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स्वतंत्र मैं!

5 अप्रैल 2016

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मैं और आकाश मिलकर एक ही बात करते हैं...

उसके नीले पर मुझे भी उड़ने का संबल देते हैं..

वो देखता है, पर न कहता है बंधक हो तुम...

मन जानता है 

बंधे हैं पैर मेरे बेड़ियों से 

और पीटा जा रहा है चाबुक...

वो चाबुक जो मेरे दादा को मिला था विरासत में..

तब से आँख पर पट्टी बाँधी है हमने...

पड़ोस की छत पर कबूतर बैठते हैं.. उनकी गुटरगू हमको रास नहीं आती...

हम तो कोयल के गीत सुनते है.. प्रदर्शन और दर्शन के भेद में पर्दा डल गया है...

आज मौसम सर्द है थोडा.... हवाएँ तेज चल रही हैं..

एक कंकड़ गिरा गया है मेरी आँखों में.. 

पट्टी कमज़ोर कपडे की थी... ढंग से बुनी नहीं गयी थी शायद...

सहसा दर्द होने लगा... दर्द बहुत तेज था.. 

मेरे दादा का चाबुक मद्धम पड गया था.. पीड़ा आंख में जो थी...

वो कंकड़ मेरा ही कतरा हो गया था.. 

दर्द के मायने बदल रहे थे... आंसुओं से आँख साफ़ हो गयी थी...

सारे रंग उजले दिख रहे थे....

कबूतर आज भी गुटरगूं कर रहे थे.. पर संगीत सा सुर पैदा कर रहे थे...

पट्टी जीर्ण हो कर गिर गयी थी... मैं फिर उसी आसमां तले आ बैठा था...

आज हम दोस्त बनकर बातें कर रहे थे... आँखों में आँखें डालकर...

वो कंकड़ बराबर कर गया था हमको....  


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आधुनिक शैली की उत्तम कविता !

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“और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ”

5 अप्रैल 2016
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अब “वसुधैव कुटुम्बकम”केवल एक शब्द नहीं लगता....उसे लगे न लगे, मुझेतो वो अपना सा ही लगता........क्षुधा की आग में जलताये समाज छोटा सा लगता है......वैभव के पर्याय बनेराजमहलो से तो अपना चूल्हा ही अच्छा लगता है......इस चांदनी रात में उसपपीहे से दो बात करता हूँ......उसकी प्यासी तपन कोखुद में आत्मसात करता

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एच.आई.वी

5 अप्रैल 2016
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मेरा भी जब जन्म हुआ था , घर में ढोल बजा था माँ ने प्रसव किया जिस घर में, घर भी खूब सजा थाखुशियाँ घर-आँगन में दौडी, रत्ती भर अवसाद नहीं थाइकलौती संतान थी शायद, इसीलिए प्रतिवाद नहीं थाबचपन सुखमय रहा, न जाना कब बीत गया थावय-किशोर का अनुपम-अनुभव मेरे लिए नया थाअल्प-वयस्क हो गयी सगाई, पति का साथ मिला थाअ

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स्वतंत्र मैं!

5 अप्रैल 2016
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मैं और आकाश मिलकर एक ही बात करते हैं...उसके नीले पर मुझे भी उड़ने का संबल देते हैं..वो देखता है, पर न कहता है बंधक हो तुम...मन जानता है बंधे हैं पैर मेरे बेड़ियों से और पीटा जा रहा है चाबुक...वो चाबुक जो मेरे दादा को मिला था विरासत में..तब से आँख पर पट्टी बाँधी है हमने...पड़ोस की छत पर कबूतर बैठते हैं.

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काला

5 अप्रैल 2016
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तुम पूछोगी,उन घुँघराली लटो को घुमाकर,"और काले हो गए हो तुम"मैं कहूँगा"हाँ, समेटे हूँ कई स्याह शामें... नीले, बहुत नीले आसमां के नीचे बटोरे कुछ सुर्ख पत्थर और चल रहा हूँ कीचड में.. उस गाढे रंग में दिन और छोटा हो गया है, मैं बचा हूँ और बचा है वो कनेर का फूल... लिपटा हुआ है काँटों में, गिर रहा है मेरी

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अच्छा कवि

5 अप्रैल 2016
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अच्छे कवि की काव्य-कला एक सुखद सृष्टि होती है;सुखद तभी हो सकती जब शुभ कथा-वस्तु होती है,वर्तमान यदि शुभ होगा, इतिहास अशुभ कैसे होगा; काटेंगे वही फसल हम सब,जैसा हमने बोया होगादर्पण है साहित्य हमारे जीवन की गतिविधि का; नहीं पढ़ा साहित्य पुराना क्या होगा उस निधि का,लूटपाट और दुराचार ही चहुँ दिशि में छाय

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