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तर्क-वितर्क और सत्य की खोज .

16 अगस्त 2016

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किसी भी घटना के कई पक्ष और पहलू होते हैं .हर घटना को अलग अलग चश्मों से गहरी या सतही पड़ताल के ज़रिये अलग अलग निष्कर्षों पर पहुंचा जा सकता है . निष्कर्ष वही होते हैं जो रायों में परिवर्तित हो जाते हैं और रायें पीढ़ी दर पीढ़ी , समाज की हर ईकाई के माध्यम से संस्थागत हो जाती हैं . और इस तरह वे अमूमन संस्कृति या साझा विचारधारा की आधारशिला रखती हैं . और आने वाले वक़्त में एक आम पार्श्वमंच के तौर पर सारे घटनाक्रमों और वास्तविकताओं की साक्षी बन जाया करती हैं . समाज के विकास की यह एक साधारण प्रक्रिया है . समाज परिभाषित होता है , परिभाषाएं बदलती हैं और बदलती रहेंगी और बदलनी चाहिए भी .


 

पर प्रश्न यह है कि क्या हम इन कदाचित विचलित कर देने वाले परिवर्तनों से मानसिक और बौद्धिक रूप से आगे बढ़ने का इरादा रखते भी हैं या हम सिर्फ कट्टर किताबों के पन्नों से और पुरातनवादी कहावतों के शाब्दिक अर्थों पर अटके रहकर उनके वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सन्दर्भों पर सुनने ,मंथन करने से कतराते हैं और ज्ञान की दुन्दुभी बजाते हैं !! 


आज चर्चा , पड़ताल और तार्किक विचारविमर्श मीडिया केन्द्रित हो चुका है . मीडिया जो शिक्षण के मूल उद्देश्य – ज्ञान वर्धन , मस्तिष्क के लिए पोषण और भविष्योन्मुख क्रियान्वन .- का एक अहम जरिया होता है . पर क्या सिर्फ मीडिया पर यह ज़िम्मेदारी छोड़ देना आज के उपभोक्तावादी और पूंजीवादी मीडिया के ज़माने में अव्यवहारिक  नही हैं ? तो क्या हम जो परोसा जा रहा है उसको वैसा ही ले लें या उसको विश्वसनीयता के विभिन्न पैमानों पर ,अलग अलग स्त्रोतों से , या ज़रुरत पड़े और संभव हो तो स्वयं अनुभव कर  इस चौथे स्तम्भ के सच ्चे लाभार्थी नही बन जाएँ  ? हाँ ,यह सब के बस की बात नही , इसलिए मीडिया को लताड़ मिलती हैं क्यूंकि वह एक ज़िम्मेदार संस्था है . नही है तो होना चाहिए .पर आम लोग इतनी मशक्कत या ज़रुरत नही देख पाएंगे कि दिन रात टेलीविज़न पर और विकृत अखबारों पर सनसनीखेज ख़बरों के धरातल पर क्या मुद्दा है और उससे हमारा क्या वास्ता है !




हम देखते हैं कि जे एन यू में चल रहे विवाद ने देश को दो धडों में बाँट दिया है . ध्रुवीकरण के नतीजतन सुशिक्षित व्यक्तियों ने  भी विषय को विषाक्त बना दिया है . चर्चा कहीं सतह पर व्यक्ति केन्द्रित है या फिर राष्ट्रवाद की मनगढ़ंत और विचित्र राजनीति कृत परिभाषाओं पर .पर क्या हम इस अवसर पर खुद को एक मौका नही देना चाहते ,राष्ट्र के तौर पर ही सही .वही राष्ट्र जिसके राष्ट्रवाद की निशानी हमें या तो जन गण मन पर खड़े होने का मूल्य तो देती है पर किसी कारणवश ऐसा नही करने पर हिंसा करने को उकसा जाती है .वही राष्ट्रवाद जो काले कपड़ों में क़ानून के पैरवीकारों को भारत माता की जय के साथ अपशब्दों और वीभत्स व्यवहार करने को प्रेरित करता है  . या वह जो सच को आइना दिखाने पर बौखला जाता है .

फिर वह राष्ट्रवाद क्या था , जो स्वाधीनता संघर्ष में पनपा , किशोर और प्रौढ़ हुआ . जिसने सबको समाहित किया खुद में .वह जब भारत छोड़ो आन्दोलन के वक़्त सावरकर द्वारा उसमें भाग लेने से मना करने पर गांधी ने उसे देश विरोधी नही करार दिया. या कि जब यह देश स्वाधीनता के प्राप्त होने तक भी नेहरु और वल्लभ भाई पटेल के दो विपरीत पक्षों का साक्षी था . वह जब विश्व का सबसे बड़ा संविधान गढ़ा जा रहा था और लम्बी  गरम चर्चाएँ भी देश के हित की राह में थीं .


 

देश ,संसद ,लोकतंत्र और उसके रूपकों में झलकता है .सत्य है .पर उसकी आत्मा उसके लोगों , विचारों , और उन मूल्यों में बसती है जो संविधान के प्रेअम्बल में स्पष्ट मौजूद हैं तो क्या  न्याय व्यवस्था के तहत देश की संप्रभुता पर हमला करने वाले एक अपराधी का तथाकथित समर्थन हमें इतना उद्वेलित कर सकता है कि हम हिंसा करें .बजाय इसके हम ये झाँकने की कोशिश करें कि ऐसा क्यूँ है .यह सिर्फ प्रश्न हैं .इन्हें प्रश्न के तौर पर ही देखा जाए . जैसे बलात्कारी को निःसंदेह सज़ा मिलनी चाहिए पर क्या भविष्य और समाज यहीं रुक जाए कि आखिर किन हालातों  में वह अपराधी पोषित हुआ . ठीक वैसे ही अगर देश का एक संवेदनशील हिस्सा जो वर्षों से सरकार की मशीनरी के मानवाधिकारों के प्रति अन्यायों से व्यथित है तो उस मुद्दे को हम सुनना भी पसंद नही करेंगे ,है न ? तो क्या हम वास्तविकताओं की तह तक जाना ही नही चाहते ? क्या हम संविधान जिसकी हम दुहाई देते नही थकते ,उसके न्याय ,समानता और स्वतंत्रता को सही अर्थों में ज़मीनी होता नही देखना चाहते ? और भारतीय होने का दम भरते नही थकते . पर हम सच बात है कि हम सब भारतीय कहीं न कहीं आईने से घबराते हैं और  इस कारण अपना देश ,अपनी सरज़मीं के साथ सर्वथा सबसे बड़ा विश्वासघात और प्रहार करते हैं . मुश्किलों के वक़्त में तो गढ़ा जाता है इतिहास .पर वर्तमान के लिए तो हम सब आज  या तो डरते हैं या अपना हित साधने में ही भलाई खोजते हैं .प्रश्न अभी बाकी  हैं .


क्या विरोध के स्वर दबा जाने देने चाहिए . क्या सहनशीलता और लोकतंत्र के सन्दर्भ  अब हमें दूसरों से  प्रमाण पत्र के रूप में सौंपे जायेंगे . क्या जो किसी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में शामिल नही होता तो वह देशहित का विरोधी है या जो हमसे राय नही रखता वह .क्या सवालों के जवाब हिंसा के रूप में मिलेंगे और नित नयी परिभाषाएं समाज की अनवरत प्रगति की प्रक्रिया को आगे बढ़ने की बजाय कई साल पीछे छोड़ देंगी !



हाँ ,निःसंदेह गलत या सही पूर्ण रूप से कुछ भी नही होता . क्या मुझे जो गलत लगता है ,मैं उसे न सुनूं ,तो वह पक्ष ख़त्म हो जाएगा ? क्या वह सच को पूरी तरह जानने,समझने और विश्लेषित करने  की दिशा में मेरा खुद पर लगाया हुआ पूर्ण विराम नही होगा ?


और यह नही भूलियेगा कि इन प्रश्नों के उत्तर भी कईं पक्षों और सतहों पर होंगे और वास्तविकताएं तब भी दूर होंगी अगर वो निरंतर चर्चा ,परिचर्चा और चिंतन के साथ तथ्यात्मक और वैज्ञानिक नही होंगी .संस्कृति मूल्य और  भावनाएं देती हैं पर आपका मानव होना आपको एक बेशकीमती तोहफा ,आपका मस्तिष्क देता है .

 निर्णय आप का है . ऐसे ही नित नए पैदा होते हज़ारों सवालों से ज्ञान आपका और हमारा समृद्ध होगा .शास्त्रार्थों ने वैदिक ज्ञान को रचा और विकसित किया . और ऐसे ही आने वाली पीढ़ी , देश और समाज को आप और हम भी एक समयानुकूल  परिष्कृत सोच की विरासत दे जायेंगे जिसे वे पुनः इसी प्रक्रिया से गुज़र कर और आगे बढ़ाएंगे

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