तुम कितनी शांत हो गयी हो अब ,
बीरान सी भी .
वो बावली बौराई सरफिरी
लड़की कहाँ छुपी है रे ?
जानती हो , कितनी गहरी अँधेरी खाइयों में
धकेल दी जाती सी महसूसती हूँ खुद को
जब तुम्हारे उस रूप को करती हूँ याद .
क्यों बिगड़ती हो यूँ ?
जानती हो न ,
तुम्हारा बिगड़ना और बौराना
बिखेर देता है कितनी साँसों को .
कितनी रुमानी रातों को .
कितनी बेमानी बातों को
कितनी सौंधी सौगातों को .
यूँ ठहरी हुई तुम
विचारों की तरंगें छेड़ जाती हो मन में .
भय की .
प्रलय की
भूत की स्मृतियों से रंजित भविष्य की आशंकाओं की .
या फिर एक अमूर्त अनिश्चितता की .
जानो कि बिगड़ती तुम जब हो
खुद भी खाली होती हो बूँद बूँद
रिसती हो जब फ़ैल जाती हो किसी महामारी की तरह
अपने तटों को तोड़
आशियाने उजाड़ती तुम तुम सी नही लगती .
वापस तुम्हारे रौद्र से इस स्थिर अवतार की
ख्वाहिशें लिए
लौट जाती हैं कुछ कश्तियाँ
कुछ राहगीर
और कुछ सपने .
( आंवलीघाट , नर्मदा नदी के तट पर भरी हुई पर शांत डबडबाती नदी और बारिशों के बीच )