यह लेख मेरे द्वारा कुछ WhatsApp समूहों पर १८ अगस्त २०१६ से २७ नवम्बर २०१६ तक सम्प्रेषित चर्चा का संकलन है. पाठकों की सुविधा के लिए इसे 6 खण्डों में प्रकाशित कर रहा हूँ.
दो सप्ताह पूर्व की चर्चा में मैंने तिथिपत्र का संक्षिप्त उल्लेख किया था जिस पर कुछ टिप्पणियाँ भी प्राप्त हुईं थीं। उन टिप्पणियों का स्पष्टीकरण करते हुए और पिछली चर्चा को आगे बढ़ाते हुए मैं आज की चर्चा तिथिपत्र पर करना चाहूँगा।
तिथिपत्र (calendar) काल गणना की पद्धति है। विश्व में तिथिपत्र की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित रहीं हैं। आज की चर्चा में इनमें से कुछ प्रमुख पद्धतियों की चर्चा होगी।
विश्व में प्रचलित तिथिपत्रों को मुख्यत: तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- सौर्य, चान्द्र और इन दोनों का समन्वय।
मुख्य रूप से पश्चिमी देशों के तिथिपत्र सौर्य पद्धति पर आधारित हैं और पूर्वी देशों के चान्द्र या मिश्रित पद्धति पर आधारित हैं।
पहले बात करते हैं पश्चिमी सौर पद्धति की।
इसके पहले एक बात- वर्ष की कल्पना पृथ्वी के सूर्य के एक आवर्तन पर आधारित है, मास की कल्पना चन्द्रमा के पृथ्वी के एक आवर्तन पर आधारित है और दिन की कल्पना पृथ्वी के अपनी धुरी पर एक घूर्णन के काल पर आधारित है।
अब पश्चिमी कालपत्रों के सिद्धान्त पर लौटते हैं।
पहला प्रमुख पश्चिमी तिथिपत्र था जूलियन तिथिपत्र जिसका प्रादुर्भाव प्रसिद्ध रोमन सम्राट जूलियस सीज़र ने किया था।
जूलियन तिथिपत्र में हर चौथे वर्ष को लीप वर्ष माना गया और वसन्त विषुव की तिथि को २१ मार्च माना गया।
एक सायन वर्ष ३६५.२४२२ दिन का होता है। हर चौथे वर्ष को लीप वर्ष मानने के पीछे एक वर्ष के कालखण्ड को ३६५.२५ दिन मानना है।
इस विरोधाभास के कारण होने वाली त्रुटि एक शताब्दी में लगभग तीन चौथाई दिन के बराबर हो गयी हो गयी और सोलहवीं शताब्दी के आते आते वसंत विषुव की तिथी ११ मार्च तक घूम गयी।
इस कारण इस्टर की तिथी में भी उतनी ही तृटि आ गयी जिसके कारण उस समय के पोप को एक नये तिथिपत्र को स्थापित करना पड़ा जिसे आज हम ग्रेगोरियन तिथिपत्र के नाम से जानते हैं जिसे आज समस्त विश्व स्वीकार करता है।
इस ग्रेगोरियन तिथिपत्र की और भारतीय तिथिपत्र की चर्चा कल करूँगा। आज के लिये इतना ही।
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तिथिपत्र पर परसों की चर्चा को आगे बढ़ा रहा हूँ। ग्रेगोरियन तिथिपत्र को फरवरी २४ सन १५८२ को तत् कालीन पोप ग्रेगरी द्वारा लागू किया गया। जूलियन तिथिपत्र की तृटिपूर्ण लीप वर्ष पद्धति का सुधार करते हुये उस वर्ष से १० दिन कम कर दिये गये जिसके कारण ४ अक्टूबर के बाद अगली तिथि १५ अक्टूबर रक्खी गयी। साथ ही लीप वर्ष की पद्धति में भी सुधार किया गया।
वर्ष १५८२ में १० दिन कम करने के कारण अगले वर्ष अर्थात सन १५८३ में वसन्त विषुव पुन: २१ मार्च पर लौट आयी।
लीप वर्ष के नियम को इस प्रकार संशोधित किया गया- हर वह वर्ष जो ४ से पूर्णत: विभाजित होता हो किन्तु १०० से विभाजित न होता हो लीप वर्ष माना गया। शताब्दि वर्ष यदि ४०० से विभाजित होते हों तभी लीप वर्ष माने गये।
इस प्रकार ग्रेगोरियन तिथिपत्र ४०० वर्षों के चक्र पर आधारित है जिसमें १४६०९७ दिन होते हैं। और इन ४०० वर्षों में एक दिन की औसत अवधि ३६५.२४२५ दिन के बराबर आती है जो औसत सायन वर्ष की अवधि ३६५.२४२२ दिन के निकट है। किन्तु अभी भी थोड़ी तृटि शेष है जो ३३०० वर्षों में १ दिन के बराबर होगी।
सायन वर्ष की ३६५.२४२२ दिनों की अवधि भी औसत अवधि है। प्रत्येक वर्ष के सायन वर्ष की अवधि एक वसन्त विषुव से दूसरे वसन्त विषुव के बराबर होती है जो हर वर्ष बदलती रहती है। सायन वर्ष की न्यूनतम अवधि ३६५ दिन ५ घण्टे ३५ मिनट और अधिकतम अवधि ३६५ दिन ६ घण्टे ५ मिनट तक होती है।
इस्लामिक तिथिपत्र विशुद्ध चान्द्र तिथिपत्र का एक उदाहरण है जिसमें एक मास चन्द्रमा की कलाओं के एक चक्र के बराबर होती है। इस तिथिपत्र का आरम्भ हिजरी से माना गया है जो जूलियन वर्ष +६२२ के ५ जुलाई के समकक्ष है।
विषम मास ३० दिन के और सम मास २८ दिन के माने गये हैं। इस प्रकार एक सामान्य वर्ष में ३५४ दिन होते हैं जो सामान्य सायन वर्ष से ११ दिन कम हैं। इस अन्तर के कारण इस्लामिक तिथिपत्र के मास सायन वर्ष के सापेक्ष खिसकते हुए ३३ वर्षों में पुन: उसी स्थान पर आ जाते हैं।
३३ वर्षों के इस क्रम में वर्ष २, ५,७,१०,१३,१६,१८,२१,२४,२६ और २९ लीप वर्ष माने गये हैं। लीप वर्ष को मिला कर ३३ वर्षों के क्रम में एक औसत वर्ष की अवधि चान्द्र वर्ष की वै ज्ञान िक गणना के आधार पर निर्धारित अवधि से २.९ सेकेण्ड कम है।
आज की चर्चा को यहीं विराम दे रहा हूँ। शेष चर्चा फिर कभी। शुभरात्रि।
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अभी हाल ही में पड़ी कार्तिक पूर्णिमा को चन्द्रमा का एक अद्भुत दृश्य देखने को मिला जिसे प्रचलित भाषा में Super Moon (महाचन्द्रमा) कहते हैं। यदि सदस्यों में रुचि हो तो इस विषय पर मुझे जो थोड़ी बहुत जानकारी है वह आपके साथ साझा करने में मुझे प्रसन्नता होगी।
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जिन सदस्यों ने महाचन्द्रमा पर चर्चा के लिये अपनी रुचि प्रकट की है उनका ह्रदय से आभार।
आपने संभवत: दूरदर्शन में देखा होगा या समाचार पत्रों या इंटरनेट पर पढ़ा होगा कि पिछली कार्तिक पूर्णिमा को चन्द्रमा पिछले कई दशकों में सर्वाधिक दैदिप्यमान और आकार में बृहत्तम दिखाई दिया।
.......आज की चर्चा इसी और इससे संबन्धित विषयों पर है।
महाचन्द्रमा वह संयोग है जब चन्द्रमा पूर्णिमा के दिन पृथ्वी से निकटतम दूरी पर होता है।
मैंने सौर मंडल संबन्धित चर्चाओं में से किसी चर्चा में यह उल्लेख किया था कि ग्रह के संदर्भ में सूर्य के सापेक्ष निकटतम और अधिकतम दूरी के बिन्दुओं को perihelion और aphelion कहा जाता है। peri का यूनानी भाषा में अर्थ है निकटतम और helion का अर्थ है सूर्य।
चन्द्रमा के संदर्भ में perihelian और aphelion शब्दों का प्रयोग नहीं किया जा सकता है क्यूँकि चन्द्रमा सूर्य का नहीं वरन् पृथ्वी का आवर्तन करता है।
चन्द्रमा के संदर्भ में इन्हीं स्थितियों के लिये जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है वह हैं - perigee और apogee.
सौर्य मंडल के अन्य सभी आकाशीय पिंडो की भाँति चन्द्रमा भी पृथ्वी के चतुर्दिक दीर्घवृत्तीय कक्षा में परिक्रमा करता है। इस कारण चन्द्रमा की पृथ्वी से दूरी निरंतर परिवर्तित होती रहती है।
कल इसी विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाने का प्रयास करूँगा। आज के लिये इतना ही।
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महाचन्द्रमा के विषय में पिछले सप्ताह की चर्चा को आगे बढ़ा रहा हूँ। आशा है कि यह चर्चा आज ही पूर्ण हो जायेगी।
मैंने पिछली चर्चा में उल्लेख किया था कि सौर मंडल के अन्य पिंडो के समान चन्द्रमा भी पृथ्वी की परिक्रमा दीर्घवृत्तीय कक्षा में करता है जिसके दो में से एक केन्द्र पर पृथ्वी स्थित होती है।
Perigee चन्द्रमा की कक्षा का वह बिन्दु है जहाँ पर चन्द्रमा पृथ्वी से निकटतम दूरी पर होता है। Perigee का अर्थ है- peri मतलब पास और gee geo से बना है जिसका अर्थ है पृथ्वी।
महाचन्द्रमा वह संयोग है जब perigee पर पूर्णिमा हो। इस स्थिति में चन्द्रमा सामान्य की अपेक्षा अधिक बड़ा और अधिक चमकदार दिखाई देता है।
पूर्णिमा और अमावस्या तब पड़ती है जब सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक रेखा में आ जाते हैं। पूर्णिमा में चन्द्रमा और सूर्य के मध्य में पृथ्वी स्थित होती है और अमावस्या को चन्द्रमा मध्य में आ जाता है।
पूर्णिमा और अमावस्या एक रात नहीं है बल्कि मात्र एक क्षण है क्योंकि चन्द्रमा निरन्तर चलायमान है और ये तीनों पिंड मात्र एक क्षण के लिये एक रेखा में आते हैं।
आप में से कुछ के मन में सहज प्रश्न आ सकता है कि चन्द्रमा पृथ्वी और सूर्य के एक रेखा में आने से तो चन्द्र और सूर्य ग्रहण होते हैं।
आपका अनुमान ठीक है किन्तु चन्द्र और सूर्य ग्रहण के लिये इन तीनों के एक रेखा में होने के साथ साथ इन चन्द्रमा का पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा की कक्षा के तल में भी होना आवश्यक है। यह संयोग चन्द्रमा की कक्षा के दो बिन्दुओं पर होता है जिन दो बिन्दुओं पर चन्द्रमा की कक्षा पृथ्वी की कक्षा को विच्छेदित करती है। इन बिन्दुओं को खगोल विज्ञान की भाषा में lunar nodes और ज्योतिष शास्त्र में राहू और केतु कहते हैं।
चन्द्रमा की धुरी भी स्थिर नहीं है और वह भी एक वृत्ताकार मार्ग पर घूमती है जिसका आवर्तन काल १८.६ वर्ष है।
इसी कारण राहू और केतु जिन्हें ज्योतिष में काल्पनिक ग्रह माना गया है इनका कक्षा काल १८.६ वर्ष है।
इसी कारण चन्द्रमा की कक्षा का तल भी निरन्तर परिवर्तित होता रहता है और १८.६ वर्ष बाद सूर्य के सापेक्ष पुन: उसी स्थिति पर लौटता है। इसी कारण prigee और apogee बिन्दुओं की स्थिति भी निरन्तर बदलती रहती है अर्थात चन्द्रमा की पृथ्वी से निकटतम और अधिकतम दूरी भी निरन्तर बदलती रहती है जिसका क्रम भी १८.६ वर्ष का है।
सामान्य महाचन्द्रमा का संयोग वैसे तो लगभग २ वर्ष में एक बार पड़ सकता है किन्तु वास्तविक अर्थ में महाचन्द्रमा का संयोग लगभग ६८ वर्ष में एक बार होता है जो पिछली कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था जब चन्द्रमा की पृथ्वी से निकटम दूरी १८.६ वर्ष के क्रम की न्यूनतम थी।
इसके साथ ही महाचन्द्रमा पर यह चर्चा पूर्ण हुई। आशा है आपको रोचक लगी होगी। फिर किसी दिन किसी और चर्चा के साथ आपके समक्ष उपस्थित हूँगा। आज के लिये इतना ही।
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मैंने एक बार कहा था कि अकेले चन्द्रमा के विषय में इतने रोचक तथ्य हैं कि यदि मैं रोज़ इन पर चर्चा करूँ तो कई महीने तक यह चर्चा चलती रहेगी। आज की चर्चा भी चन्द्रमा पर ही है।
आम धारणा यह है कि चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा इस लिये करता है क्यूँकि पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल चन्द्रमा पर सौर मंडल के किसी भी अन्य पिन्ड से अधिक है।
प्रथम दृष्टया यह तर्क संगत भी लगता है क्यूँकि पृथ्वी अन्य पिन्डों की तुलना में चन्द्रमा से सबसे पास है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि चन्द्रमा पर सूर्य का गुरुत्वाकर्षण बल पृथ्वी की तुलना में लगभग दोगुना है। अत: चन्द्रमा वस्तुत: पृथ्वी की नहीं अपितु सूर्य की परिक्रमा करता है जिसकी कक्षा को पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल इस प्रकार मोड़ देता है जिससे यह आभास होता है कि चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा है।
दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो हम पृथ्वी और चन्द्रमा को एक ऐसी द्विपिंडीय प्रणाली मान सकते हैं जो सूर्य की परिक्रमा करती है।
द्विपिंडीय प्रणाली में दोनों पिंड एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं। इसकी कल्पना आप उस खेल से कर सकते हैं जिसमें दो बच्चे एक दूसरे के दोनों हाथ पकड़ कर परस्पर गोल गोल घूमें। इस खेल को मराठी में 'फुगड़ी' कहते हैं। हिन्दी में भी इसका अवश्य कोई नाम होगा पर मुझे जानकारी नहीं है।
इस खेल में यदि दोनों व्यक्ति समान वज़न के हों तो दोनों के पैरों के निशान द्वारा बने वृत्त समान आकार के होंगे। किन्तु कल्पना कीजिये कि कोई भारी भरकम बड़ा व्यक्ति किसी छोटे बच्चे के साथ यह खेल खेले तो क्या होगा?
ऐसा प्रतीत होगा कि बड़ा व्यक्ति अपने ही स्थान पर खड़े हुये गोल घूम रहा है और बच्चा उसकी परिक्रमा कर रहा है। यही कल्पना पृथ्वी और चन्द्रमा के ऊपर भी लागू होती है।
ऐसी द्विपिंडीय प्रणाली के उभयनिषठ गुरुत्व केन्द्र को barry center कहते हैं और दोनों पिंड इसी केन्द्र के चतुर्दिक परिक्रमा करते हैं। पृथ्वी और चन्द्रमा का barry center पृथ्वी के अन्दर ही है और यह पृथ्वी की सतह से लगभग ४००० किलोमीटर की गहराई पर है।
कल्पना कीजिये कि कोई पिंड अपने अन्दर ही स्थित किसी बिन्दु की परिक्रमा कैसे करेगा?
पिछली कई चर्चाओं में मैंने पृथ्वी की धुरी के घूर्णन का उल्लेख किया है जिसका आवर्तन काल लगभग २७००० वर्ष का है। वस्तुत: पृथ्वी की धुरी के इस प्रकार घूर्णन का मुख्य कारण यही है। कुछ अन्य कारण भी हैं जिनकी चर्चा किसी और दिन करूँगा।
अंतिम भाग....