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“और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ”

5 अप्रैल 2016

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featured imageअब “वसुधैव कुटुम्बकम” केवल एक शब्द नहीं लगता.... उसे लगे न लगे, मुझे तो वो अपना सा ही लगता........ क्षुधा की आग में जलता ये समाज छोटा सा लगता है...... वैभव के पर्याय बने राजमहलो से तो अपना चूल्हा ही अच्छा लगता है...... इस चांदनी रात में उस पपीहे से दो बात करता हूँ...... उसकी प्यासी तपन को खुद में आत्मसात करता हूँ..... और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ.... और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ....   उस सिक्के के दो पहलुओं के परे चंद चश्मे आज भी आते है.... जो दिन भर खून बहाते, वेश्या के कोठों पे वो हिंदू मुस्लिम साथ आते है.... तब मुझे बांटने की ये इंसानी फिदरत बहुत ओछी लगती है.... उस टूटे छप्पर में वो मासूम आँखें बड़ी सच्ची लगती है..... ये देख मैं मन ही मन कुछ अंतर्द्वंद बोता हूँ, कुछ कहता हूँ, कुछ सुनता हूँ.... और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ.... और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ....   मेरा मन भी उन सांवली शामों से कुछ बात करता है.. गुजरी हुई रातों और उस भूरी चादर के पार देखता है... उस बंजर जमीं पर घास के कपोलों की आस करता हूँ.... और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ.... और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ....   ढलते हुये सूरज की उन परछाईंओं में, नयी सुबह का आगाज़ ढूँढता हूँ ..... नींड पर लौटते परिंदों में, प्रभात की किरणों सा कलरव देखता हूँ..... तब मुझे खुद का अहं कितना मिथ्या लगता है.... इन छोटी खुशियों में ही सारा जग मानो सिमटा लगता है... मन ही मन कुछ राग गुनगुनाता हूँ.... और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ.... और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ....     स्वार्थ की इन काली आँधियों में बिन पालों की इक नाव दिखती है... मेरुप्रभा सी रोशन उस पर, इन प्रतिबिम्बो की इक छाप दिखती है.... सतरंगी सी उसकी बातों में मुझे न छलावा लगता है..... वो कहे,ना कहे, ये छितिज सा भुलावा लगता है... चंद कदम मैं भी उसके साथ चलता हूँ, गिरता हूँ फिर उठता हूँ, और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ.... और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ....

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चंद्रेश विमला त्रिपाठी

चंद्रेश विमला त्रिपाठी

हिमांशु जी आपके शब्दों का भावों के अनुरूप चयन दर्शनीय है

6 अप्रैल 2016

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“और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ”

5 अप्रैल 2016
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अब “वसुधैव कुटुम्बकम”केवल एक शब्द नहीं लगता....उसे लगे न लगे, मुझेतो वो अपना सा ही लगता........क्षुधा की आग में जलताये समाज छोटा सा लगता है......वैभव के पर्याय बनेराजमहलो से तो अपना चूल्हा ही अच्छा लगता है......इस चांदनी रात में उसपपीहे से दो बात करता हूँ......उसकी प्यासी तपन कोखुद में आत्मसात करता

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एच.आई.वी

5 अप्रैल 2016
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मेरा भी जब जन्म हुआ था , घर में ढोल बजा था माँ ने प्रसव किया जिस घर में, घर भी खूब सजा थाखुशियाँ घर-आँगन में दौडी, रत्ती भर अवसाद नहीं थाइकलौती संतान थी शायद, इसीलिए प्रतिवाद नहीं थाबचपन सुखमय रहा, न जाना कब बीत गया थावय-किशोर का अनुपम-अनुभव मेरे लिए नया थाअल्प-वयस्क हो गयी सगाई, पति का साथ मिला थाअ

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स्वतंत्र मैं!

5 अप्रैल 2016
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मैं और आकाश मिलकर एक ही बात करते हैं...उसके नीले पर मुझे भी उड़ने का संबल देते हैं..वो देखता है, पर न कहता है बंधक हो तुम...मन जानता है बंधे हैं पैर मेरे बेड़ियों से और पीटा जा रहा है चाबुक...वो चाबुक जो मेरे दादा को मिला था विरासत में..तब से आँख पर पट्टी बाँधी है हमने...पड़ोस की छत पर कबूतर बैठते हैं.

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काला

5 अप्रैल 2016
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तुम पूछोगी,उन घुँघराली लटो को घुमाकर,"और काले हो गए हो तुम"मैं कहूँगा"हाँ, समेटे हूँ कई स्याह शामें... नीले, बहुत नीले आसमां के नीचे बटोरे कुछ सुर्ख पत्थर और चल रहा हूँ कीचड में.. उस गाढे रंग में दिन और छोटा हो गया है, मैं बचा हूँ और बचा है वो कनेर का फूल... लिपटा हुआ है काँटों में, गिर रहा है मेरी

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अच्छा कवि

5 अप्रैल 2016
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अच्छे कवि की काव्य-कला एक सुखद सृष्टि होती है;सुखद तभी हो सकती जब शुभ कथा-वस्तु होती है,वर्तमान यदि शुभ होगा, इतिहास अशुभ कैसे होगा; काटेंगे वही फसल हम सब,जैसा हमने बोया होगादर्पण है साहित्य हमारे जीवन की गतिविधि का; नहीं पढ़ा साहित्य पुराना क्या होगा उस निधि का,लूटपाट और दुराचार ही चहुँ दिशि में छाय

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