लोकप्रियता और शास्त्रीयता के बीच दोलन करता साहित्य
जबसे साहित्य की थोड़ी सी समझ हुयी है एक प्रश्न निरंतर परेशान करता रहा है कि क्या लोकप्रिय साहित्य साहित्य नही है ?क्या कोई भी लेखन जिससे आम जन जुड़ाव महसूस न करता हो वही साहित्य है ?आखिर अच्छी रचना की कसौटी क्या है ?भाषा के स्तर पर सम्प्रेषणीयता महत्वपूर्ण है या विशुद्धता .इन सभी प्रश्नों से चाहे अनचाहे टकराना पड़ता ही है .
अभी ११ जून को मेरे व्यंग्य संग्रह के लोकार्पण के अवसर पर प्रकारान्तर से ये प्रश्न उठे पर जैसा कि संगोष्ठियों में होता है कि वहां उठाये जाने वाले प्रश्न उत्तर को तलाश में भटकते रह जाते हैं और वक्ता भी कई बार अपने हिडेन एजेंडा के तहत बोलकर निकल जाता है जैसे डॉ० हरि जोशी ने बड़े लेखक बनने के लिए पिटना जरूरी बताते हुए परसाई और स्वयं खुद हरि जोशी के पिटने का उदाहरण बताया .उनका आशय सम्भवत: यह था कि लेखक में अपने मूल्यों और लेखन के लिए जोखिम उठाने का साहस होना चाहिए .उनकी इस बात को लगभग नकारते हुए अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ नरेंद्र कोहली ने पहले तो दिल्ली के लेखकों के न पिटने की बात की तो उसका अर्थ यह भी हो सकता है कि दिल्ली के लेखकों में वह आवश्यक साहस नहीं है जो अपने लेखन के लिए समाज और सत्ता से टकरा सके और दूसरी बात जिसकी पुष्टि वरिष्ठ लेखक ही कर सकते हैं कि परसाई पिटे नही थे बल्कि प्रचारित किये गये थे .इस बात की पुष्टि के लिए मैंने दिल्ली के वरिष्ठ लेखकों से बात की तो उनमे से एक ने तो यह भी
कहा कि पिटे तो हरि जोशी भी नहीं थे .अब इन सब बयानबाजियों के बीच यह विचार जरूर आता है कि संगोष्ठियों में बड़े लेखक किसी स्वस्थ परिचर्चा के लिए जाते हैं या कार्यक्रम और साहित्य को पीटने के लिए ? खैर इसका जो भी उत्तर पुरानी पीढ़ी देना चाहे दे और मौन रहना चाहे तो रहे .
मैं वापस पहले प्रश्न पर आता हूँ लोकप्रियता पर .मुझे लगता है कि साहित्य का सीधा सरोकार लोक से है और जो साहित्य लोक से कट जाये वह क्या कालजयी हो सकता है उदाहरन के लिए कविता की बात की जाए की यदि सूर और तुलसी लोक मानस में न बसे होते तो क्या सर्वकालिक महान होते .स्वयं हमारे समय के बड़े लेखक डॉ नरेंद्र कोहली लोकप्रिय न होते तो क्या होते ?हिंदी कविता की वाचिक परम्परा से वैर रखने वाले कविता के सतही हो जानने से वैर रख सकते हैं और वह जायज भी है पर यदि कोइ कवि विशाल जनसमुदाय के प्रश्नों को सम्बोधित कर रहा हो तो वह कवि नहीं उदाहरण के
लिए डॉ हरिओम पवार .मुझे नही पता हिंदी साहित्य में लोकप्रियता के प्रति इतना हीनता का भाव क्यों
?यह प्रश्न राजशेखर व्यास ने भी मेरे गीत संग्रह ‘बस थोडा आशीष चाहिए ‘ के लोकार्पण के अवसर पर उठाया था.मेरे व्यंग्य संग्रह के सन्दर्भ में टिप्पणी करते हुए डॉ सुरेश कान्त ने हास्य –व्यंग्य को लेकर अपनी टिप्पणी में लिखा जिसका आशय भी यही है कि एक वर्ग हास्य को व्यंग्य में बिलकुल भी तैयार नही .शायद हास्य का संबंध लोकप्रियता से और व्यंग्य का संबंध गम्भीर लेखन से मानते हुए लोकप्रियता को हेय समझने वाला वर्ग व्यंग्य में हास्य को वर्जित मानता हो .मैं क्या मानता हूँ मैं ‘मेरी समझ में व्यंग्य में स्पष्ट कर चूका हूँ .लोकप्रियता का मतलब स्तरहीन हो जाना मानने के लिए मैं तैयार नही हूँ इसका प्रति प्रश्न यह भी हो सकता है कि क्या गम्भीर ,ऊबाऊ जनसामान्य से कटा लेखन श्रेष्ठ साहित्य होता है .मैं इसे भी नहीं मानता .मुझे लगता है कि मध्यम मार्ग ही उचित है संतुलित लेखन जिसका सम्प्रेष्ण हो सके ,जो समकालीन व्यवस्था पर प्रश्न तो उठाये ही जिस वर्ग के हित में प्रश्न उठाये जा रहे हैं उन्हें भी पता चल सके कि लेखक उनकी बात कर रहा है .अभी हो यह रहा है कि जिस वर्ग के लिए लिखे जाने का दावा किया जा रहा है वह वर्ग जानता ही नही कि इस महान लेखक ने उसके लिए हंसना मुस्कुराना ,ताली बजाना तक छोड़ रखा है .बेचारा लेखक तो ‘बुनियाद की नीव का पत्थर ‘ बना हुआ है और अहसानफरामोश जनता को उसके बारे में जानने की फुर्सत तक नही .
मैंने बहुत वर्ष पहले जब राजधानी में दस्तक दी ही थी लोकप्रिय कवि अल्हड बीकानेरी से यह प्रश्न
किया था कि मंच का कवि जो हजारों श्रोताओं को आनन्दित करता है उसकी बमुश्किल कोइ रचना किसी गली मुहल्ले तक की पत्रिका में दिखाई देती है क्यों ?उन्होंने बड़ी साफगोई से जबाव दिया था कि इसका मुझे तो एक ही कारण समझ में आता है कि मंच के कवि को मिलने वाले लिफाफे का साइज़ और श्रोताओं की तालियाँ जो नशा कवि को प्रदान करती हैं उसके चलते मंच के कवि गम्भीर लेखन की उर उद्यत नही होते दूसरी ओर पत्रिका वाले कवि इस लिफ़ाफ़े और तालियों की वज़ह से कुंठित होकर लोकप्रिय कवि –लेखक को छापने को तैयार नही .
यह एक पक्ष हो सकता है लोकप्रियता और शास्त्रीयता के संघर्ष का पर इस पर और गम्भीर विमर्श की आवश्यकता है .अब आते हैं भाषा पर खड़ी बोली हिंदी के उद्भव के साथ ही भाषा का प्रश्न विवाद में है .हिन्दुस्तानी से लेकर हिंगलिश तक का सफर तय करती हुयी हिंदी एस एम एस वाली भाषा तक का सफर तय कर चुकी है इसके बावजूद आज भी कुछ लेखक भाषा को संस्कृत निष्ठ रखने के पक्षधर हैं .११ जून को डॉ नरेंद्र कोहली ने इस पर सर्वाधिक बल दिया .मेरा इस सन्दर्भ में मानना है कि भाषा विषयानुरूप होनी चाहिए अब यदि मैं ‘लव और जिहाद ‘पर एक आलेख लिखता हूँ तो स्पष्ट है कि मेरी भाषा में अंग्रेजी ,फारसी और उर्दू के शब्द आयेंगे ही .भाषा की लयात्मकता और विषयानुरुपता के बिना सम्प्रेषनीयता सम्भव नही और मेरे लिए लेखन में सर्वाधिक आवश्यक तत्व है अब कोई इसे मेरी कमजोरी माने तो माने . इनकी का तत्व आवश्यक है .
थोड़ी सी बात शास्त्रीयता की भी कर ली जाए तो मुझे लगता है कि सबसे पहले जरूर है लेखन और उसके बाद आते हैं उसके मानक .सब कुछ साहित्य नही होता पर बहुत कुछ लिखा जाता है तब किसी रचना के साहित्यिक होने की या किसी द्वारा साहित्यक रचना लिखे जाने की संभावना बनती है .फिर किसी आलोचक द्वारा किसी रचना को श्रेष्ट रचना करार देने के पीछे सदैव साहित्यिक कारण ही होते हैं क्या ?आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मानकों पर ही कबीर को कसते रहते तो कबीर क्या ‘कबीर ‘ हो पाते .पर हर कबीर को हजारी प्रसाद द्विवेदी मिल जाए इतना भाग्य शाली हर रचनाकार नही होता .मैंने ‘नामवरों ‘ को चार घूँट लगाकर लेखकों को अर्श से फर्श और फर्श से अर्श पर पहुंचाते देखा है .ऐसे में किसी रचना में शास्त्रीयता का तत्व तलाशेगा कौन .विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठकर चरवाहा न्यायाधीश बन सकता है पर आज के कुटिल चपल आचार्य विक्रमादित्य के सिंहासन को यम का सिंहासन समझते हैं इनका न्याय कौन क़रेगा ?
मित्रो अभी इस विषय पर मैं और लिख सकता हूँ और लिखूंगा भी पर फेस बुक से लेकर पुस्तक और परिचर्चा तक में ‘इग्नोर’ कर देने की परम्परा है जिसका अभी ११ जून वाले कार्यक्रम के सन्दर्भ में ढली गयी पोस्ट पर मैं देख =चुका हूँ .वहा ऐसे महान लोग थे जिन्होंने लेखक और रचना पर एक लाइक या दो शब्द की टिप्पणी तक खर्च करना उचित नहीं समझा पर अपनी पसंद के लेखक को हजार शुभकामनाओं से नवाजते रहे .लेखक के लिए दो शब्द लिख देते तो लेखक को कही पहचान मिल जाती ऐसे कुंठित और आत्म्मुग्धों की मैंने न पहले परवाह की न अब करूंगा क्योंकि मैं आप लोगों से प्रमाणपत्र नही मांग रहा मुझे अपने होने का अर्थ पता है –मैं आपको आमंत्रित करता हूँ कि आप यदि स्वयं को लेखक मानते हैं तो जूझे इन प्रश्नों से ,मंथन करे अमृत निकले तो ग्रहण करे हलाहल को मैं प्रस्तुत हूँ आखिर ‘मैं अंगार लिखता हूँ ‘और ‘अनुभुतियों के अक्षांश ‘का सर्जक हूँ .मुझ में ‘क्रांति के बिस्मिल चरित ‘ को रचने और सराहने का क्षमता है .मैं गर्दभ की तरह तप कर इंद्र का सिंहासन हिलाने की कूवत रखता ‘.मैं साहित्य में ‘बस थोडा आशीष चाहिए ‘की भावभूमि से उपस्थित हुआ हूँ पर ‘क्यों लिखूं मैं ?”कहने का वीटो मैंने अपने ही पास रखा है .