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विचारधाराएँ अलग-अलग है, लेकिन धारा एक ही है.

27 मई 2016

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हिन्दुस्तान की “विविधता में एकता” वाली बात वाक़ई में काफ़ी सच्ची है. चाहे वेशभूषा अलग-अलग हो, चाहे बोलियाँ अलग-अलग हो, चाहे मजहब ही अलग क्यूँ न हो, दिल से सब हिन्दुस्तानी हैं. और इसी विविधता में एकता का परिचय देती है यहाँ के अलग-अलग प्रान्तों में शासन करने वाली सरकारें और उनकी पार्टियाँ. जैसे उनका एजेंडा अलग-अलग और झूठा ही क्यूँ न हो, सत्ता के लिए उनमे ललक एक सी होती है. वैसे ही सत्ता मिलने के बाद भले ही बातें वो अलग-अलग तरह की कर लें, लेकिन काम सब एक जैसा ही करतें हैं. न जनता से मतलब, न उसकी भूख से, न उसके कपड़ों से कोई सरोकार, न उसकी गरीबी से.

ये सब पार्टियों की बस वेशभूषा अलग-अलग है, उनके वादे अलग-अलग है लेकिन इरादे एक – समय रहते जनता के पैसों का सही-सही “सदुपयोग” करना. वैसे गाड़ी, बंगला, Z लेयर की सिक्यूरिटी, हवाई यात्रा , स्विस अकाउंट से छलकता पैसा- ये सब तो उनके एजेंडे में पहले से ही होता है. आजकल एक नया ट्रेंड जोर पकड़ रहा है, और वो है विज्ञापनों का. जहाँ देखो वही विज्ञापन. रेडियो पे, टीवी में, अख़बारों में. जनता के पैसे से जनता की आँख और कान में ये विज्ञापन ठूँस से दिए जा रहे हैं. कहीं 49 दिन की सरकार ने कैसे आज़ादी के बाद 49 साल जितना काम कर दिया तो कहीं 2 साल में मानो 2 करोड़ लोगों को रोज़गार दे दिया गया हो, ऐसा शोर मचाया जा रहा है, मानो इंडिया सुपरपावर से भी आगे कुछ बन चुका है और वो भी इन पार्टियों की वजह से ही. गरीबों और मजदूरों की पार्टी होने का दावा करने वाली पार्टियाँ भी इन बेवजह विज्ञापनों पर ऐसे पैसे लुटा रही हो मानो इस देश के मजदूर-किसानों का घर अन्न से भरा पड़ा हो और बस उनके अपने खाने को इन रंगीन विज्ञापनों के तड़के की ही कमी थी.

कहीं 500 करोड़ तो कहीं 1000 करोड़ खर्च किये जा रहे हैं. जिसकी जितनी सरकारी खजाने पर पकड़, उसका उतना खर्चा. मै कोई बड़ा ज्ञानी तो नहीं कि बता सकूँ की इन पैसों से कितने स्कूल, हॉस्पिटल, रिसर्च सेंटर या कुछ और खोले जा सकते थे, लेकिन इतना मोटे तौर पर तो कह ही सकता हूँ की ये रकम काफी बड़ी है, और इससे कुछ शहर या गाँव का भला तो हो ही सकता था. शायद बुंदेलखंड, मराठवाडा में कुछ किसानों का कर्ज माफ़ कर के, उन्हें अन्न मुहैया करा के उन्हें आत्महत्या करने से तो रोका जा ही सकता था, या फिर आने वाली ठण्ड में सड़क के किनारे सोते बेसहारा लोगों के लिए नाईट शेल्टर और कपड़ों, कम्बलों का इंतजाम तो किया जा ही सकता था. देश की इन सब छोटी जरूरतों से निपटने के लिए कोई बड़ा मास्टर प्लान नहीं चाहिए, बस थोड़ी इच्छाशक्ति और थोड़े पैसे चाहिए. पैसे की तो कमी ऐसे विज्ञापनों से नही झलकती, बाकी……

क्या ये विज्ञापन कुछ ऐसा कर देते हैं, जिससे जनता सत्तारूढ़ पार्टी से अभिभूत, मंत्रमुग्ध हो जाती है? या ऐसे विज्ञापनों से सच में देश की किसी समस्या का समाधान हो जाता है? मै लाख कोशिश करने के बाद भी समझ नही पा रहा हूँ. अगर आपको समझ आ रहा है तो अपने ज्ञान से मुझे भी रूबरु जरुर कराएँ.

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