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रायता प्रसाद

23 जुलाई 2017

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रायता प्रसाद का असली नाम तो मंच के हास्य- व्यंग्य कवियों के असली नाम की तरह ही विस्मृत हो चुका था ,पर रायता फ़ैलाने की अपनी अकूत क्षमता के कारण वे साहित्य जगत में रायता प्रसाद के नाम से ख्याति प्राप्त कर चुके थे . रायता प्रसाद को गोस्वामी तुलसीदास जी तरह ही लोक मानस की गहरी समझ थी .वे जानते थे कि ‘ नंग बड़े परमेश्वर से’ और इसलिए वे मौका मिलते ही सार्वजनिक रूप से अपनी मानसिक और वाचिक नंगई का विज्ञापन करने से बाज़ नही आते थे . वे हर समारोह में जाकर बेझिझक रायता फैलाते थे .उनका रायता प्रसाद नाम भी जनसामान्य का ही दिया हुआ था जिसके बारे में भी एक कथा कुछ यूँ प्रचलित थी----- एक सज्जन की आदत थी कि कितना भी व्यवस्थित भोज –समारोह क्यों न होता वे रायता फैलाए बिना नहीं मानते थे .कार्यक्रम का निमन्त्रण मिलते ही वे मेजबान को ताकीद कर देते थे कि भोज में रायता जरूर बनवाया जाए .ऐसा नहीं था उन्हें रायता बहुत प्रिय था .दरअसल रायता पान करने के बजाय उसे बिखेरने और छप्प छप्प कर दूसरों के कपड़ों पर छींटे डालकर जो ‘परपीडन ‘और उत्सव ध्वंस ‘ का सुख उन्हें मिलता था उस सुख का कोई दूसरा विकल्प हो ही नही था .हमारे रायताप्रसाद भी कुछ कुछ उसी नस्ल के थे . उन्होंने पद्म श्री पाने से बहुत पहले ही रायता श्री की उपाधि प्राप्त कर ली थी. परन्तु उनका शिष्य संप्रदाय मन से उन्हें रायता प्रसाद ही मानता था, सामने भले ही साष्टांग प्रणाम करता हो .ऐसे ‘निंदा कुल शिरोमणि’ रायता प्रसाद जी पिछले कई दिनों से आशंका के महासागर में उतरा उतरा कर डूबे जा रहे थे .पेट में रह रह कर निंदा की वाताग्नि उमड घुमड़ कर निष्काशन का मार्ग तलाश कर उर्ध्वगामी हुई जा रही थी .यदि यह आम वाताग्नि होती तो किसी तरह पतनोन्मुखी होकर गुंजायमान होती और वातावरण को प्रदूषित करती हुयी अपने गन्तव्य को प्रस्थान करती परन्तु यह वाताग्नि कुछ अलग ही कोटि की थी जिससे कोटि- कोटि प्रतिभा संपन्न लेख क समय से पूर्व क्षत-विक्षत किये जा सकते थे .अपनी इस अमोघ शक्ति का प्रयोग पिछले दिनों एक अति उत्साही नवोदित साहित्यकार पर करके वे अभी तक आत्ममुग्धता के कीचड़ में वराह अवतार धर तरह- तरह से किलोलें कर रहे थे . आहा !क्या दृश्य था. रायताप्रसाद ने भाषा पर ,भाव पर और उस निरीह लेखक के ताव पर अपनी वृद्धता और वरिष्ठता की शिखंडी ओट से कस- कस कर जो प्रहार किये था उसका प्रतिकार करना तो दूर वह उत्साही नवोदित साहित्य सर्जक अपने अधरों पर सौजन्य और सौम्यता की मुस्कुराहट चिपकाये रखने को कितना विवश था ? उस नादान को मालूम ही कहाँ होगा कि लेखक समुदाय में इन तथाकथित वरिष्ठ साहित्यकार महोदय को रायता प्रसाद कहते क्यूँ हैं ? जिन्हें मालूम होगा वह बतायेंगे क्यूँ ?आखिर समकालीन साहित्यकारों में ऐसा है कौन जिसके यहाँ रायताप्रसाद ने रायता ना फैलाया हो .लेखकों का पन्थ भी नकटा पन्थ जैसा होता है .नकटा पन्थ के बारे में यदि आप नही जानते हैं तो सुनिये –-------------------------- “ पुराने समय की बात है , एक राजा के दरबार में एक साधू आया .साधू नकटा था .साधू की बदसूरती को देखकर सब हंसने लगे .साधू जोर से चीखा –“ मूर्खो तुम मेरे नकटे होने की वज़ह से हंस रहे हो पर तुम्हे शायद यह नहीं मालूम कि नाक कटने के बाद मुझे साक्षात् परमात्मा के दर्शन हो गये हैं .मैं भगवान को जब चाहे देख सकता हूँ .सिर्फ देख ही नहीं सकता दिखा भी सकता हूँ यदि कोई मेरी बताई विधि से नाक कटवा ले तो उसे भी भगवान दिखेंगे .” साधू के आत्मविश्वास, बुढ़ापे और वरिष्ठता पर सवाल उठाने का न तो किसी में साहस था और ना ही कारण. राजा ने सबसे पहले अपने कोमल कांत मंत्री की नाक काटने का आदेश दिया .नाक काटते हुए साधू मंत्री के कान में बुदबुदाया कि तुमने यदि यह कहा कि भगवान नहीं दिखे तो मैं तुम्हे भ्रष्ट और पापी बता दूंगा फिर राजा न केवल तुम्हे सजा देगा अपितु जिंदगी भर नकटा-नकटा कहकर चिढाये भी जाओगे .मंत्री की समझ में आ गया कि वह इस कुटिल रायता प्रसाद टाइप साधू के जाल में फंस चुका है अत: नाक कटते ही ‘भगवान दिखने’ की बात कहने में ही भलाई है और इस तरह एक एक राजा समेत पूरे राज दरबार की र नाक कट गयी परन्तु किसी ने किसी को नहीं बताया की कोई भगवान नहीं दिखा . नकटा पन्थ के आविर्भाव की यह कथा ही रायता प्रसाद को निरंतर रायता फैलाते रहने का आत्मबल प्रदान करती थी .परन्तु जब पिछले समारोह में सप्ताह भर से ज्यादा रायता फैलाये हो गया तो ‘रायता ” फ़ैलाने के एडिक्ट हो चुके रायता प्रसाद की बेचैनी हद से ज्यादा बढ़ गयी और आखिरकार न चाहते हुए भी उन्होंने अपने उस पुराने शिष्य को फोन लगा ही दिया .–रिसीवर से –हेल्लो की आवाज़ आते ही रायताप्रसाद ने अपने पुरातन शिष्य से प्रश्न किया --- “ इतना सन्नाटा क्यों है वत्स ?” पुरातन शिष्य के मुख से करुण कराह सी निकली---“ गुरुदेव ! आपके फैलाये रायते को अभी समेट ही कहाँ पाया हूँ, जो आपके लिए किसी नये भोज का जुगाड़ कर सकूँ. रायता फ़ैलाने की आपकी इस हुडक दूर करने के चक्कर में मैं ही नयी पुरानी सारी पीढ़ियों से अलग हो गया हूँ .” रायता प्रसाद रोषपूर्ण प्रेम से बोले –“ बेटा मेरे इतने थपेड़ने के बाद भी तुम रहे कोमल कान्त ही, तुमने अगर मेरे पट्ट शिष्य से कुछ सीखा होता तो तुम भी मेन स्ट्रीम में होते .अब अपने उस गुरुभाई को देखो तो उसके पास लेखकों के अलावा सब पर लुटाने के लिए प्रेम ही प्रेम है . तभी उसकी प्रेम यात्रा यें और विदेश यात्रायें सब निरंतर जारी हैं. दूसरी तरफ तू है जो आज भी प्रथम वर्ष के छात्र की तरह कोमल कान्त ही है .अब जब तू भी चौथे पन में प्रवेश कर गया है तो मुझसे कुछ और नहीं तो कम से कम रायता फैलाने की कला ही सीख ले बेटा!. गुरु जी की रायता सिक्त वाणी से भीतर तक भीग गये पुरातन ने शिष्य ने कातर स्वर में कहा—----- “ गुरुदेव युग बदल गया है, रायता फैलाना अब पहले की तरह खतरे से खाली नहीं रहा .मुझे तो यूँ भी न तो कोई बुलाता है और न ही मैं कहीं जाता हूँ .आपकी तरह रायता फ़ैलाने की सोचा भी तो लोग वराह की तरह दौड़ा-दौड़ा कर मारेंगे कम घसीटेंगे ज्यादा .मेरी तो आपको बिन मांगी सलाह है कि अब आप भी जरा संभल कर रहिये क्योंकि ये जो नई पीढ़ी है ना वरिष्ठता को गरिष्ठता ही समझती है, कही अकेले में उस नवोदित साहित्यकार के हत्थे चढ़ गये तो आपको साहित्य का ईमानदार जी समझ करे सुताई ही ना कर दे .” पुरातन छात्र के प्रवचन को सुनकर रायता प्रसाद जी ने एक झटके में काल डिस्कनेक्ट कर मोबाईल कुछ इस अंदाज़ से पटका जैसे किसी ने कानों में पिघला हुआ सीसा उड़ेल दिया हो .रायते की हुडक को भुलाने के लिए सावन के महीने में उपवास की घोषणा कर रायता प्रसाद घुस गये पूजा घर में .

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