मैं और आकाश मिलकर एक ही बात करते हैं...
उसके नीले पर मुझे भी उड़ने का संबल देते हैं..
वो देखता है, पर न कहता है बंधक हो तुम...
मन जानता है
बंधे हैं पैर मेरे बेड़ियों से
और पीटा जा रहा है चाबुक...
वो चाबुक जो मेरे दादा को मिला था विरासत में..
तब से आँख पर पट्टी बाँधी है हमने...
पड़ोस की छत पर कबूतर बैठते हैं.. उनकी गुटरगू हमको रास नहीं आती...
हम तो कोयल के गीत सुनते है.. प्रदर्शन और दर्शन के भेद में पर्दा डल गया है...
आज मौसम सर्द है थोडा.... हवाएँ तेज चल रही हैं..
एक कंकड़ गिरा गया है मेरी आँखों में..
पट्टी कमज़ोर कपडे की थी... ढंग से बुनी नहीं गयी थी शायद...
सहसा दर्द होने लगा... दर्द बहुत तेज था..
मेरे दादा का चाबुक मद्धम पड गया था.. पीड़ा आंख में जो थी...
वो कंकड़ मेरा ही कतरा हो गया था..
दर्द के मायने बदल रहे थे... आंसुओं से आँख साफ़ हो गयी थी...
सारे रंग उजले दिख रहे थे....
कबूतर आज भी गुटरगूं कर रहे थे.. पर संगीत सा सुर पैदा कर रहे थे...
पट्टी जीर्ण हो कर गिर गयी थी... मैं फिर उसी आसमां तले आ बैठा था...
आज हम दोस्त बनकर बातें कर रहे थे... आँखों में आँखें डालकर...
वो कंकड़ बराबर कर गया था हमको....