लाला चतुर्भुज अपने पिता की इकलौती संतान थे, अतः पिता की वणिक बुद्धि और व्यापार उन्हें पूरा पूरा मिला. पिता प्यार से उन्हें चतुर कहा करते थे, और वे यथानाम तथागुण चतुर ही थे. पिताजी के कड़वे तेल के धंधे को रिफाइंड आयल बिजनेस में बदलकर उन्होंने व्यापार कई गुना बढ़ा लिया था. जहाँ पिताजी के धोतीकुर्ते से तेल की महक आती थी, उनके नये फैशन के शर्टपैन्ट से डिओ और नये नये परफ्यूम की गंध आती थी. लाला चतुर्भुज का आफिस भी शानदार बन गया था, मोटे कालीन बिछे फर्श वाले आफिस में, घुसते ही सेक्रेटरी रोजी से सामना होता था, जो यूनियन से लेकर थोक ग्राहकों व एजेंटों तक, अधिकतर, खुद ही "डील" कर लेती थी. लाला के पास बहुत महत्वपूर्ण मामले ही पँहुचते थे. इस प्रकार, लाला चतुर्भुज को अपनी व्यापारिक बुद्धि का अन्य क्षेत्रों में उपयोग करने के लिये भरपूर समय मिल जाता था. और थोड़े समय में ही लाला ने शेयर मार्केट से भी बहुत माल बना लिया था.
लाला की पत्नी सुघड़, सुंदर व मृदुभाषी थी. हवेली के भीतर ललाईन का ही राज चलता था. दो तीन नौकर, महरियोँ और रसोईये महाराज के बल पर ललाईन ने घर की व्यवस्था चाक चौबंद कर रखी थी. हर परिचित लाला की किस्मत और प्रतिभा से रश्क करता. तीन चार सालों में हवेली में किलकारियाँ भी गूंजनें लगीं. ललाईन ने दो पुत्ररत्नों को जन्म दिया. बड़े को नाम महेन्द्र व छोटे का नाम सुरेन्द्र रखा गया. दोनों लड़कों ने अपनी माँ का रंग रूप पाया था. लाला जी शाम को घर लौटते तो लड़कों के संग मनबहलाव में अपनी सारी थकान भूल जाते.
पर समय का चक्र थमता नहीं. बालक जवानी की ओर, तो लाला वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हो रहे थे. व्यापार बहुत फैल चुका था. महेन्द्र सुरेन्द्र अब व्यापार में हाथ बँटाने और तेल के धंधे की बारीकियाँ सीखने लगे थे. धीमे धीमे लाला जी ने दोनों भाईयों को सारा व्यापार सौंप दिया व खुद घर से ही शेयर बाजार की उठती गिरती लहरों पर सवारी करने लगे. अब समय बदल रहा था, अधिकतर, लाला जी के अनुमान गड़बड़ा जाते और वे घाटा खा जाते. पर अगले दिन फायदा होता दिखता तो फिर से खरीद फरोख्त में जुट जाते. लालाजी की शेयरबाजारी की लत से दोनों लड़के कुढ़ते, दबे ढ़के माँ से शिकायत भी करते. पर, इसके अतिरिक्त क्या कर सकते थे. जिस व्यापार के बल पर वे करोड़ों में खेल रहे थे, वह लाला जी की ही देन थी.
इसी तरह दिन कट रहे थे कि एक दिन लाला जी की कार दुर्घटनाग्रस्त हो गयी. लाला जी, लाला जी का ड्राईवर सोहन व लाला जी का विश्वस्त नौकर माँगीलाल मारे गये. ललाईन विधवा हो गयी. महेन्द्र सुरेन्द्र के सिर से साया उठ गया. पास पड़ोस, परिचित, व्यापारी वर्ग सभी ओर लाला जी के निधन से शोक की लहर दौड़ गयी. लोगों को लाला जी के कई गुणों का पता श्रद्धांजलि सभा में ही चला. लाला जी भी अगर सुन रहे होते तो वे अपने कई गुणों से परिचित हो जाते.
दोनों लड़कों ने बारह दिन तक सारे क्रियाकर्म किये. ब्राह्मण भोज व दान दक्षिणा का बढ़िया इंतजाम था. लड़के राहत की साँस ले रहे थे, इन बारह दिनों में फिर भी उतना खर्च नहीं हुआ था, जितना लाला जी अक्सर एक दिन में ही शेयर बाजार में हार जाते थे. ललाईन की दुनिया पहले भी हवेली के भीतर तक ही सीमित थी. पूजापाठ को लेकर ललाईन पहले भी बहुत जागरुक थी. पहनने ओढ़ने में सुरुचिपूर्ण सादगी पहले से विद्यमान थी. अतः ललाईन में दान पुण्य के प्रति अतिरिक्त सजगता के सिवा कोई और परिवर्तन दिख नहीं रहा था.
लाला जी की मृत्यु जुलाई माह में हुई थी और सितंबर में श्राद्ध पक्ष शुरू हो गया. अष्टमी के दिन लाला जी का श्राद्ध होना था. सवेरे से ही रसोईघर में बड़े बनाने के लिये उड़द की दाल पीसी जा रही थी. खीर के लिये दूध उबल रहा था. भिण्डी में भरने का मसाला तैयार हो रहा था और पूरी बनाने के लिये आटा लगाया जा रहा था.
अपराह्न, ललाईन और महेन्द्र सुरेन्द्र, पँडितों के संग श्राद्ध करने बैठे. पण्डित लोग चावल के पिण्ड तैयार कर प्रेत मंजरी का मंत्रोच्चार कर रहे थे. नैवेद्य निकाले जा रहे थे. माना जाता है कि सपिण्ड पितरों को अर्पित नैवेद्य उन तक पँहुच जाता है और उनकी आत्मा तृप्त हो जाती है. महेन्द्र द्वारा अर्पित नैवेद्य माँगीलाल को मिल चुका था व सुरेन्द्र का अर्पण सोहन तक पँहुच चुका था. अपनी जीवित अवस्था में हवेली से इतनी श्रद्धा और तृप्ति उन्हें नहीं मिली थी जो आज नसीब हुई थी.
चतुर बाबू के नाम से पुकारें या लाला जी कहें, शाम तक चतुर्भुज की आत्मा भूख से बेहाल हो चुकी थी. ईसाई मतावलंबी रोजी के पारिवारिक संस्कारों में श्राद्ध की कोई परंपरा नहीं थी तो उसका पुत्र डेविड कैसे श्राद्ध करता? हाँ, रात को शराब के नशे में डेविड ने अपने अनाम पिता को जो दो चार गालियाँ दीं, वे जरूर लाला चतुर्भुज जी तक पँहुच गयीं होंगीं.