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"सम-विषम नहीं,सहकारिता चाहिए "

5 मार्च 2016

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पूरे विश्व के वातावरण  पर बढ़ते हुए प्रूदूषण के खतरे  के आगे, देश की राजधानी में जो इन दिनों नया प्रयोग चल रहा है ,उससे लाभ कम और नुक्सान अधिक है,हाँ ,मुख्यमंत्री का बच्चों एक नाम पत्र पूरी तरह से सच्चा और अच्छा था ,पर इस सम -विषम से प्रदूषण पर नियंत्रण होगा ,यह सोचना ,महज़ एक मानसिक दिवालियापन है ,इस देश में कइयों के पास दो गाड़ी हैं -एक सम ,एक विषम  और बहुतों के पास अनेक गाड़ी हैं ,सम विषम तो क्या ,अंत में ० से ९ अंक तक कोई भी गाड़ी लेकर चलेंगे |

पर इन सबके के बीच ,जो रास्ता न्यायाधीशों द्वारा अपनाया गया ,वह अनुकरणीय एवं सर्वश्रेष्ठ है ,ऐसा भी कहा जा सकता है -यही करने के लिए तो सम -विषम लागू किया गया ,पर बहुत से लोग कानून का दुरपयोग करते हुए भी पकडे गए ,कुछ ने गाड़ी की नंबर प्लेट चेंज कर ली |

आज समय की मांग है -सहकारिता ,सबकी भागीदारी ,इसी में सबकी समझदारी है |

अतः समाज के लोग ,अपने आसपास अपने जैसे लोगों का समूह बनाये ,जिस गाड़ी में ८-१० अथवा ४-६ लोगों की बैठने की जगह हो ,उसमे अकेले बैठकर सड़कों पर मत घूमे |

मेरु कैब वालों का एक सॉफ्टवेयर है ,जिससे घर बैठा व्यक्ति भी गाड़ी की लोकेशन जान सकता है ,उसे वाहनो में लगाये | देश की नारी शक्ति भी इस कार्य को करने के लिए एक जुट हो सकती है | अपने सहकर्मियों को जो आप के आसपास रहते हों -उनके साथ एक ही गाड़ी में ऑफिस जाएँ ,यदि ऑफिस का टाइम १-२ घंटे कम ज्यादा है ,तो उसे harmonize  करें |

कुछ कम्पनीज को भी अपनी बस सेवा शुरू करनी चाहिए -जैसे की स्कूल बस,उसे भी वह hire कर सकते हैं ,क्यूंकि स्कूल और ऑफिस की टाइमिंग में कुछ अंतराल होता है | अर्थात यदि एक ऑफिस में १०० व्यक्ति, १०० (अपनी) गाड़ी से आते हैं ,तो बेहतर है -वह सब एक अथवा २ बस से आये -जाएँ |

अंत में सब प्रभु  इच्छा , नियति हमेशा  परिवर्तन के लिए आतुर है ,यदि हम नहीं बदले ,तो नियति हमें बदल देगी |   

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प्रियंका शर्मा

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बात तो सही कही है आपने , लेकिन लोग इसे समझते कहाँ हैं.

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"सत्साहित्य"

9 मार्च 2015
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अपनी किशोरावस्था में मैंने पढ़ा , साहित्य समाज का दर्पण है.. मैंने अपने अनुभवों से , साहित्य को बहुत गहरा पाया. जैसे उदर की जठराग्नि को ,भोजन चाहिए, वैसे ही मन मष्तिष्क को हर पल, विचार भोज चाहिए. ये पूर्णतः आप पर निर्भर करता है , विचार भोज में आप क्या परोस रहे हैं , अपने कोमल तंतुओं वाले दिमाग को. म

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"नहीं चाहिए"

16 मार्च 2015
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नहीं चाहिए - उनसे हमदर्दी ,जिनके पथ्थर दिल हैं. नहीं चाहिए -उनसे ज्ञान ,जो अहंकार के महा सागर हैं. नहीं चाहिए -उनके शुभाशीष ,जिनके कर्म कभी शुभ नहीं थे. नहीं चाहिए -ऐसा सिक्का,जिसमे मेरे परिश्रम की खुसबू न हो. नहीं चाहिए -ऐसा साथी,जो चाटुकारिता में प्रवीण हो. नहीं चाहिए -ऐसा शाश्त्र ,जो देश और समाज

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जरा सुनो तो प्रेयसी

21 मार्च 2015
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तुम्हारे ऊपर बहुतों ने, बहुत कुछ लिखा , और मैंने भी उनमे से बहुतों को पढ़ा . पर मुझे भी लगता है ,मैं भी तुम्हे एक "काव्य हार" समर्पित कर दूँ. अपनी अभिव्यक्तियों के मोतियों से , आप को तरबतर कर दूँ. नहीं तो इस चेतना को एक खेद रहेगा, और शायद तुम्हे भी खेद होगा, कि मैंने तुम पर कुछ नहीं लिखा. न जाने कितन

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“सूखे पेड़ के शब्द”

16 अप्रैल 2015
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मैं सूखा दरख्त , खड़ा हूँ व्यस्त सड़क के किनारे, हाँ मैंने कई वर्ष,कई दसक , समाज की सेवा की, और प्रकृति की उपासना . पर अब मैं सूख चुका हूँ, पूरी तरह से निर्जीव हो चुका हूँ, असंख्य गहरी जड़ो से लेकर चोटी तक, मैं चेतनाशून्य हो चुका हूँ. शायद द्वापर के यमलार्जुन की तरह , मैं भी शाप मुक्त हो चुका हूँ , अतः

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"सम-विषम नहीं,सहकारिता चाहिए "

5 मार्च 2016
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