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“सूखे पेड़ के शब्द”

16 अप्रैल 2015

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मैं सूखा दरख्त , खड़ा हूँ व्यस्त सड़क के किनारे, हाँ मैंने कई वर्ष,कई दसक , समाज की सेवा की, और प्रकृति की उपासना . पर अब मैं सूख चुका हूँ, पूरी तरह से निर्जीव हो चुका हूँ, असंख्य गहरी जड़ो से लेकर चोटी तक, मैं चेतनाशून्य हो चुका हूँ. शायद द्वापर के यमलार्जुन की तरह , मैं भी शाप मुक्त हो चुका हूँ , अतः मेरी आत्मा भी उसे त्यागकर, अन्यत्र प्रस्थान कर चुकी है, किसी अन्य देह की खोज में. पर मेरा यह मृत शरीर, जो मज़बूत किले की भांति , एक महानगर की मुख्य सड़क के किनारे, खड़ा है, तुम्हे सन्देश देना चाहता है , मुझे जड़ से काटकर, मेरा अंतिम संस्कार करो, अपने घर के बेड,दरवाजे ,कुर्सी ,मेज़ बनवाओ, जिस पर तुम्हारे बच्चे एन्जॉय करें ,खेले -कूदें, और तुम भी ऑफिस में भी , और अपने घर पर भी मुझ पर आराम फ़रमाओ. जो बचा -खुचा कत्तल हो उसे किसी गरीब को दे दो, जिससे उसकी साल भर ,रोटी सिकेगी, सर्दियों में भयंकर शीत से मैं उसकी रक्षा करूंगा, उस गरीब की आत्मा से मेरे लिए कुछ दुआ निकलेगी, जो मेरा कई जन्मो तक साथ देगी. नहीं तो किसी दिन, तेज़ हवा के झोंके से, मेरी सूखी डालें टूटेगी, और भगवान न करे ,पर यदि भावीवश किसी वाहन पर गिर पड़ीं, तो घटना,दुर्घटना या बड़ी दुर्घटना भी हो सकती है, किसी के पूरे परिवार के मरने का कारण, मुझे घोषित कर दिया जाएगा, मेरी जीवन भर की परोपकार की साख पर, तुम सब थूंकोगे, समूचा सभ्य और असभ्य मानव समाज, मुझे ही नहीं वरन मेरे वंशजों को भी, पानी पी -पी कर कोसेगा, और मुझ सूखे हुए के साथ -साथ, मेरे हरे -भरे कुल को भी काट डालेगा.

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16 अप्रैल 2015

डा० सचिन शर्मा

डा० सचिन शर्मा

प्रेरणादायी रचना..,, आभार !

16 अप्रैल 2015

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"सत्साहित्य"

9 मार्च 2015
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अपनी किशोरावस्था में मैंने पढ़ा , साहित्य समाज का दर्पण है.. मैंने अपने अनुभवों से , साहित्य को बहुत गहरा पाया. जैसे उदर की जठराग्नि को ,भोजन चाहिए, वैसे ही मन मष्तिष्क को हर पल, विचार भोज चाहिए. ये पूर्णतः आप पर निर्भर करता है , विचार भोज में आप क्या परोस रहे हैं , अपने कोमल तंतुओं वाले दिमाग को. म

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"नहीं चाहिए"

16 मार्च 2015
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नहीं चाहिए - उनसे हमदर्दी ,जिनके पथ्थर दिल हैं. नहीं चाहिए -उनसे ज्ञान ,जो अहंकार के महा सागर हैं. नहीं चाहिए -उनके शुभाशीष ,जिनके कर्म कभी शुभ नहीं थे. नहीं चाहिए -ऐसा सिक्का,जिसमे मेरे परिश्रम की खुसबू न हो. नहीं चाहिए -ऐसा साथी,जो चाटुकारिता में प्रवीण हो. नहीं चाहिए -ऐसा शाश्त्र ,जो देश और समाज

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जरा सुनो तो प्रेयसी

21 मार्च 2015
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तुम्हारे ऊपर बहुतों ने, बहुत कुछ लिखा , और मैंने भी उनमे से बहुतों को पढ़ा . पर मुझे भी लगता है ,मैं भी तुम्हे एक "काव्य हार" समर्पित कर दूँ. अपनी अभिव्यक्तियों के मोतियों से , आप को तरबतर कर दूँ. नहीं तो इस चेतना को एक खेद रहेगा, और शायद तुम्हे भी खेद होगा, कि मैंने तुम पर कुछ नहीं लिखा. न जाने कितन

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“सूखे पेड़ के शब्द”

16 अप्रैल 2015
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मैं सूखा दरख्त , खड़ा हूँ व्यस्त सड़क के किनारे, हाँ मैंने कई वर्ष,कई दसक , समाज की सेवा की, और प्रकृति की उपासना . पर अब मैं सूख चुका हूँ, पूरी तरह से निर्जीव हो चुका हूँ, असंख्य गहरी जड़ो से लेकर चोटी तक, मैं चेतनाशून्य हो चुका हूँ. शायद द्वापर के यमलार्जुन की तरह , मैं भी शाप मुक्त हो चुका हूँ , अतः

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"सम-विषम नहीं,सहकारिता चाहिए "

5 मार्च 2016
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पूरे विश्व के वातावरण  पर बढ़ते हुए प्रूदूषण के खतरे  के आगे, देश की राजधानी में जो इन दिनों नया प्रयोग चल रहा है ,उससे लाभ कम और नुक्सान अधिक है,हाँ ,मुख्यमंत्री का बच्चों एक नाम पत्र पूरी तरह से सच्चा और अच्छा था ,पर इस सम -विषम से प्रदूषण पर नियंत्रण होगा ,यह सोचना ,महज़ एक मानसिक दिवालियापन है ,इस

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