तुम पूछोगी,
उन घुँघराली लटो को घुमाकर,
"और काले हो गए हो तुम"
मैं कहूँगा
"हाँ, समेटे हूँ कई स्याह शामें... नीले, बहुत नीले आसमां के नीचे बटोरे कुछ सुर्ख पत्थर और चल रहा हूँ कीचड में.. उस गाढे रंग में दिन और छोटा हो गया है, मैं बचा हूँ और बचा है वो कनेर का फूल... लिपटा हुआ है काँटों में, गिर रहा है मेरी तरह, गहरा और गहरा.... दिन और छोटा हो रहा है.. ढल रहे हैं कुछ ख्वाब.. दब रहे हैं मेरे बटोरे सुर्ख पत्थरों में... हाँ, काला हो रहा हूँ मैं!"