इस सवाल का जो लगभग अनबूझ जवाब मैंने दिया है उसका महत्व समझने में कुछ पल का वक्त लगेगा, मैं यह कह रहा हूं कि स्कूलों के बीच प्रतिस्पर्धा संबंधित स्कूलों, परिवारों और कुल मिलाकर समाज के लिए या तो अच्छी हो सकती है या फिर बुरी। यह सब परिस्थितियों पर निर्भर है, जिसमें कानून और नीतियों का वह ढांचा भी है जिसके तहत यह प्रतिस्पर्धा हो रही है।
यह बात सामान्य-सी लग सकती है, लेकिन स्कूलों की प्रतिस्पर्धा और बच्चों के माता-पिता की पसंद को लेकर अधिकांश बहस तो यह मानकर ही की जाती है कि यह सामान्य-सी स्थायी वास्तविकताएं हैं, जिनका आंकलन किसी परिस्थिति विशेष या वास्तविक प्रभाव को देखे बगैर महज सामाजिक नफे-नुकसान के तौर पर किया जा सकता है। अधिकांश चर्चा इतनी हवाई होती है कि यह विभिन्न परिस्थितियों में जो होता है और जो हो सकता है उस पर कुछ भी प्रकाश नहीं डाल पाती। इस तरह एक ओर तो हमारे पास 'व्यावसायिक अनुशासन (मार्केट डिसिप्लिन)' को लेकर उत्साहित लोग होते हैं जो इस बात पर अड़े होते हैं कि प्रतिस्पर्धा (और इसका स्वाभाविक परिणाम यानी माता-पिता की पसंद) तो आखिरकार श्रेष्ठतम संभव स्तर का ही कारण बनेगी और इससे (जिसमें कुछ समय लगेगा) सभी स्कूल इस सिद्धांत के चलते बेहतर होंगे कि 'ज्वार सभी नावों को ऊंचा उठा देता है।' इस दृष्टिकोण से तो सरकारी नियम केवल खुली प्रतिस्पर्धा में बाधा ही बन सकते हैं। ये नियम ऐसा अपनी स्कूलों को संभावित 'उपभोक्ताओं' के लिए अधिक प्रभावी और अधिक आकर्षक बनाने की कोशिश करने वालों को ऐसे व्यवहार के लिए बाध्य करेंगे जिससे वे अन्य स्कूलों की ही तरह बने रहें, वे स्कूल जो कम उद्यमशील हैं। हो सकता है कि यह कम विनियमित बाजार (अंडर रेगुलेटेड) का प्रभाव हो, खासतौर पर अमेरिका में, कि पिछले कुछ सालों में यह सोच बन गई है कि अनियमित (अनरेगुलेटेड) प्रतिस्पर्धा हमेशा सकारात्मक परिणाम ही देगी। दुष्प्रयोग और अतिरेक के खिलाफ संरक्षण और तर्कहीन उत्साह के प्रतिकार के साथ जिसे लेकर एलन ग्रीनस्पैन की चेतावनी काफी प्रसिद्ध है, शिक्षा को एक ऐसे तार्किक विनियमन और प्रोत्साहक ढांचे की ठीक किसी आर्थिक संस्थान की तरह जरूरत होती है।
लेकिन हमें विपरीत सिरे तक पहुंचने के खतरे से भी बचना होगा। जिसके मुताबिक स्कूली शिक्षा एक ऐसी मानकीकृत सेवा है जो एक संभावित उत्पाद पाने के लिए एक नियमित ढांचे में बैठाई जा सकती है। अमेरिकी विचारक और अग्रणी मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने तकरीब 100 साल पहले चेतावनी दी थी कि शिक्षा एक कला है विज्ञान नहीं। निजी क्षेत्र द्वारा संचालित स्कूलों में बच्चे को प्रवेश दिलाने और इस तरह से निजी स्कूलों में प्रतिस्पर्धा को तेज करने में लाभ और हानि दोनों ही हैं। निश्चित ही पर्याप्त आय वाले माता-पिता हमेशा ही अपनी पसंद के स्कूलों को चुन सकेंगे, यह भी कि कहां रहना है और टयूशन का विकल्प भी। अमेरिका जैसे देशों में यह असमानता का एक बड़ा कारण है जो माता-पिता के लिए इस मामले में 'समान अवसर' उपलब्ध नहीं कराता।
प्रतिस्पर्धा और पसंद के विकल्प के संभावित फायदे
स्कूल के चयन के जरिये अपने बच्चे की शिक्षा के निर्धारण, स्वतंत्रता का एक ऐसा आधारभूत मामला है जिसे विभिन्न मानवाधिकार नियमों के तहत सुनिश्चित किया गया है।
सरकारी स्कूल की पसंद गरीब माता-पिता के लिए न्याय का सवाल है क्योंकि ज्यादा संपन्न माता-पिता के पास तो आवास और टयूशन के विकल्प की हैसियत के कारण पहले से ही पसंद का विकल्प मौजूद है।
एक सुस्पष्ट शिक्षा योजना बनाकर इसे संभावित माता-पिता को समझा पाने की आजादी ही किसी स्कूल को ज्यादा प्रभावी बनाती है।
गुणवत्ता में गिरावट के बगैर स्कूली शिक्षा में विविधता वाकई अच्छी है, खासतौर पर विद्यार्थियों की क्षमता, जरूरतों और उनकी विभिन्न तौर-तरीकों को लेकर बेहतर प्रतिक्रिया देखते हुए।
माता-पिता के फैसले स्कूल के स्तर के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हैं, जो सामान्यतया किसी अन्य बाहरी आंकलन से मुश्किल हैं, जैसे कि स्कूल की संस्कृति जो विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का निर्माण करती है और उन्हें एक-दूसरे का सम्मान सिखाती है।
ऐसे स्कूल जो शैक्षणिक परिणामों और स्कूल की संस्कृति के मामले में माता-पिता की चिंताओं को नहीं सुलझा सकेंगे प्रतिस्पर्धा से बाहर हो जाएंगे। अगर स्कूलों को माता-पिता की गरज के लिहाज से ही विकसित होने दिया जाए तो।
प्रतिस्पर्धा और पसंद के विकल्प के संभावित नुक्सान
नियमित तौर पर व्यक्त किए जाने वाले ऐसे ढेरों तर्क हैं जो माता-पिता की पसंद के आधार पर स्कूलों में प्रतिस्पर्धा के खिलाफ हैं। इसमें हमेशा उल्लेखित लेकिन विरोध को हवा देने वाला टीचर यूनियनों और उनके साथियों को शामिल नहीं किया गया है। यह विकल्प पूर्वस्थापित व्यवस्था और शिक्षा तंत्र में रोजगार पाने वालों के लिए तो खतरा है ही। जहां तक प्रेरणा की बात है तो यह बिलकुल निजी होती है, लेकिन माता-पिता को ही पसंद का विकल्प देने के समर्थकों (इस लेखक की तरह) को ईमानदारी के साथ मानना होगा कि इसके नकारात्मक परिणाम भी हो सकते हैं, खासतौर पर आजकल की परिस्थितियों में। वैसे इन सभी परिणामों को नीति निर्धारण में समझदारी और प्रशासनिक ढांचे से रोका जा सकता है:
सबसे ज्यादा विवेकपूर्ण माता-पिता अपने बच्चों को सर्वश्रेष्ठ स्कूल में ही भर्ती कराएंगे। प्रतिस्पर्धा एक और अन्याय का कारण बनेगी क्योंकि गरीब इसमें बराबरी की भागीदारी नहीं कर सकेंगे। (ऐसा होना तय है- जैसे कि आज जब यह विकल्प को प्रोत्साहन को लेकर कोई नीति नहीं है- अगर माता-पिता को सूचना देने वाला, पारदर्शी, न्यायपूर्ण तंत्र नहीं होगा, ठीक वैसा जैसा कि मेसाच्यूसेट्स में दर्जन भर स्कूलों ने विकसित किया था, जिसमें स्कूल की उपस्थिति का जिम्मा माता-पिता को ही सौंप दिया गया था)।
स्कूलों का ध्यान अपने मुख्य काम से हट कर इसी बात पर लगा रहेगा कि वह किस तरह से अधिक फैशनेबल और कृत्रिम तौर पर अधिक आकर्षक दिखाई दे सकता है। (बाहरी आंकलन, कुछ तय परिणामों को लेकर जवाबदेही और माता-पिता के लिए सही जानकारी का तंत्र नहीं होने पर ऐसा संभव है)।
माता-पिता के विकल्प के जरिये और अधिक नस्लभेद और सामाजिक वर्गभेद को बढ़ावा मिलेगा (यह भी संभव है। अमेरिका में सरकारी शिक्षा के वर्तमान अलगाव का यही कारण है। स्कूलों से नस्लीय भेदभाव मिटाने के लिए अधिकारी के तौर पर लेखक का अनुभव बताता है कि इसे बेहतर प्रोत्साहन, तय लक्ष्य के कार्यक्रम के विकास और माता-पिता को बेहतर सूचना से संभव किया जा सकता है।)
स्कूलों में पसंद बनने के आधार पर प्रतिस्पर्धा स्कूलों के स्तर में और अधिक गिरावट का कारण बन सकती है। खासतौर पर ऐसे स्कूलों में जो पहले ही बहुत कम कामयाब हैं और उन बच्चों की शिक्षा के लिए भी खराब है जिनके माता-पिता अपने विकल्प के स्कूल को नहीं पाते। (यह भी सच है। जब तक अधिकारियों द्वारा माता-पिता के किसी स्कूल विशेष के प्रेम का कारण जानकर दूसरी स्कूलों के स्तर में सुधार के प्रयास एक जरूरत मानकर हस्तक्षेप के साथ नहीं किए जाते, वे स्कूल जिनमें विद्यार्थी विकल्प का तंत्र नहीं होने से पहले जा सकते थे )।
स्कूलों के लिए माता-पिता को मिला पसंद का विकल्प समाज को छोटे-छोटे हिस्सों में बांट देगा और यह ऐसे समूहों के बीच विवाद का कारण बनेगा जो आम सोच वाली सरकारी स्कूलों की बजाय अपने माता-पिता द्वारा चुनी गई खतरनाक और जो बांटने की विचारधारा वाले ऐसे स्कूलों में भेजे गए हैं, जो उन विद्यार्थियों की पसंद नहीं थीं। (यह शायद सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली आपत्ति है जिसका अनुभवों पर आधारित कोई प्रमाण नहीं है। दशकों तक प्रवासियों की आवाजाही देखने वाले अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया या अन्य देशों में वैकल्पिक स्कूलों, अधिकांशतया धार्मिक, के सामाजिक विभाजन या एकता कायम करने में नाकामी का कोई उदाहरण नहीं है। दूसरी ओर, इसके ठीक विपरीत उत्तरी आयरलैंड का उदाहरण यह बताता है कि सांप्रदायिकता पर आधारित स्कूली तंत्र समाज में झगड़े की कम से कम एक वजह तो दूर कर ही देता है)। अब यह सवाल बच गया है कि प्रतिस्पर्धा और पसंद के विकल्प को बिना किसी देख-रेख के काम करने देना चाहिए या क्या वे ऐसी नीतियों पर बेहतर तरीके से सुसंगठित किए जा सकते हैं कि जिससे वे सभी बच्चों के लिए समान रूप से फायदेमंद हों। दूसरा उदाहरण अमेरिका जैसे देशों में हकीकत बन चुका है, जहां जनता के ताजा विकल्पों का क्रमहीन आधार, धन दे सकने और न दे सकने वाले माता-पिता वाले अन्यायपूर्ण शिक्षा तंत्र पर हावी हो गया है।
शिक्षा में पसंद और प्रतिस्पर्धा के कुछ विचारों से परिपूर्ण विरोधक मानते हैं कि सैध्दांतिक तौर पर यह संभव है कि ऐसे माहौल में सुधार कर संभावित कमजोरियों को दूर कर लिया जाए, लेकिन उनके मन में इस बात को लेकर शक है कि क्या वास्तव में ऐसा हो सकेगा। उनकी आशंकाओं को हल्के में लेकर खारिज नहीं कर देना चाहिए, अमेरिका के नीति-निर्माताओं द्वारा शहरों और उपनगरों में स्कूली शिक्षा की विषमताओं को दूर करने के लिए नीति निर्माण में लगातार कोताही तो यही बताती है कि वे ऐसा तंत्र नहीं बनाना चाहते जिसमें गरीब बच्चों को भी बेहतर शिक्षा का विकल्प मिल सके। पसंद और प्रतिस्पर्धा के समर्थकों को ऐसे में 'स्वतंत्रता' और 'बाजार' से ऊपर उठकर ऐसी पुख्ता नीतियों और प्रशासनिक व्यवस्था की बात करनी चाहिए जो आलोचकों को सही तरीके से जवाब दे सकेगी।*
अमेरिका में विवाद इस बिंदु पर आकर थम जाता है कि क्या ऐसी अपेक्षा करना वास्तविकता भरा होना है, एक बार विकल्प का जिन्न बोतल से बाहर आ गया तो इसके सकारात्मक प्रभावों का राजनीतिक और वास्तविक लाभ लेते वक्त इसके नकारात्मक प्रभावों को रोक पाना मुश्किल होगा। यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि अमेरिका के नीति-निर्माता और विद्वानों में से बहुत कम उन ठोस व्यवस्थाओं को समझना चाहते हैं, जिनके कारण बेल्जियम और नीदरलैंड्स जैसे देशों में पीढ़ियों से माता-पिता के पास बच्चे की स्कूल का फैसला करने का हक है।**
यह कहने का मतलब नहीं है कि इन देशों को इस प्रणाली को लागू करने में कोई दिक्कतें पेश नहीं आईं। आज भी वहां यूरोपियन यूनियन के बाहर के परिवारों के बच्चों की बढ़ती तादाद के शैक्षणिक परिणामों का मसला कई शहरी स्कूलों के लिए समस्या बना हुआ है, आजादी और न्याय देने के सवाल के संदर्भ में। लेकिन वह किसी और कान्फ्रेंस का विषय हो सकता है!
चार्ल्स एल. ग्लेन, बोस्टन यूनिवर्सिटी द्वारा 'शिक्षा में भ्रष्टाचार, शिक्षा में प्रतिस्पर्धा और शिक्षा के व्यावसायीकरण की सीमा' विषय पर शिक्षा कानून और नीति (एजुकेशन लॉ ऐंड पॉलिसी) के यूरोपीय संघ की सालाना कान्फ्रेंस, एंटवर्प, नवंबर 2009 में प्रस्तुत पेपर से अनुदित.