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खगोलशास्त्र और गणित ज्योतिष - भाग 2

4 सितम्बर 2017

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यह लेख मेरे द्वारा कुछ WhatsApp समूहों पर १८ अगस्त २०१६ से २७ नवम्बर २०१६ तक सम्प्रेषित चर्चा का संकलन है. पाठकों की सुविधा के लिए इसे कई खण्डों में प्रकाशित कर रहा हूँ.


कल की चर्चा में कुछ बातें छूट गयीं थीं ।


कल मैंने कहा था कि ज्योतिष में नव ग्रहों की स्थिति को १२ राशियों के सापेक्ष दर्शाया जाता है। यह पूरी तरह से सही नहीं है।


९ ग्रहों में पृथ्वी भी शामिल है किन्तु पृथ्वी को ज्योतिष गणना में नहीं लिया जाता है क्योंकि पृथ्वी से पृथ्वी की चाल और स्थिति को नहीं देखा जा सकता है।


पृथ्वी के स्थान पर सूर्य की स्थिति को दर्शाया जाता है जो परोक्ष रूप से पृथ्वी की चाल और स्थिति को ही दर्शाता है। कैसे?


पृथ्वी सूर्य का चक्कर १ वर्ष या १२ महीनों में लगाती है किन्तु पृथ्वी से देखने पर पृथ्वी के सापेक्ष ऐसा प्रतीत होता है कि सूर्य पृथ्वी का १ चक्कर १२ महीनों में लगाता है।


इस प्रकार सूर्य १२ महीनों में १२ राशियों से गुज़रता है। इसका एक विशेष महत्व है। किसी व्यक्ति के जन्म के समय सूर्य जिस राशि में होता है उस व्यक्ति की वही राशि मानी जाती है।


सूर्य के अलावा चन्द्रमा की चाल और स्थिति भी ज्योतिष गणना में शामिल किया जाता है।


कोई ग्रह एक राशि में कितना समय व्यतीत करता है इसकी गणना कैसे की जा सकती है? कोई ग्रह अपनी कक्षा में सूर्य का एक चक्कर जितने समय में पूरा करता है उतने समय में वह १२ राशियों से होकर गुज़रता है।इस हिसाब से एक राशि में ग्रह अपने orbital period का १२वाँ भाग बिताना चाहिये। किन्तु ऐसा नहीं होता है। इसका कारण है ग्रहों की आभासी उल्टी गति (apparent retrograde motion) जिसका उल् लेख मैंने दो दिन पूर्व इस चर्चा के प्रारंभ में किया था।


इस आभासी उल्टी गति के कारण अधिकाँश ग्रह एक राशि से निकल कर उल्टी चाल के कारण फिर उसी राशि में चले जाते हैं जिसके कारण वे किसी राशि में औसत से अधिक तो किसी राशि में औसत से कम समय बिताते हैं। आज के लिये इतना ही। शेष फिर कभी।


किसी ने व्यक्तिगत रूप से एक प्रश्न पूछा है कि शनि की साढ़े साती क्या होती है?


मेरा शोधकार्य ग्रहों की गति और स्थिति की गणना तक ही सीमित है। उसी सीमा में रह कर मैं इस प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ।


शनि अपनी कक्षा में सूर्य का एक चक्कर लगभग ३० वर्ष में लगाता है। इस हिसाब से शनि एक राशि में औसत रूप से २.५ वर्ष रहता है। जब शनि किसी व्यक्ति की जन्म राशि (चन्द्रमा की स्थिति अनुसार) से एक पहले की राशि में प्रवेश करता है तब से लेकर जब शनि मूल राशि के ठीक बाद की राशि में रहता है उस ७.५ वर्ष के काल को साढ़े साती कहते हैं।


उदाहरण के लिये तुला राशि वालों की साढ़े साती तब प्रारम्भ होगी जब शनि उसके ठीक पहले की राशि अर्थात कन्या राशि में प्रवेश करेगा और तब समाप्त होगी जब शनि तुला राशि के ठीक बाद की राशि अर्थात वृश्चिक राशि से निकलेगा।


मैने पिछले सप्ताह सौर मंडल के विषय में ज्योतिष शास्त्र के दृष्टिकोण से कुछ जानकारी आपके सम्मुख रक्खी थी। उस चर्चा में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य छूट गये थे जिनके उल्लेख के बिना यह चर्चा अधूरी रह जायेगी।


साथ ही दो दिन पूर्व किसी ने एक प्रश्न पूछा था- "एक और प्रश्न: सूर्य की गति पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर होती है परंतु सूर्य ग्रहण की अवस्था में ग्रहण की गति पश्चिम से पूर्व की ओर क्यों होती है? (ग्रहण पश्चिम दिशा के देशों में पहले दिखता है)"


जैसा मैंने पहले कहा था कि ज्योतिष में नव ग्रहों की गति एवं स्थिति की गणना १२ राशियों के सापेक्ष की जाती है। तत् पश्चात मैंने इस कथन को संशोधित करते हुए कहा था कि नव ग्रहों में पृथ्वी सम्मिलित नहीं है और उसके स्थान पर सूर्य की और साथ ही चन्द्रमा की स्थिति दर्शायी जाती है।


वास्तव में ये संशोधन न होकर विषय का चरण-बद्ध विस्तार है।


विषय के अगले चरण में यह जोड़ना चाहूँगा कि सौर मंडल के तीन और ग्रह ज्योतिष गणना में शामिल नहीं हैं- युरेनस, नेपच्यून और प्लूटो।


इन ३ ग्रहों के न शामिल होते हुए भी ज्योतिष में ९ आकाशीय पिंडों कैसे संभव हुए? एक के स्थान पर चन्द्रमा शामिल हो गया और बचे हुए २ ग्रहों के स्थान पर दो काल्पनिक पिंड राहु और केतू को शामिल किया गया है। इन दो काल्पनिक ग्रहों को छायाग्रह कहते हैं।


राहू और केतु काल्पनिक अवश्य हैं किन्तु यह कल्पना वै ज्ञान िक सिद्धान्तों पर आधारित है। कैसे?


सूर्य की आभासी कक्षा उसी तल (plane) पर है जिस पर पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है।


चन्द्रमा की कक्षा सूर्य की इस आभासी कक्षा से लगभग ५ अंश झुकी हुई है। ये दोनों कक्षाएँ एक दूसरे को दो बिन्दुओं पर प्रतिच्छेदित करती हैं। इसे समझने के लिये कल्पना कीजिये कि दो चूड़ियों को आपस में इस प्रकार फँसा लिया जाये जिससे उनके बीच का कोण ५ अंश का हो।


ये दो चूड़ियाँ एक दूसरे को दो बिंदुओं पर स्पर्श करेंगी। ये दो बिंदु ही राहू और केतु हैं। ये काल्पनिक अवश्य हैं किन्तु अपनी गति और स्थिति से ये किसी वास्तविक ग्रह का आभास देते हैं।


ज्यामिति के दृष्टिकोण से राहू और केतु का विशेष महत्व है। हम सब जानते हैं कि सूर्य और चन्द्र ग्रहण के लिये एक आवश्यक स्थिति है पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा का एक सीधी रेखा में आना।


यह सीधी रेखा द्वि आयामी न होकर त्रिआयामी होती है। यह संयोग तब होता है जब चन्द्रमा राहू या केतु की स्थिति में आता है। चन्द्रमा अपनी कक्षा में पृथ्वी की आवर्तन लगभग १ महीने में करता है जिसका अर्थ यह हुआ कि चंद्रमा राहू या केतु की स्थिति में हर १५ दिन में आता है किन्तु हर बार ग्रहण का योग नहीं बनता। ग्रहण का योग तब बनता है जब चंद्रमा राहू या केतु की स्थिति में हो और सूर्य भी पृथ्वी और चंद्रमा की सीध में आ जाये।


जब मैं राहू और केतु का उल्लेख करता हूँ तो यह समझ लेना आवश्यक है कि ये न तो कपोल कल्पनाएँ है न ही अवैज्ञानिक अवधारणाएँ हैं। वैज्ञानिक भाषा में राहू और केतु को north and south lunar nodes कहा जाता है।


सूर्य ग्रहण पृथ्वी के कुछ ही स्थानों से देखा जा सकता है। वास्तव में सूर्य ग्रहण सौर मण्डल का वह योग है जब चंद्रमा सूर्य को पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से ढक लेता है। इसे पूर्ण या आंशिक सूर्य ग्रहण कहते हैं।


पूर्ण सूर्य ग्रहण पृथ्वी के किसी भी स्थान से लगभग ७-८ मिनट तक देखा जा सकता है। पृथ्वी पर यह बिन्दु जहाँ से सूर्य ग्रहण देखा जा सकता है पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर घूमता है।


पर इसके भी अपवाद हैं अर्थात कुछ विषेश परिस्थितियों में यह बिन्दु पूर्व से पश्चिम दिशा में भी घूमता है किन्तु इस अपवाद की चर्चा फिर कभी।


आम तौर पर सूर्य ग्रहण पृथ्वी से पश्चिम से पूर्व की ओर घूमता प्रतीत होता है। क्यूँ? जबकि सूर्य की आभासी गति पूर्व से पश्चिम की ओर है।


जैसा मैंने पहले कहा कि पूर्ण सूर्य ग्रहण पृथ्वी के एक स्थान से लगभग ७-८ मिनट तक दृश्यमान रहता है। इसका कारण है पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा में से सबसे अधिक गतिमान पिंड की गति। सर्वाधिक गतिमान चंद्रमा है जो पश्चिम से पूर्व दिशा में पृथ्वी का आवर्तन करता है। यही कारण है कि पृथ्वी से हमें सूर्य ग्रहण पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर घूमता प्रतीत होता है।


वैसे तो मैं आज की चर्चा में कई और महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा भी करना चाहता था जैसे कि सूर्य की उत्तरायण और दक्षिणायण गति और महाभारत में भीष्म पितामह के प्राण त्याग के क्षण का महत्व। किन्तु समय और स्थान की सीमाओं में रहते हुए इस चर्चा को आज यहीं विराम दूँगा।



कल की चर्चा में कुछ बातें छूट गयी थीं जिनका उल्लेख आज करना चाहूँगा।


कल मैंने उत्तरायण और दक्षिणायण का उल्लेख किया था। आज की चर्चा इसी विषय पर है।


हम सभी ने पढ़ा है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर भी घूमती है और साथ ही सूर्य का आवर्तन भी करती है। पृथ्वी की धुरी की दिशा उत्तर-दक्षिण है और इसका पृथ्वी के घूर्णन की दिशा से संबन्ध के वैक्ज्ञानिक नियम को दाहिने हाथ का नियम कहते हैं। इस नियम के अनुसार यदि आप अपने दाहिने हाथ को इस प्रकार मोड़े कि उँगलियाँ एक ढ़ीली मुष्टिका के रूप में हों और अंगूठा सीधी हो। ऐसी अवस्था में अंगूठा उत्तर दिशा दिखाता है और उँगलियाँ पृथ्वी के अपनी धुरी के सापेक्ष घूमने की दिशा दर्शित करती हैं। इस नियम के अनुसार पृथ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर घूमती है और यही कारण है कि पृथ्वी से देखने पर हमें सूर्य पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर जाता दिखाई देता है।


पृथ्वी की धुरी पृथ्वी की सूर्य के आवर्तन की कक्षा के सापेक्ष २३.४ अंश झुकी हुई है। इसके परिणाम स्वरूप पृथ्वी से देखने पर सूर्य की गति ठीक पूर्व पश्चिम न होकर कभी उत्तर की ओर तो कभी दक्षिण की ओर झुकी दिखाई देती है।


यह जान लेना आवश्यक है कि पृथ्वी का यह झुकाव स्थिर नहीं है किन्तु यह चर्चा फिर कभी करूँगा।


आपने यह प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया होगा कि आपके घर के जिस भाग में गर्मियों में धूप आती है सर्दियों में उसी भाग में धूप नहीं आती।


पृथ्वी की विषुवत रेखा द्वारा निर्धारित तल पृथ्वी की सूर्य के आवर्तन की कक्षा द्वारा निर्धारित तल को दो बिन्दुओं पर प्रच्छेदित करती है उसी प्रकार जैसा कि कल मैंने चन्द्रमा के संदर्भ में दो चूड़ियों का उदाहरण देते हुए समझाया था।


यह दो बिन्दु ही उत्तरायण और दक्षिणायण के बिन्दु हैं। उत्तरायण सूर्य की वह अवस्था है जब वह विषुवत रेखा के पार करते हुए उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करता है और दक्षिणायण इसका ठीक उल्टा है।


आपने संभवत: पढ़ा होगा कि महाभारत युद्ध के दसवें दिन पितामह भीष्म शिखण्डी की ओट से चलाये हुये अर्जुन के बाणों की शरशैया पर आ पड़े। मृत्यु समीप भी थी और अवश्यंभावी भी किन्तु फिर भी भीष्म ने प्राण त्याग के लिये ५८ दिन प्रतीक्षा की। इसका कारण यह है कि उस समय सूर्य दक्षिणायण में था और ऐसी दशा में प्राण त्याग को शुभ नहीं माना जाता। उत्तरायण की प्रतीक्षा में भीष्म ने शरशैया पर ५८ दिन व्यतीत किये।


उत्तरायण पर सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है और इस दिन को हम मकर संक्रान्ति के नाम से जानते हैं। इसका उल्टा अर्थात दक्षिणायण कर्क संक्रान्ति से आरंभ होता है क्यूँकि कर्क राशि मकर राशि से १८० अंश पर स्थित है। कर्क संक्रान्ति का वैसा महत्व नहीं है जैसा मकर संक्रान्ति का है क्यूँकि उत्तरायण को हमारी परंपरा में शुभ माना गया है।


संक्रान्ति वह तिथि है जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है। इस हिसाब से १२ राशियों के अनुरूप एक वर्ष में १२ संक्रान्तियाँ होती हैं किन्तु विशेष महत्व मकर संक्रान्ति का ही है जो १४ या १५ जनवरी को पड़ती है।


मकर संक्रान्ति की तिथि से अर्थात अर्थात १४/१५ जनवरी से ५८+ १० दिन पीछे जाकर हम महाभारत युद्ध के प्रारम्भ बोने की तिथि की गणना कर सकते हैं किन्तु स्मरण रहे कि मकर संक्रान्ति की यह तिथि पृथ्वी की धुरी के २३.४ अंश झुकाव पर आधारित है और जैसा मैंने पहले संकेत दिया कि यह झुकाव स्थिर नहीं है। तात्पर्य यह कि महाभारत युद्ध के प्रारंभ की तिथि की गणना के लिये हमें उस काल में पृथ्वी का झुकाव और तदनुरूप मकर संक्रान्ति की तिथि की गणना करनी पड़ेगी। यह चर्चा फिर कभी।


आज इस चर्चा को यहीं विराम देता हूँ। शेष अगले भाग में...

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