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आयशा को डर नहीं लगता -----? अरविंद पथिक

12 अगस्त 2017

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हम जहाँ रहते हैं वह 288 फ्लैट वाली छोटी सी कालोनी है जिसके सेक्रेटरी रहने का फख्र हमे भी हासिल है .हमारी कालोनी यही कोई 17-18 पहले बसी थी .यहाँ रहने वाले ज्यादातर लोग नौकरी पेशा और छोटे मोटे बिजनेस करने वाले अपनी दुनिया में व्यस्त और मस्त रहते हैं .जब कालोनी नई-नई बस रही थी तब छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए सरकारी विभागों के रोज ही चक्कर काटने पड़ते थे और हमेशा युद्ध के लिए सन्नद्ध रहना पड़ता था .इस संघर्ष ने आपसी भाईचारे को खासा मजबूत बना दिया था .जिस तरह संकट में सांप और नेवले एक ही पेड़ का आश्रय ले कर मित्रवत व्यवहार करते है, वैसे ही सरकारी विभागों की लालफीताशाही और मक्कारी का मुकाबला करने के लिए हमारी पूरी कालोनी एक सूत्र में बंधी रहती थी .उन दिनों कालोनी में क्या किरायेदार ,क्या मालिक सभी बिजली विभाग,नगर निगम और जल मल विभाग चलने की बात पर भी उतने ही उत्साह से एकत्रित हो जाते थे जितने उत्साह से खाली पड़े फ्लैट में किसी अनजान चुलबुली लड़की के आगमन की सूचना से . यह सिलसिला शुरू के तीन चार साल तक जारी रहा .जिन दिनों हम आर डब्ल्यू ए के सेक्रेटरी हुआ करते थे तब यह माहौल चरम पर था .फिर जैसे जैसे कालोनी विकसित और व्यवस्थित होती गयी कालोनी के निवासी भी धीरे धीरे व्यस्थित ,नगरीय और फिर महानगरीय होते गये .अब हमारी कालोनी महानगरीय जीवन शैली में इतनी ढल गयी है कि मुझे अपने जीने के 16 फ्लैट्स के निवासियों का तो छोडिये ग्राउंड फ्लोर के चारों फ्लैट्स निवासियों के नाम तो दूर चेहरे भी याद नहीं हैं. इतना महानगरीय हो चुकी हमारी कालोनी में इन दिनों जिन दो लोगों की बड़ी चर्चा है, संयोग से वे भी इस कालोनी में उतने ही पुराने हैं जितने हम .इनमे से एक हैं तिवारी जी और दूसरे हैं महबूब मियां .तिवारी जी का मकान कालोनी के मेन गेट के पास एकदम पहला मकान है .तिवारी जी आवास विकास परिषद के मुलाजिम हैं ,इस बात की तसदीक मकान के विस्तार के क्रम में तिवारी जी द्वारा किया गया अतिक्रमण भी करता है .दो कमरों के एल आई जी फ्लैट को चार के कमरों के एच आई जी फ्लैट में तब्दील करने के पश्चात बिलकुल मेन गेट तक कंटीली तार लगाकर की गयी बागवानी को तिवारी जी के प्रकृति प्रेम और पर्यावरण के प्रति लगाव का परिचायक ही समझा जाना चाहिए . दूसरे शख्स हैं महबूब मियां .महबूब मियां का फ्लैट मेरे फ्लैट से तीसरा है .महबूब मियां मेरा इतना ख्याल रखते है कि जब हमने तिवारी जी की दिखाई राह पर चलते हुए अपने फ्लैट का विस्तार करना चाहा तो वे मुहल्ले के तीन- चार ऐसे लोगों को लेकर जिनके नाम से ही हमे उबकाई आती है, हमारी गली की पैमाईश करने लगे कि गली में से उनकी भैंस तो आराम गुजर पायेगी या नहीं .ये दीगर बात है हमने महबूब मियाँ के साथ कभी भैस तो छोडिये बकरी या मुर्गी तक नहीं देखी थी . इस घटना से ही समझ सकते हैं कि महबूब मियां और मेरे बीच कितने मधुर रिश्ते हैं .तीन चार साल पहले की बात है महबूब मियाँ गली में खड़े मिल गये .पड़ोसी होने के नाते दुआ सलाम हुई .हमने यूँ ही पूछ लिया—“ क्या बात है –महबूब भाई ,कुछ परेशान लग रहे हो ?” मेरा सवाल सुनते ही महबूब मियां रुआंसे से बोले –“ क्या बताएं पंडितजी हमारी नौकरी चली गयी ,कंपनी बंद हो गयी .जल्दी ही कोई नौकरी नहीं मिली तो वापस गाँव जाना पड़ेगा .गाँव जाने के नाम से ही बेगम ने घर सिर पे उठा रखा है .” मैंने महबूब को दिलासा देते हुए कहा—“ चिंता न करो और नौकरी मिल जाएगी भाभी को समझाओ लाइफ में उतार चढाव लगा रहता है “.महबूब सिर हिलाते हुए चला गया . जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि हमारी कालोनी में कुल 288 फ्लैट हैं उसमें मुस्लिम परिवार मुश्किल से सात आठ होंगे .महबूब का मकान मेरे साथ वाला और दूसरा सामने तीसरी मंजिल पर शाहिद अख्तर का मकान है .पर खालिस महानगरीय जीवन में ढल चुके हम लोग किसी के भी बारे में तभी जान पाते हैं जब कोई खबर महिलाओं की किटी पार्टी से छनकर आती है, या फिर किसी के यहाँ पुलिस आती है. पर पिछले दिनों तिवारी जी और महबूब मियां चर्चा में आ गये .वैसे यह कहना गलत है चर्चा में तिवारी जी और महबूब मियां नहीं तिवारिन भाभी और महबूब मियां की बेगम आयशा भाभी आई थी . हुआ यूँ एक दिन मैं किरानास्टोर से कुछ सामान लेकर पैदल ही कालोनी में घुस रहा था कि मेरी नजर तिवारी जी के घर के दरवाज़े पर अटक गयी .दरअसल मेरी नजर उस महिला पर अटकी थी तिवारी जी के घर के गेट के बीचोंबीच ठिठकी हुयी थी .मैं दिमाग पर जोर डालकर यह याद करने की कोशिश कर ही रहा था कि आखिर इस महिला को कहाँ देखा है? इस तरह मैं अनजाने में ही उसे घूरे जा रहा था कि महिला ने –“ नमस्ते भाई साब !आजकल लता यहाँ नहीं है क्या ?”कहा तो हमारी सिट्टी पिट्टी गुम हो गयी और दिमाग में भक्क से एल ई डी रोशन हुयी कि अरे ये तो तिवारिन भाभी हैं . गजब क्या रूपांतरण हुआ था.? तिवारिन भाभी टुनटुन से टनाटन में बदली हुई थीं . मैंने जल्दी से तिवारिन भाभी से नजर हटाई और उन्हें उनके रूपांतरण पर बधाई देते हुए घर की राह पकड़ी .पर दो तीन दिन बाद मैंने अपनी गली में एक और स्लिम ट्रिम महिला को चहलकदमी करते देखा तो फिर माथा चकराया .भला हो उस समय श्रीमती जी भी मेरे साथ थी .मुझे कोहनी मारते हुए बोली—“ ऐसे क्या घूरे जा रहे हो ---आयशा है ?” “कौन आयशा ?” “अरे !वही महबूब की बीवी .” मेरे एक बार फिर लगभग बेहोश होने की बारी थी .यह वही आयशा थी जिसके लिए महबूब मियां एक दिन गली नापते हुए हमसे झगड़ा करने पर आमादा थे कि उनकी भैस कहीं फंस तो नहीं जाएगी . वह आयशा एकदम कैटरीना कैफ नजर आ रही थी .मैंने श्रीमती जी से पूछा –“ पर महबूब तो दिखाई ही नहीं देता आजकल .” “ महबूब मियां को यु ए ई गये कई महीने हो गये.वहीँ जाब मिल गयी है .आयशा ने खाली टाइम का इस्तेमाल अपनी फिटनेस और बच्चे को पढाने में किया है .” वह आयशा जिसका मजाक उसका पति तक उसे भैस कहकर उड़ाता था और जिसके झगड़ालू स्वभाव के चर्चे पूरे मुहल्ले में थे ,पूरी पूरी बदल गयी थी एक नाज़ुक मिजाज़ ,अल्हड, परन्तु शालीन महिला में .श्रीमती जी बता रही थीं कि आयशा कल हमारे घर भी आई थी और सऊदी से भेजे खजूर दे गयी थी .मेरे जेहन में बार बार एक ही सवाल घूम रहा था कि आयशा का पति अरब में है .उसने गाँव जाकर बुरका नशीं खातून बनकर रहने के बजाय यही शहर में हिन्दुओं के परिवारों के बीच अपने दस साल के बच्चे के साथ रहना स्वीकार किया .इसे उस महिला का साहस समझूं या फिर अपने समाज की जीत जिसमें रहते हुए आयशा यह कभी नही कहती कि उसे इस मुहल्ले में ,नगर में या देश में डर लगता है .

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