यह लेख 20 अगस्त 2017 को युगभारती, कानपुर द्वारा आयोजित व्याख्यान में मुख्य वक्ता डॉ. सुधांशु त्रिवेदी जी के पूर्व विषय-प्रवर्तन करते हुए दिये गये मेरे भाषण का लिखित रूप है.
भारतीय जनता पार्टी के
राष्ट्रीय प्रवक्ता और आज के व्याख्यान के मुख्य वक्ता माननीय डॉ. सुधांशु
त्रिवेदी जी, हम सब के संरक्षक आदरणीय श्री वीरेंद्र जीत सिंह जी, युगभारती के
संरक्षक और हम सब के प्रेरणा स्रोत आदरणीय आचार्य श्री ओम शंकर जी, युग
भारती के अध्यक्ष डॉ. प्रवीण सारस्वत, महामंत्री डॉ. मोहन कृष्ण, शुभेंदु शेखर जी,
उपस्थित गणमान्य अतिथियों और युगभारती के सदस्यों।
मैं इसे अपना सौभाग्य समझता
हूँ कि आदरणीय आचार्य जी और युगभारती की कार्यकारणी ने मुझे इस योग्य समझा कि मैं
आज के विषय का प्रवर्तन करूँ; विशेषकर उस सभा में जहाँ सुधांशु जी और आचार्य जी
जैसे विद्वान उपस्थित हैं।
मेरे विचार से विषय प्रवर्तक
की भूमिका विषय की विशद व्याख्या और विस्तार करना नहीं है, बल्कि विषय के प्रमुख
पक्षों का उद्घाटन करते हुए एक पृष्ठभूमि तैयार करना है। आज मैं इसी भूमिका को
निर्वाह करने के लिये आप के सम्मुख उपस्थित हूँ।
हममें से अधिकांश लोगों ने
अपने जीवन काल में कभी न कभी अंत्योदय के विषय में अवश्य सुना होगा किंतु पिछले एक
वर्ष में अंत्योदय की जितनी चर्चा हुई है, सम्भवत: इसके पहले कभी नहीं हुई। इसका
कारण है वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा पिछले वर्ष प्रारम्भ की गयी “दीनदयाल
अंत्योदय योजना”। इस वर्ष अप्रैल माह में ओडिशा में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय
कार्यकारिणी में नारा दिया गया - “लक्ष्य अंत्योदय, प्रण अंत्योदय, पथ अंत्योदय”,
जिसकी देशव्यापी चर्चा हुई। सम्भवत: यही कारण है कि आज के व्याख्यान का विषय
“वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पं दीन दयाल जी का अंत्योदय दर्शन” रक्खा गया है।
अंत्योदय का शाब्दिक अर्थ है -
अन्तिम व्यक्ति का उदय किंतु अंत्योदय प्राथमिकता निश्चित
करने का एक मापदण्ड है किंतु पूर्ण लक्ष्य नहीं है। अन्तिम व्यक्ति के विकास में
समाज के हर व्यक्ति का विकास निहित है। इस बृहत्तर लक्ष्य का नाम है “ सर्वोदय ”। सर्वोदय का अर्थ
है “सबका उदय”। अंत्योदय और सर्वोदय एक ही
परिकल्पना के दो पक्ष हैं और यह परिकल्पना उतनी ही पुरातन है जितनी हमारी भारतीय
संस्कृति।
मनीष
कृष्ण जी ने अभी जो युगभारती की प्रार्थना के चार श्लोक पढ़े, उनमें से दो श्लोकों
को मैं भारतीय संस्कृति में अंत्योदय और सर्वोदय की परिकल्पना को दर्शाने के लिए
उद्धरित करूँगा।
महाभारत
और भागवत पुराण में राजा रंतिदेव की कथा का वर्णन है जिन्होंने कहा था-
“न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् |
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनाम् आर्तिनाशनम् ।।”
यही राजा का कर्तव्य है, यही
राजधर्म है और यही अंत्योदय की भावना है।
इसी प्रकार सर्वोदय की
परिकल्पना को व्यक्त करने वाले अनेक वैदिक श्लोक हैं, जैसे-
“सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।”
दूसरी
शताब्दी में जैन मुनि आचार्य समंतभद्र ने भगवान महावीर के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ की
संज्ञा दी थी। व्यक्ति के हित के साथ-साथ महावीर के उपदेश में समष्टि के हित की
बात भी निहित थी। सम्भवत: यह सर्वोदय शब्द के
प्रयोग का प्रथम दृष्टान्त है।
आधुनिक इतिहास में देखें तो
“सर्वोदय” की परिकल्पना सर्वप्रथम गाँधी जी ने प्रस्तुत की थी।
१९०८ में गाँधी जी ने ब्रिटिश
लेखक जॉन रस्किन की पुस्तक “Unto This Last” का सार गुजराती में लिखकर उसे
“सर्वोदय” का शीर्षक दिया। रस्किन की पुस्तक ने गाँधी जी को इतना प्रभावित किया कि
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद उन्होंने आजीवन सर्वोदय के आदर्शों पर चलने का प्रण कर
लिया।
स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद गाँधी जी चाहते थे कि कांग्रेस को भंग करके एक सामाजिक संस्था के
रूप में पुनर्गठित किया जाए जो सर्वोदय के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य करे।
इसी विचार से गाँधी जी ने ३ फ़रवरी १९४८ को सेवाग्राम (वर्धा) में एक बैठक बुलायी
थी। दुर्भाग्य से ३० जनवरी को उनकी हत्या हो गयी और यह बैठक निर्धारित तिथि पर
नहीं हो सकी।
किंतु
विनोबा भावे और उनके अन्य गाँधीवादी सहयोगियों के प्रयास से ये बैठक गाँधी जी की
हत्या के लगभग डेढ़ महीने बाद, ११-१४ मार्च १९४८ को, सेवाग्राम में ही आयोजित की
गयी जिसकी अध्यक्षता डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने की। इस बैठक में पं नेहरु, मौलाना
आज़ाद, आचार्य कृपलानी, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, जे.सी. कुमारप्पा, काका कालेलकर इत्यादि ने भाग लिया। गाँधी जी की अनुपस्थिति
में उनका कांग्रेस को भंग करने का
प्रस्ताव तो पारित नहीं हो सका किंतु जिस सामाजिक संगठन की बात गांधी जी ने
की थी उसे सर्वोदय-समाज के नाम से स्थापित करने का निर्णय अवश्य ले लिया गया जिसका
नेतृत्व आचार्य विनोबा भावे को सौंपा गया।
इसी
के बाद विनोबा भावे ने सर्वोदय का एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया जिसके अंतर्गत भूदान
के माध्यम से हज़ारों एकड़ भूमि भूमिहीनों में वितरित की गयी थी।
अंत्योदय
की परिकल्पना को सर्वोदय से जोड़ने का सम्भवत: प्रथम संदर्भ ७ मार्च १९४९ के दिन
राऊ इंदौर में सर्वोदय समाज के सम्मेलन के विनोबा भावे के भाषण में मिलता है।
विनोबा जी कहते हैं-
“अप्पा साहब (जो
जे.सी. कुमारप्पा हैं) ने आज मुझसे कहा
है कि इसे सर्वोदय के बदले अंत्योदय कहें तो अच्छा है; क्यूँकि
हमारे भंगी भाई सबसे आख़िरी दर्जे के हैं।”
इस
शब्दावली के लिए क्षमा चाहता हूँ किंतु ये उस काल में कहे हुए विनोबा जी के शब्द
हैं। आजकल हमलोग इस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग नहीं करते हैं।
इसके
आगे विनोबा जी कहते हैं-
“वास्तव
में सर्वोदय शब्द का मूल अंत्योदय की कल्पना में ही है। रस्किन की “Unto This Last” के
अनुवाद को बापू ने “सर्वोदय” का
नाम दिया है। सबसे नीची श्रेणी के जो हैं, उनका भी,
अंत्यों का भी, उदय
सर्वोदय में है। सारी दुनिया का उदय जब होगा तब होगा, लेकिन
भंगी का उदय तो होना ही चाहिए। शब्द तो मैं सर्वोदय ही रखना पसंद करूँगा क्यूँकि
सर्वोदय में अंत्योदय आ जाता है। केवल “अंत्योदय” शब्द
में यह भाव आता है कि बाक़ी लोगों का उदय हो चुका है, लेकिन
ऐसा नहीं है। इस कम्बख़्त दुनिया में उदय किसी का नहीं है। सबका अस्त ही है। किसी
के घर चूल्हा जलता ही नहीं तो किसी के घर में रोटियाँ जल जाती हैं। दोनों के
चूल्हों का अस्त हुआ है और दोनों को खाना नहीं मिल रहा है। समाज के पैसेदार लोगों
के जीवन का परिपूर्ण अस्त कब का हो चुका है और जो दरिद्र हैं, उनका
तो अस्त ही है।”
विनोबा भावे और उनका सर्वोदय समाज “सर्वोदयवादी” कहलाते थे जिनका उल्लेख दीनदयाल जी ने अपनी पुस्तक “भारतीय अर्थ नीति- विकास की एक दिशा” में किया
है।
समाजवाद और पूँजीवाद के साथ-साथ
दीनदयाल जी ने “सर्वोदयवाद” को भी इन्हीं के समकक्ष महत्व दिया और गुण-दोषों के
आधार पर कहीं इसका समर्थन किया तो कहीं विरोध।
तो क्या थी दीनदयाल जी की अंत्योदय
की परिकल्पना? आइये उन्हीं के शब्दों में जानते हैं। दीनदयाल जी कहते हैं-
“आर्थिक योजनाओं तथा प्रगति
का माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुँचे व्यक्ति से नहीं, बल्कि सबसे नीचे के स्तर
पर विद्यमान व्यक्ति से होगा। आज देश में ऐसे करोड़ों मानव हैं जो मानव के किसी भी
अधिकार का उपभोग नहीं कर पाते। शासन के नियम, व्यवस्थाएँ और नीतियाँ, प्रशासन का
व्यवहार और भावना इनको अपनी परिधि में लेकर नहीं चलती, प्रत्युत उन्हें मार्ग का
रोड़ा ही समझा जाता है। हमारी भावना और सिद्धान्त है कि वह मैले-कुचैले, अनपढ़,
मूर्ख लोग हमारे नारायण हैं। हमें इनकी पूजा करनी है। यह हमारा सामाजिक और मानव
धर्म है। जिस दिन हम इनके बच्चों और स्त्रियों को शिक्षा और जीवन दर्शन का ज्ञान
देंगे, जिस दिन हम इनके हाथ और पैरों की बिवाइयों को भरेंगे और जिस दिन इनको
उद्योगों और धंधों की शिक्षा देकर इनकी आय को ऊँचा उठा देंगे, उस दिन हमारा भातृ-भाव
व्यक्त होगा। ग्रामों में जहाँ समय अचल खड़ा है, जहाँ माता-पिता अपने बच्चों के
भविष्य को बनाने में असमर्थ हैं, वहाँ जब तक हम आशा और पुरुषार्थ का संदेश नहीं
पहुँचा पायेंगे, तब तक हम राष्ट्र के चैतन्य को जाग्रत नहीं कर सकेंगे। हमारी
श्रद्धा का केंद्र, आराध्य और उपास्य, हमारे पराक्रम और प्रयत्न का उपकरण तथा
उपलब्धियों का मानदण्ड वह मानव होगा जो आज शब्दश: अनिकेत और अपरिग्रही है।”
यह है दीनदयाल जी का
अंत्योदय-दर्शन!
दीनदयाल जी मानते थे कि आर्थिक
प्रजातंत्र में सभी को काम पाने का अधिकार है किंतु सिर्फ़ कमाने वाला ही खायेगा
यह न्यायसंगत नहीं है। वो कहते थे कि “जो पैदा हुआ है वो खायेगा और कमाने वाला
खिलायेगा।”
दीनदयाल जी मानते थे कि मनुष्य
मात्र शरीर नहीं है। “रोटी, कपड़ा और मकान” मनुष्य की न्यूनतम आवश्यकता हो सकते
हैं किंतु मनुष्य के विकास का मतलब उसके शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के एकीकृत
विकास से है। रोटी और वोट के अधिकार के साथ ही बौद्धिक विकास के लिए शिक्षा का
अधिकार और चरित्र निर्माण तथा आदर्शवाद के प्रचार द्वारा आत्मा का संतुलित विकास
भी आवश्यक है।
यह हम सब के लिये हर्ष का विषय है
कि नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में वर्तमान केंद्र सरकार दीनदयाल जी की अंत्योदय
की परिकल्पना को साकार करने के लिये कटिबद्ध है। “सबका साथ सबका विकास”
अर्थात “सर्वोदय” का लक्ष्य लेकर सरकार द्वारा प्रारम्भ की गयी योजनाओं में
दीनदयाल जी की अंत्योदय की परिकल्पना परिलक्षित होती है। केवल दीनदयाल अंत्योदय
योजना ही नहीं बल्कि प्रधानमंत्री आवास योजना, जन-धन योजना, अटल पेंशन योजना, कौशल
विकास योजना, उज्ज्वला योजना, फ़सल बीमा योजना जैसी अनेक योजनाएँ दीनदयाल जी के
अंत्योदय दर्शन को मूर्त रूप देने का ही प्रयास है।
दीनदयाल
जी का अंत्योदय-दर्शन जितना साठ के दशक में प्रासंगिक था, उतना ही आज भी है। अन्तर
मात्र इतना है कि हम सौभाग्यशाली हैं जो उसे आज अपनी आँखों से साकार होते हुये देख
रहे हैं।
इन्हीं
शब्दों के साथ, समय की सीमा का आदर करते हुए, मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ।
धन्यवाद।