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सत्य का समय सापेक्ष अन्वेषण है ‘बोलो गंगापुत्र ‘

5 मार्च 2018

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महाभारत की पृष्ठभूमि पर कई उपन्यास और कथाएं लिखी गयी .मानवीय चरित्र की सर्वोच्चता और निम्नता का ऐसा कोई आयाम शायद ही हो जिसे महाभारत कार ने किसी न किसी चरित्र के माध्यम से अंकित न किया हो .इसीलिए कहा गया ‘..जो महाभारत में नहीं वह कहीं नहीं ‘ पाश्चात्य प्रभाव से महाभारत को महाकाव्य की श्रेणी में रखा जाता है उसमे साहित्य के तत्व खोजे जाते हैं परन्तु वह है तो धर्मग्रन्थ ही.धर्मग्रन्थ होने के चलते रचनाकार को उसे धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप गढ़ने की जो सुविधा मिल जाती है वैसी सुविधा धर्मग्रन्थ के आधार पर साहित्य –जैसे काव्य ,कहानी या उपन्यास के रचनाकार को नहीं मिल सकती .साहित्य का उद्देश्य समाज की विद्रूपताओं को रेखांकित करते हुए अंतत: सत्यं ,शिवम सुन्दरम की ओर प्रेरित करना है . ‘रेड्ग्रैब बुक्स,इलाहाबाद ‘ से प्रकाशित एक सौ बीस रूपये मूल्य के डॉ पवन विजय रचित ‘बोलो गंगा पुत्र ‘ उपन्यास को पढ़ते हुए धर्मग्रन्थ और साहित्य के अंतर को याद रखना आवश्यक है .संस्कृतनिष्ठ ,प्रवाहमयी प्रांजलभाषा और ‘गंगापुत्र के द्वंद्व ‘में सत्य और असत्य की खोज करते हुए डॉ पवन विजय का समाजशास्त्री ,दार्शनिक और अध्यापक निरंतर मुखर रहा है .कई स्थानों पर जहाँ युधिष्ठिर से प्रश्न करने वाला यक्ष मौन रह गया वहां भी डॉ पवन विजय ने गंगापुत्र को काल के प्रश्नों से जूझने को विवश किया है .


लेखक की प्रश्नों से टकराने और उनके जबाव खोज लाने की जिद ही इस उपन्यास को साहित्य बनाती है .यहीं पर लेखक अग्रज पीढ़ी के डॉ नरेंद्र कोहली से अलग हो जाता है .कोहली के समग्र साहित्य को देखे तो अंतत: धर्म के आवरण में उनकी साहित्यिकता ढक जाती है सीमित हो जाती है .डॉ पवन विजय किसी सीमा तक उस कमजोरी से बच सके हैं .परन्तु जैसा कि धर्मग्रन्थों पर आधारित कृतियों के साथ होता है मिथकीय चरित्रों और घटनाओं के माध्यम से कथा का विस्तार अंतत; जनसामान्य द्वारा कृति को साहित्य के रूप में ग्रहण करने की संभावना को संकुचित करता है .’बोलो गंगा पुत्र ‘ भी इस से अछूता नहीं रह सका है .काल के कटघरे में भीष्म को खड़ा करके लेखक ने महाभारत और उस कालखंड को देखने की जो अलग द्रष्टि प्रदान करने की कोशिश की है उस द्रष्टि में काल का बारंबार आना जाना ,क्रष्ण का अनुभूति के स्तर से उतर कर अनायास कभी भी प्रकट हो जाना और माँ गंगा का सशरीर भीष्म को बारंबार दुलार करना ‘द्वापर के महाभारत ‘में तो उचित है पर इक्कीसवी सदी के लेखक से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह ज्यादा तार्किक ढंग से ज्यादा साहित्यिक ढंग से और ज्यादा मानवीय ढंग से चरित्रों को गढ़ता .कर्म की प्रधानता को स्थापित करते हुए “------हमने सरल से सरल सत्य को अत्यंत जटिल बना दिया है ...जानने और उसे मानकर आचरण करने में एक सीमा रेखा होती है ,उसे लांघने के लिए अत्यंत सरल होना पड़ता है ...”


जैसे निष्कर्ष पर पहुँचते पहुँचते लेखक स्वयं भी कई स्थानों पर इस सरलता से भटक कर मिथकीय –चमत्कारिक घटनाओं –चरित्रों के मोह में पड़ा है .महाभारत का जो कैनवास है उसमे कोई नवीन चरित्र गढने की संभावना न्यूनतम है ऐसे में लेखक के पास चरित्रों को समकालीन संदर्भों में पुनर्व्याख्यायित करने का विकल्प ही शेष रहता है .महाभारत कार ने भीष्म के चरित्र में धीरोदात नायक के सभी गुणों का समावेश किया था .अम्बा हरण और द्रोपदी के चीर हरण के समय भीष्म का मौन जैसे इक्का दुक्का प्रसंग ही उस धीरोदात नायक की छवि को बहुत अल्पमात्रा में धुंधला करते हैं जबकि डॉ पवन विजय के गंगापुत्र प्रश्नों के तीरों से क्षत विक्षत पूरे महाभारत का कारण नज़र आते हैं .महाभारत सापेक्ष हैं .


बहुत हद उनके उत्तर भी प्रासंगिक यदि लेखक कृष्ण के चमत्कारिक दैवीय स्वरूप के बजाय मानवीय कर्म आधारित चरित्र के इर्द गिर्द ही समस्त प्रश्नों के उत्तर तलाश कर पाता तो यह स्वयं उसके लेखकीय विस्तार को असीम संभावनाओं से भर देता पर प्रश्नों से जूझते जूझते मिथकीय अवधारणाओं का अवलंबन लेखक की सीमाओं को इंगित करता है .शैली के स्तर पर नरेंद्र कोहली के साथ साथ अध युग के धर्मवीर भारती का प्रभाव के खलनायक दुर्योधन को बहुत हद तक लेखक दोषमुक्त करने में सफल हुआ है और ‘जय ही सत्य ‘है को रेखांकित करने का सफल प्रयास लेखक के द्वारा हुआ है .इसके साथ ही तात्कालिक विजय को अंतिम विजय न मानकर सत्य को अपने अपने ढंग से व्याख्यायित करने के लिए दार्शनिक आधार भी किसी हद तक उपलब्ध कराने में लेखक सफल हुआ है .’-बोलो गंगापुत्र ‘में उठाये गये प्रश्न समय भी दीखता है .उपन्यास की कथा वस्तु का नाट्य रूपान्तर और काल को सूत्रधार की भूमिका में देखा जाए तो बहुत सारे बिंव ‘अँधा युग ‘का आभास देंगे . उपयास का सबल पक्ष है उसकी रोचकता जो उसे पठनीय बनाती है .पाठक को सोचने के लिए कई सिरे देकर यह कृति साहित्य में शामिल हो गयी है .इसे धर्मग्रन्थ की परिधि से बाहर रख पाना ही डॉ पवन विजय की उपलब्धी भी है और सीमा भी .इस उपन्यास ने उनसे अपेक्षाएं बढ़ा दी हैं और संभावनाओं के नये आयाम खोले हैं .


-------------------------- अरविन्द पथिक समीक्षा -बोलो गंगापुत्र (उपन्यास ) लेखक –डॉ० पवन विजय

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