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"सत्साहित्य"

9 मार्च 2015

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अपनी किशोरावस्था में मैंने पढ़ा , साहित्य समाज का दर्पण है.. मैंने अपने अनुभवों से , साहित्य को बहुत गहरा पाया. जैसे उदर की जठराग्नि को ,भोजन चाहिए, वैसे ही मन मष्तिष्क को हर पल, विचार भोज चाहिए. ये पूर्णतः आप पर निर्भर करता है , विचार भोज में आप क्या परोस रहे हैं , अपने कोमल तंतुओं वाले दिमाग को. मटर -पनीर या तंदूरी चिकन , दही -छाछ या फ्राई मेढ़क, घी -रबड़ी या आमलेट, गंगाजल या मधुशाला की विषैली हाला.. हम इतने योग्य या काबिल नहीं, हलाहल पी कर ,कंठ में ही रोक लें, और नीलकंठ बनकर जगत में भ्रमण करने लगें. हम तो नीलकंठ के चरणो की धूलि भी नहीं बन सकते. हम रावण जैसा कैलाश उठाकर तांडव गायन भी नहीं कर सकते.. हम तो कलियुगी संसारी जीव,यत्र-तत्र भटक रहे हैं, हम जैसों के लिए सत्साहित्य-- संजीवनी है. --शुक्राचार्य द्वारा अन्वेषित मृत्युंजयी मंत्र है . --बुधकौशिक का रामरक्षास्त्रोत है. --तुलसी का बजरंग बाण है. -- सूर की सारावली है. -- मीरा के पद है. सत्साहित्य नेत्र हीन के -प्रज्ञा चक्षु हैं , मूक-वधिर का -अंतर्नाद है, पंगु की- वैशाखी है, किसान -मजदूर का- मनोविनोद है, शोषित-पीड़ित का -आर्तनाद है. अबला की -शक्ति है . शक्तिवान की- विलियम शेक्सपिअर वाली "दया" है. अधिक क्या - सत्साहित्य में रूचि हो जाना, सत्साहित्य को पढ़ने की प्रवृत्ति हो जाना भी , माँ शारदा की असीम अनुकम्पा है................................................................

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"सत्साहित्य"

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अपनी किशोरावस्था में मैंने पढ़ा , साहित्य समाज का दर्पण है.. मैंने अपने अनुभवों से , साहित्य को बहुत गहरा पाया. जैसे उदर की जठराग्नि को ,भोजन चाहिए, वैसे ही मन मष्तिष्क को हर पल, विचार भोज चाहिए. ये पूर्णतः आप पर निर्भर करता है , विचार भोज में आप क्या परोस रहे हैं , अपने कोमल तंतुओं वाले दिमाग को. म

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"नहीं चाहिए"

16 मार्च 2015
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नहीं चाहिए - उनसे हमदर्दी ,जिनके पथ्थर दिल हैं. नहीं चाहिए -उनसे ज्ञान ,जो अहंकार के महा सागर हैं. नहीं चाहिए -उनके शुभाशीष ,जिनके कर्म कभी शुभ नहीं थे. नहीं चाहिए -ऐसा सिक्का,जिसमे मेरे परिश्रम की खुसबू न हो. नहीं चाहिए -ऐसा साथी,जो चाटुकारिता में प्रवीण हो. नहीं चाहिए -ऐसा शाश्त्र ,जो देश और समाज

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जरा सुनो तो प्रेयसी

21 मार्च 2015
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तुम्हारे ऊपर बहुतों ने, बहुत कुछ लिखा , और मैंने भी उनमे से बहुतों को पढ़ा . पर मुझे भी लगता है ,मैं भी तुम्हे एक "काव्य हार" समर्पित कर दूँ. अपनी अभिव्यक्तियों के मोतियों से , आप को तरबतर कर दूँ. नहीं तो इस चेतना को एक खेद रहेगा, और शायद तुम्हे भी खेद होगा, कि मैंने तुम पर कुछ नहीं लिखा. न जाने कितन

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“सूखे पेड़ के शब्द”

16 अप्रैल 2015
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मैं सूखा दरख्त , खड़ा हूँ व्यस्त सड़क के किनारे, हाँ मैंने कई वर्ष,कई दसक , समाज की सेवा की, और प्रकृति की उपासना . पर अब मैं सूख चुका हूँ, पूरी तरह से निर्जीव हो चुका हूँ, असंख्य गहरी जड़ो से लेकर चोटी तक, मैं चेतनाशून्य हो चुका हूँ. शायद द्वापर के यमलार्जुन की तरह , मैं भी शाप मुक्त हो चुका हूँ , अतः

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"सम-विषम नहीं,सहकारिता चाहिए "

5 मार्च 2016
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पूरे विश्व के वातावरण  पर बढ़ते हुए प्रूदूषण के खतरे  के आगे, देश की राजधानी में जो इन दिनों नया प्रयोग चल रहा है ,उससे लाभ कम और नुक्सान अधिक है,हाँ ,मुख्यमंत्री का बच्चों एक नाम पत्र पूरी तरह से सच्चा और अच्छा था ,पर इस सम -विषम से प्रदूषण पर नियंत्रण होगा ,यह सोचना ,महज़ एक मानसिक दिवालियापन है ,इस

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