !तो इसका कहीं न कहीं सबसे महत्वपूर्ण कारण मूल्यों का खोना ही है ।इन मूल्यों को खोने का ही परिणाम है कि आज मनुष्य मनुष्य नहीं रहा। वह स्वार्थ के अंधी दौड़ में दौड़ता जा रहा है ।वह मशीन बन चुका है.... या फिर कहूं राक्षस बन चुका है ।....जबकि मानव .....मानवता ....और इस सृष्टि को बचाए रखने के लिए मूल्यों का योगदान अत्यंत मायने रखता है ।हम जिस दुनिया में रह रहे हैं वहां शायद ही कोई अकेला कुछ कर पाए ।समूह में रहना और सामंजस्य बैठाना ही एक ऐसी खासियत है जिसके चलते हमारा विकास हुआ। पर क्या यह सामंजस्य अथवा यह विकास मूल्यों के बिना संभव है ?....कदापि नहीं। अच्छाइयों का अवमूल्यन ही आज समाज को संक्रमण के पास ले आया है जहां हमारे महानतम मूल्य पीछे छूटते जा रहे हैं।
लोग आपसी सहयोग को भी लाभ हानि की कसौटी पर कसने लगे हैं। मतलब जहां खुद का फायदा नहीं वहां पर भी समय गंवाना बेकार है ।.....और इसका उदाहरण गाहे- बगाहे हम रोज देखते हैं ।अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब पटना में लबे सड़क पर एक लड़का एक लड़की के कपड़े फाड़ रहा था ...और लोग बजाय उसे मना करने के अपने अपने मोबाइल फोन से फोटो खींच रहे थे ...और मीडिया ?उसके लिए तक मसाला था ही ।यही नहीं आए दिन बलात्कार.... हत्या... भ्रष्टाचार... सांप्रदायिकता इन्हीं चीजों से हमे रोज दो चार होना पड़ रहा है तो यह हमारे मूल चेतना का अवमूल्यन हीं है ।हम आधुनिकता की दुहाई देते हैं ।मूल्यों का पालन पिछड़ेपन की निशानी मानते हैं! लोग इतने स्वार्थ मे अंधे हो चुके हैं की.... रिश्ते... नाते ...संवेदनाएं... भावुकता सब कुछ पीछे छूट चुका है ।हम बस उपर और उपर जाना चाहते हैं ।....यह नहीं देखते कि ऊपर उठते समय हमारा पैर... किसके गर्दन ....किस के मुंह पर पड़ रहा है ।यह नहीं जानते अगर हमारे अंदर मूल्य चेतना ना हो तो फिर इंसान होने के मायने क्या है।..... अफसोस बदलते समय ने हमें सब कुछ दिया पर मनुष्य होने का सत्व हमसे छीन लिया!
कहते हैं हम ईश्वर की श्रेष्ठ कृति हैं... स्वयं उसी के जैसा! पर हमारे श्रेष्ठता हमारे मूल्यों जैसे- सत्य ...दया ...प्रेम...अहिंसा से थी हमारे देह से नहीं ।पर जैसे जैसे हमारे विकसित होते गये.. हम भूल गए उस आदि सत्ता.. उस परमात्मा को ...और उसके गुणों को भी! आज हम खुद को विकसित मानते हैं..इतना की उस आदि सत्ता उस परमात्मा क चुनौती दे सकें ।हमेशा कुछ अलग पाने की चाह में हमें शांत ही नहीं रहने देती। पर आदिम युग से आधुनिकता तक के विकास में हमने कितना महान -सा खो दिया है यह सोचने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। बड़ा आश्चर्य होता है कि जहां की वंशावली अद्भुत त्यागी मनिषियों से भरी पड़ी है ,वहां भी स्वार्थांधता लोगों के दिलों में घर कर गई है! मैं मानता हूं समय के साथ चलना सबकी मजबूरी है . ..पर वास्तविकता के धरातल को छोड़ कर....? आगे बढ़ने के लिए सब कुछ भूल जाए यह ठीक नहीं ।जो मिले, जैसा मिले से अच्छा है.... कम मिले, अच्छा मिले ।हम उन्हें ही अपनाये जिससे उत्तरोत्तर हमारे गुणों का विकास हो न कि ह्रास! कितना अच्छा होता अगर हम अपनी प्राचीन आदर्शो से खुद तो निर्मल हृदय होते ही संपूर्ण संसार को भी सुभाषित करते। साथ ही अतीत के गौरव को बनाए रखते। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने भी तो कहा है -"वसुधैव कुटुंबकम"।
व्यक्ति जीवन को सार्वभौम मानता है और इसे बचाने के लिए मार-काट, लूट-खसोट करता है !क्या वह यह नहीं जानता है यह सब कुछ भ्रम है? माने भी क्यों न... उसकी इच्छाएं जो सत्य ,असत्य के बीच दीवार बनकर खड़ी है ...जहां उसे सब कुछ सार्वभौम नजर आता है। पर सार्वभौम जीवन कहां वह तो मृत्यु है।...एक अटल सत्य!पर ना जाने क्यों खुद को इस सत्य से दूर रखना चाहता है। अच्छा होता अगर इन सब के बाद भी जीवन में चार पल सुकून के आये... पर कहां ...?वास्तविकता के धरातल को छोड़ , खुद के मौलिकता को त्याग कोई कहां सुखी हो पाया है।.... परिणाम उसकी उम्मीदों का टूटन.... इच्छाओं का घुटन .....उफ...सब कुछ कितना अजीब !...वास्तव में ये कृत्रिम जीवन ही अजीब हैं!... अजीब सी सोच ....अजीब से विचार.... अजीब सी इच्छाएं ....अजीब से तड़प ...अजीब सा प्यार ...अजीब सा एहसास.... और फिर सारी दुनिया ही अजायबघर!.. और हम यहां के अजीब से जीव! ...खैर जो भी हो, पर क्या हम मूल्यों को छोड़ एक पल भी जिंदा रह सकते हैं?
कहते हैं सृष्टि परिवर्तनशील है !पर कुछ नहीं परिवर्तित हुआ तो वह है- नैतिकता ,हमारी अच्छाइयां, मूल्य चेतना। इनकी कीमत हजारों साल पहले भी थी... आज भी है... और सालों बाद भी रहेगी। मौलिकता और नैतिकता केवल बहस का विषय नहीं बल्कि यह हमारे होने का अर्थ भी है !...और हमें एहसास कराती है कि जानवरों से अलग है हमारा अस्तित्व। आज हमें इसे सहेजना है, खोजना है, और बोना है अपने दोस्तों में ,सहयोगियों मे, परिवार और समाज में।क्योंकि इन गुणों का अनादर ही हर दिन होने वाले पाप और और अमानवीयता को बढ़ाता है। इनसे दूरी हमे खुद से दूर कर सकती है... और यह कोई छोटी बात नहीं! मैं किसी धर्मोंपदेश की बात नहीं कर रहा ...बस आइना दिखाना चाहता हूं कि हम मानवों का वास्तविक सौंदर्य ना सिर्फ खोने वाला है... बल्कि खो चुका है!वह सपनीली दुनिया ...वह जगमगाता आशियां जिसमें मानवीय भावनाएं आशाओं और सत्कर्मों के पंख पर सवार अपने स्वछंद विचारों के साथ उड़ा करती थी बिना किसी भय के....वह खत्म हो चुकी है !
तथ्य सिर्फ खुद को बदलने का नहीं है,पर खुद के सर्वश्रेष्ठ होने के गुणों को हम ढूंढ ही सकते हैं। वर्तमान सामाजिकता के संदर्भ में हमें इस तथ्य की जरूरत भी है। मैं नहीं कहता अचानक से हम अपने आप को बदल डाले, लेकिन खुद के वास्तविक पहचान को पाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं ...एक अच्छे परिवार, एक अच्छे समाज, एक अच्छे विश्व के लिए ।एक प्रयास ...एक खोज ...एक सार्थक खोज ।जहां भौतिकता और स्वार्थ नहीं, सिर्फ मानवीय संवेदनाएं होगी ।...नैतिकता होगी।... मूल्य होंगे ।...ईश्वरीयता होगी ।....ईश्वर होंगे.... और यही हमारे दुष्कर्म का प्रायश्चित भी होगा।
तो चले हम अपने मूल्यों को खोजने? प्रश्न जारी है....