एक बार फिर से कलम और बन्दूक आमने सामने है. इस बार रणभूमि बना है भारत का सबसे बीमार कहलाने वाला इलाका, बीमारू बिहार. हालाँकि उत्तरप्रदेश और बिहार के लिए ये कोई नयी बात नहीं है. कई दशकों से ऐसा चलता आया है. लेकिन इसमें नयापन इस बार इसलिए है की कई सालों कि चुप्पी तोड़ते हुए इसबार बन्दूक गरजी है. एक भोलेभाले सचदेवा की मौत का शोर अभी थमा भी नहीं था की एक पत्रकार की गोली मार कर हत्या कर दी गई. अब इसे आप जंगलराज 2.० कहिये, जंगलराज रिटर्न कहिये या फिर महा जंगलराज, इससे न सचदेवा वापस आने वाला है और न ही राजदेव रंजन. लेकिन सच्चाई तो यही है की 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में जो जंगलराज का मुद्दा उठा था, वो महज काल्पनिक नहीं था. जहाँ समाज के हर वर्ग को पता था की कहीं न कहीं वो गुजरा हुआ दौर लौट के आ सकता है तो कुछ लोग इस बात को ले कर काफी आशावान भी थे की शायद नीतिश के हाथों में कमान मिलने से उस राज़ की पुनरावृति न हो. लेकिन समय का चक्र कह लीजिये या फिर लोकतंत्र का खेल, समीकरण कुछ ऐसे घूमे की ज़मानत पर वापस आये लालू प्रसाद यादव की पार्टी ने जातीय समीकरणों पर खेलते हुए अपनी जोरदार वापसी की और जनता दल (यूनाइटेड ) से भी ज्यादा सीटें ले कर एक बार फिर से बिहार की सत्ता पर काबिज़ हो गए. ऐसे में दबंगों की वापसी होना संदेहास्पद लग सकता था जबकि नीतिश कुमार ने सत्ता की बागडोर संभाली, लेकिन बाहुबली शहाबुद्दीन को फिर से अपनी पार्टी में अहम् पद पर काबिज़ कर के लालू यादव ने फिर से जता दिया की फिलहाल उनका बाहुबलियों से रिश्ता तोड़ने का कोई इरादा नहीं है. उनका ये फैसला मज़बूरी कम और राजनीती से ज्यादा प्रेरित लगा.अब बात आ गयी है नीतिश कुमार उर्फ़ सुशासन बाबु के पाले में, जो एक तरफ तो 2019 का सपना देख रहे हैं वहीँ दूसरी और “बड़े भाई” के आगे मजबूर से लगते आ रहे हैं. जहाँ नीतिश बाबु को अपने आप को जनता के सामने साबित करते रहना है ताकि उनकी 2019 की दावेदारी बनी रहे,वहीँ अपने बड़े भाई के साये में भी रहना है ताकि बिहार में मिली गद्दी को कोई खतरा न हो. ये सारा वाकया राजनीती के दृष्टिकोण से काफी रोमांचक लग सकता है, लेकिन अगर एक आम जनता की निगाहों से देखे तो काफी मायूस कर देने वाला है. राज्य के बाहर रहने वाले बिहारी हों या फिर अन्दर रहने वाले, सबके दिल की पीड़ा सोशल मीडिया पर देखी और सुनी जा सकती है. और जो सोशल मीडिया पर नहीं है, वो भी मासूम छात्र और ईमानदार पत्रकार की मौत से कुछ कम दुखी नहीं होंगे. अब देखना ये है की बिहार को शराब के नशे से दूर करने की कोशिश करने वाली सरकार, खुद सत्ता के नशे से निकल कर दोषियों पर कार्यवाही करती है या फिर बाहुबलियों के बन्दूक के इशारे पर नाचते हुए खुद घुटने टेक देती है.