शायरी और शराब
शराब लफ्ज़ और शय दोनों से आप ज़ाती तौर पर वाक़िफ़ होंगे ऐसा मेरा मानना है।अगर नहीं भी हैं तो इसमें मैं क्या कर सकता हूं? ये आपकी नालायक़ी है।हां!ये लेख आपकी ख़िदमत में पेश है जिससे आप इस बारे में ज़रूरी मालूमात हासिल कर सकते हैं।उर्दू शायरी के इतिहास में हुस्नो-इश्क की जितनी रोचक व विस्तृत चर्चा है उतनी ही जामो-मीना साकी और सुराही प्याला-हमनिवाला की भी।मय की खु़मारी में डूबे हुए हज़ारों शेर यहां इफ़रात में मिलते हैं।गली गली में गिरे पड़े आशिक़ों की तरह।
लेकिन एक रोचक तथ्य ये है कि जैसे फिल्म अभिनेता कैश्टो मुखर्जी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जीवन में कभी शराब नहीं पी मगर पर्दे पर शराबी का बेमिसाल जीवंत अभिनय किया। ठीक इसी तरह ऐसे भी अभिनेता हुए जो पीकर ही पर्दे पर अभिनय करते रहे किन्तु उनके बारे में किसी को पता ही नहीं चला।इसी तरह उर्दू शायरी में ऐसे शेर कहने वाले शायरों में से कुछ ने शराब को छुआ भी नहीं। उर्दू शायरी में रियाज़ खैराबादी उन्हीं में से एक हैं।।उर्दू शायरी में इन्होंने शराब और उसके नशे पर ढेरों शेर कहे और राजदरबारों से लेकर मुशायरों तक कुंटलों दाद लूटी।नाम और नामा कमाया सो अलग।इनके कुछ शेर पेशे खिदमत हैं-मगर कहते है कि जीवन में कभी एक घूंट नहीं ली।
धोना है दाग़ जाम ए अहराम सुबह-सुबह
गुज़री से शेख पानी की छागल उठा तो ला
जाम ए अहराम अर्थत नमाज के समय के वस्त्र पहन कर भी शायर साहब शराब पीने बैठ गये और ज़ल्दबाज़ी में कपड़ों पर गिरा ली।मज़ा ये है कि उस पर भी शेख़ साहब से साफ़ करने के लिए पानी मंगा रहे हैं।इससे शायरी में शेख़ साहब की वास्तविक हैसियत का भान होता है।इसके विपरीत शायरों की सामान्य अभिरुचि का ज्ञान भी।
ज़्यादातर लोगों को भांग छानने के बारे में ही पता है।लेकिन उच्च कुलीन शायर रंगीन साहब के मुताबिक यह शै भी छनी हुई होती है।बस किसी तरह मिल जाये-
ले उड़ी घूंघट के अंदर से निगाहे-मस्त होश
आज साक़ी ने पिलाई है हमें छानी हुई -रंगीन
और अगर यह किसी हूर के दामन में छनी हुई हो तो फिर कहना ही क्या है ?पीते ही शायर जनाब रियाज़ साहब की ओर से फरिश्ता होने की फुलगारंटी है:
पाक-ओ-साफ़ इतनी है जिसने पी फरिश्ता हो गया
ज़ाहिदो ये हूर के दामन में है छानी हुई
अब ज़ाहिद तो हमारे दो मित्रों का भी नाम है।उनके लिए कहा या किसी और ज़ाहिद के लिए मगर ये लोग शायर साहब की बात मानते क्यों नहीं?यहां तक कि उनकी अपनी बिरादरी के लोग भी नहीं मानते।साहित्य लोगों को प्रेरणा देता है फिर आमजन प्रेरणा क्यों नहीं लेते ?हो सकता है कुछ और बात हो।कहीं उसका असल कारण यह तो नहीं-
ये मेरी तौबा नतीज़ा है बुखले साक़ी का
ज़रा सी पीके कोई मुंह खराब क्या करता आरजू लखनवी
इसमें कोई शक़ नहीं कि पीने वाले दिल खोलकर पीते हैं।शायरी में भी और हक़ीक़त में भी।लेकिन ऐसा नहीं है कि साक़ी की कंजूसी को देखते हुए कोई पियक्कड़ शराब को मुंह भी न लगाये ।एक तो साक़ी कभी पिलाने में कंजूसी नहीं करता और पीने वाले भी ,फिर यह लिहाज समझ से परे है।अब शायर साहब तो रहे नहीं क्या करें
ग़ज़ल के पुराने खेले खाये उस्ताद नौमश्क शायरों को बताते-समझाते हैं कि बिना शराब के शायरी नहीं आती।शायद इसीलिए ज़्यादातर शायर शायरी की शुरुआत में ही शराब पीना शुरू कर देते हैं ताकि बड़े शायर बन सकंे। अब उर्दू शायरी में गालिब से बड़ा शायर कौन उनकी शराबखोरी की आदत भी कौन नहीं जानता ?सुबह हो या दोपहर चलेगी और शाम को तो होगी ही।इसलिए ग़ालिब से बड़ा या बराबर का शायर बनने के लिए सभी गालिब के दिखाए रास्ते पर चलना शुरू कर देते हैं।हमारे प्रिय भाई साहब भी कभी-कभी सुबह उठते ही दातुन कुल्ला के बाद शुरू हो जाते हंैं जिससे दिन भर अच्छी शायरी हो सके।
विद्वान कहते भी हैं कि अच्छी शायरी पुराने असातिजा (विद्वान साहित्यकार)को पढ़ने-समझने उनका अनुकरण करने से ही आती है।इसलिए रियाज़ साहब ने भी यह शेर सोचकर समझकर ही कहा होगा-
गुनाह कोई न करते शराब ही पीते
ये क्या किया कि गुनह तो किये शराब न पी
भारतीय लोक जीवन में चार्वाक दर्शन का अपना महत्व है एक अलग प्रभाव है।आज भी समाज में उनके अनुयायी एक ढूंढ़ो हजार मिलते हैं वाली स्थिति में हैं।रियाज साहब खुद भी इस शेर की बदौलत इसी मत के झंडाबरदार प्रतीत होते हैं -
जब तक मिलेगी क़र्ज़ पिये जाएंगे ज़रूर
हम जानते हैं मुफ्त का सौदा उधार का
उनका साफ़ कहना है कि आप जिसे उधार समझ रहे हैं वह हमारे लिए मुफ़्त जैसा है।करते रहिये आप लिखा-पढ़ी हमें क्या और उनके अनुभव अनुसार शराब इतनी अच्छी चीज है कि मुंह लगाने के बाद छोड़ते नहीं बनती।यहां तक कि शेख़ वगै़रह का भी यही हाल है -
लगाकर धोखे से मुंह शेख फिर न छोड़ सका
पुकारता ही रहा मैं अरे शराब-शराब’’
हर आदमी के अपने कुछ खास अनुभव होते हैं जिन्हें वह आने वाली नस्लों को सौंपना चाहता है।बालों को रंगने की आदत भी हमारी संस्कृति में नई बात नहीं है।लेकिन रंगने से पहले यदि दाढ़ी शराब से धो ली जाए तो उस पर चढ़ने वाले रंग का कहना ही क्या रियाज साहब की इस हिदायत का असर देखें -
पहले मय से भिगो ले रीश सफेद
देख ऐ शेख़ फिर खिज़ाब का रंग
अब धर्म के ठेकेदार तथा विध्नसंतोषी यह सवाल खड़ा करने के लिए स्वतंत्र हैं कि ऐसा उन्होंने शेख़ साहब के लिए ही क्यों कहा जनसाधारण से क्यों नहीं?अतः उनकी शिकायत दूर करते हुए उन्होंने खासो-आम से भी निवेदन किया है।देखें-
टपका दे बूंद भर कोई मुंह में रियाज़ के
दम मयक़दे में तोड़ रहा है पड़ा हुआ
ये शायद चाल चलन का फर्क है क्योंकि किसी के यहां तो मरते दम गंगाजल मुंह में डालने की परंपरा है लेकिन इनके यहां कुछ अलहदा बात है।
उक्ति है-जिसकी पूंछ हटाओ वही मादा निकलता है, जिसको शायर समझो वही शराबी निकलता है। हमारे साथ भी एक शायरे आज़म रहते हैं।अपनी मस्ती चढ़ी हेकड़ी में चूर।चलते फिरते कभी भी बोल देते यार अब तो हाथ पांव फूल रहे हैं और इतना कह कर निकल लेते हैं।समझ में नहीं आता।बाद में किसी ने समझाया कि उनका शराबखोरी का समय होने पर उनकी हालत खराब होने लगती है इसलिए वे अपनी व्यवस्था बनाने चले जाते हैं।उनकी अपनी शब्दावली है उनके अपने संकेत।मुहावरों का भी बड़ा गूढ़ प्रयोग करते हैं।एक दिन बोले आज तो कलेजा ठंडा हो गया।बाद में उनके साथी ने बताया कि आज किसी दूसरे की बोतल पर हाथ साफ़ कर आए हैं इसलिए इनका कलेजा ठंडा है।जिस दिन कोई राष्ट्रीय दिवस या गांधी जी को याद करने का दिन हो तो उनकी छाती पर सांप लोटने लगते हैं।आंखें लाल होते ही तिल को ताड़ बनाना उनकी आदत में शुमार है।इसलिए बहुत कम लोग उनसे जुड़ पाते हैं या उनके साथ बैठ पाते हैं।उनकी महानता की बराबरी करना हर किसी के बस की बात नहीं है।हां हमारे भाई साहब की बात कुछ अलग है।
वे हर बार तीसरे पैग के बाद अपने साथ बैठने वाले के सगे भाई बन जाते हैं और उस पर जान छिड़कने को तैयार हो जाते हैं।ये बात अलग है कि उस समय वहां इसकी ज़रूरत नहीं पड़ती। फिर भी वह कसम खा खाकर बार-बार बताते हैं कि वहां बैठे सभी लोगों की वह बहुत इज़्ज़त करते हैं उन्हें दिल से चाहते हैं।हां !उस दिन वहां न होने वालों की कोई गारंटी नहीं है।एक विशेष बात और कि ऐसे संवेदनशील समय में शायरी के प्रति उनका पे्रम उमड़ने घुमड़ने लगता है।उनको लेते-लेते कितनी ही चढ़़ जाए। सिर चढ़कर बोलने लगे ।हाथ-पांव फड़कने लगें मगर एक और पेग लेने के लालच में वे यही कहते हैं कि पता नहीं आज बोल ही नहीं रही।अब ये मुई क्या भूत प्रेतों की तरह तमाचा मारकर उनके कान में बोलेगी कि डोज़ पूरा हो गया अब मत लेना आप ही बताइये शराब और शायरी का शौक़ अपनी जगह मगर अपनी जिन्दगी और घर गृहस्थी तो देखिये जनाब।
नाम डाॅमहेन्द्र अग्रवाल
जन्म तिथि 21-04-1964
जन्म स्थान शिवपुरी
किताबें -
ग़ज़ल
1पेरोल पर कभी तो रिहा होगी आग 2शोख मंज़र ले गया (पुरस्कृत3ये तय नहीं था (पुरस्कृत 4बादलों को छूना है चांदनी से मिलना है 5कबीले की नई आवाज़ (उर्दू में 6ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक 7फ़नकारी सा कुछ तो है (पुरस्कृत 8 बबूलों के साये में
व्यंग्य
1व्यंग्य का ककहरा 2स्वरों की समाजवादी संवेदनायें (पुरस्कृत3न काहू से दोस्ती न काहू से वैर 4केसन असि करी 5 झंडा तेरा डंडा मेरा 6 ये मुंह और मसूर की दाल 7 अंकों की अठखेलियां 8 छोटे मुंह बड़ी बात 9 व्यंग्य के अखाड़े और बाज़
उपन्यास
1गिद्धराज (पुरस्कृत 2 कोरोना का दंश
कहानी
चल खुसरो घर आपने
आलोचना
1 ग़ज़ल और नई ग़ज़ल 2 नई ग़ज़ल-यात्रा और पड़ाव 3 ग़ज़ल का प्रारुप और नई ग़ज़ल 4 नई ग़ज़ल की प्रमुख प्रवृत्तियां 5 नई ग़ज़ल की समकालीनता 6 ग़जल़ के हवाले से
नवगीत
कंधों से उतर गईं बांहें
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