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वो आखिरी लोकल ट्रैन - भाग 2

24 अगस्त 2017

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पिछले भाग में एक साधारण सा व्यक्ति नरेंद्र अपने घर जाने के लिए ट्रैन पकड़ता है लेकिन जब वो उठता है तब वह अतीत के नरसंहार को सामने पाता है जो अंग्रेज कर रहे थे| वो चार अंग्रेजों को मार कर नरसंहार को रोक देता है लेकिन बेहोश होते-होते बागियों के हाथ लग जाता है -


//// कहानी अब आगे /////


“कौन है ये?....”

“पता नहीं चाचाजी …… पर…”

“नंदिनी, तुम्हें इसे यहाँ नहीं लाना चाहिये था”

“पर क्यों चाचाजी? …….”

“तुम अभी बच्ची हो, …… यह उनका खबरी भी हो सकता है, …..”

“खबरी कभी अपनी जान खतरे में डालकर आवाम की जान नहीं बचाते हैं”

“क्या मतलब है तुम्हारा नंदिनी?”

“इन्होंने उन चारों भारी हथियारों से लैस गोरों को अकेले ही मार दिया ……. वो भी निहत्थे….”

“इसीलिए तो कह रहा हुँ कि ये दुश्मन का जासूस भी हो सकता है ……..”

“पर चाचाजी, इन्होंने सिर्फ़ हमारी ही नहीं बल्कि उन बेगुनाह लोगों की जान भी बचाई है जिनको हम भी नहीं रोक पा रहे थे ………”


“नंदिनी, …. दिमाग से काम लो, इस अकेले ने उन चारों को बिना हथियारों के कैसे मार दिया? ……. सोचों .…… हमारे दो बहादुर शहीद हो गए उन्हें रोकने में जिनके पास बंदूखें थी …….. यह उनकी चाल है हमारे ठ्काने के बारे में पता लगाने की”। “इसके कपड़े देखो, एैसे कपड़े शायद इंग्लैंड में पहने जाते हैं, ……. इसकी मतलब या तो ये बहुत रईस घर का लड़का है जो भारतीय होकर भी अंग्रेजी रंग में रंगा है या फिर इसका इंग्लैंड से संपर्क है और ये गोरों का जासूस है”।


नंदिनी चुप थी, सज्जन सिंह की बातों का कोई जवाब नहीं था किसी के पास। मैं होश में आ चुका था पर मैंने आँखें नहीं खोली थी, मैं इनकी सारी बात सुन रहा था।


“पर चाचाजी……ये मर जाए….” नंदिनी कुछ कह पाती इससे पहले उसने टोका “गदाधर सिंह की गद्दारी के बाद हमारा संगठन वैसे ही कमजोर हो गया है, ….. हमारे आधे से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और मैं नहीं चाहता कि बाकी सब भी मारे जाएँ।”


नंदिनी की सिसकियाँ मैं साफ़ सुन सकता था और ना जाने क्यों उसका रोना मुझे बेचैन कर रहा था। सज्जन सिंह ने जब गदाधर सिंह कहा तो जैसे मेरी आत्मा पर आघात हुआ। पर एैसा क्यों हो रहा है जबकी मैंने ये नाम पहले कहीं नहीं सुना?


एक बार फिर सज्जन सिंह की बुलंद आवाज़ गूँजी “इसके होश में आने से पहले इसे कहीं छोड़ आओ! ……”


ये लोग कौन थे ये मुझे नहीं पता पर मेरा होश में आना खतरनाक हो सकता था, इसलिए मैंने बेहोश रहना ही ठीक समझा। थोड़ी ही देर में उन नकाबपोशों ने मुझे गन्ने के खेत में डाल दिया और एक पोटली मेरे पास फेंक कर चले गए।


पिछले दो घंटो से मैं चल रहा था पर आस-पास कहीं कोई बस्ती नहीं नज़र आ रही थी। कड़ी धूप में चलते-चलते मैं थक गया था, प्यास से मेरा गला सूख रहा था और भूख भी लग रही थी। मैं पास ही में एक पेड़ के नीचे आकर बैठ गया। चिलचिलाती गर्मी ने मेरी हालत खराब कर दी थी, कल तक कड़कड़ाती ठंड थी पर आज का दिन तो जैसे गर्मी के सारे रिकार्ड तोड़ने पर तुला हुआ था। भूख के मारे पेट के चूहे भी अब मुझसे शिकायत कर रहे थे कि तभी एक आम ठीक मेरे सामने गिरा। मैं थोड़ी देर तक उसे देखता रहा फिर मैंने लपक कर आम उठा लिया, ऊपर देखा तो पेड़ में जहाँ देखो बस आम ही दिख रहे थे। मैंने एक भारी पत्थर उठाकर निशाना लगाया, पत्थर निशाने पर लगा या नहीं यह तो पता नहीं पर मानो पेड़ इसी बात का इंतज़ार कर रहा था। मेरे एक पत्थर का जवाब पेड़ ने पूरी गोलाबारी से दिया और चारों तरफ़ आम की बारिश हो रही थी। वो पल मेरे लिये बड़े ही भले थे, मेरा पेट और मन दोनों भर गए थे, मैं उसी पेड़ की छाँव में लेट गया और बैरन नींद ने कब मुझपर हमला किया पता ही नहीं चला।


रात के ग्यारह बजे घने जंगल में सिर्फ़ अँधेरे का साम्राज्य था। सियारों के रोने की आवाज़ें बड़ी ही भयावह प्रतीत हो रही थी, दिन जितना झुलसा देने वाला था, रात उतनी ही जमा देने वाली थी। टर्र-टर्र करते मेंढको और झींगुरों के बीच जबरदस्त प्रतियोगिता हो रही थी कि कौन सबसे अच्छा गाता है, साहबजादे तानसेन को पीछे छोड़ने का मन बना चुके थे।


इस सुनसान जंगल में एक साया बड़ी तेज़ी से भागा जा रहा था और उसके पीछे भौंकते हुए कुत्तों की आवाज़ें नज़दीक आ रही थी। उसकी देह पसीने से लथपथ थी, दाएँ हाथ और पैर से खून रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था, शायद गोली लगी थी उसे। वह ज्यादा देर तक नहीं भाग सकेगा, ज्यादा खून बह जाने से उसे कमजोरी भी हो रही थी। थोड़ी ही देर में कुत्ते उसकी गंध सूँघते हुए उसे ढूँढ लेंगे और उनके पीछे आते वो पचास हथियारों से लैस लोग जो शायद इसी साए को मारने की कसम खा चुके थे। कुत्तों से बचना बहुत जरूरी है पर कैसे? ….. अचानक उसे कुछ सूझा, वो दाँए मुड़ा गोल घूमकर बाँए मुड़ा और यही क्रिया उसने चार बार दोहराई, कुत्ते एकदम पास आ गए थे। वो चार अल्सेशियन किस्मत के खोज़ी कुत्ते थे जो दस किलोमीटर दूर से ही किसी की भी गंध सूँघकर उसका पीछा कर सकते थे, इनसे बचना असंभव था। आखिरकार अपनी शिकार पाते ही चारों कुत्ते एकसाथ कूदे और चारों तरफ़ देखकर भौंकने लगे। आश्चर्य की बात तो ये थी कि लाख कोशिश करने बाद भी कुत्ते आगे बढ़ ही नहीं रहे थे। पहली बार उनके शिकार ने उनको चकमा दे दिया।


पता नहीं वो साया कितनी देर से भाग रहा था, पुलिस के कुत्तों को धोखा देना आसान नहीं था। ये कहना मुश्किल था कि वो साया और उसके विचारों में से कौन ज्यादा तेज़ भाग रहा था। उसके मस्तिष्क में बीती रात की यादों का बवंडर उठ रहा था। रात आमतौर पर शांत रहती है पर उस रात चारों तरफ़ चीख-पुकार मची हुई थी, हर तरफ़ आतंक मचा हुआ था, आग सभी घरों में ध-धू कर जल रही थी। हर तरफ़ लाशे ही लाशे थी, सब की आँखों में था किसी का इंतज़ार जो शायद उन्हें बचा सकता था पर वो समय पर नहीं पहुँच सका। उस साये ने बाँए देखा, दो महीने का एक बच्चा जिसने दुनियाँ को देखना शुरू ही किया था कि उसकी मौत ने उसे जकड़ लिया। गोली ने बच्चे के सीने में इतना बड़ा सुराख कर दिया जिसे उसकी मौत भी ना भर पाई। उन दरिंदों ने इस मासूम बच्चे को भी नहीं छोड़ा, क्या बिगाड़ा था इसने उनका? उसकी खुली आँखों में ढेर सारे सवाल थे जिसका जवाब उस साये के पास नहीं था। ना जाने कितनी देर तक वो साया उस बच्चे को सीने से लगाकर रोका रहा, उसके आँसुओं की हर बूँद के साथ उसकी अच्छाई, दया, करुणा सब बह गई, अब बचा था तो सिर्फ़ इंतकाम।


वो वहीं बैठा रहता पर एक आवाज़ ने उसका ध्यान खींचा, वो दरिंदे वापस आ रहे थे अपना अधूरा काम पूरा करने। उस बस्ती का एक सदस्य जिंदा था जिसे मारने के लिये ५० हथियारबंद पुलिसकर्मी आ रहे थे। वो बचकर ना जा पाए इसलिए अपने साथ चार शिकारी कुत्ते भी लाए थे। उसके जीने की कोई वज़ह नहीं थी पर मरने का मकसद जरूर था और उसे पूरा किये बिना मौत को भी आने की इज़ाजत नहीं थी।


वह साया जंगल से काफ़ी दूर निकल आया, पुलिस अब उसे नहीं ढूँढ सकती थी। धुलिया गाँव पास में ही था जहाँ कोई था जो शायद उसकी मदद कर सकता था। रमन सिंह लखनऊ के बहुत ही प्रसिद्ध बैरिस्टर थे, वो जिसका केस हाथ में लेते वो पहले ही जीत गया समझो। उनकी ख्याति की वजह से कई अंग्रेज अफसर भी उनसे डरते थे, वहाँ के तात्कालीन गवर्नर थॉमस क्रिस्टोफर के साथ रमन सिंह का उठना-बैठना था। उनकी बेटी नंदिनी ने पिछले साल ही बैरिस्टरी का इम्तेहान पास किया था, रूप एैसा कि चाँद भी शरमा जाए और दिमाग चले तो विरोधी चारों खाने चित्त। इतिहास और राजनीति में गहरी रूची ने अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं की गहरी समझ विकसित कर दी, फ़्रांस की क्रांति और अमेरिकन इंडिपेंडेंस ने नंदिनी के मन में राष्ट्रवाद की ज्योत जला दी थी।


दरवाजे पर बड़ी सी नेमप्लेट में नाम लिखा था 'रमन सिंह ठाकुर, बैरिस्टर हाईकोर्ट, एल एल ही, एम ए, डॉक्टरेट ब्रिटिश लॉ एण्ड कॉन्स्टिट्यूशन’।


“गदाधर? तुम …… तुम यहाँ कैसे?” रमन सिंह की आँखे हैरानी से फ़टी जा रही थी।

“सिंह जी! ...……” इससे पहले वो अपनी बात पूरी कह पाता, वा साया वहीं निढाल होकर लुढक गया, उसके होश ने भी उसका साथ छोड़ दिया।


रात के बारह बज रहे थे, दिसम्बर की सर्द रात में बाहर सियार और कुत्तों के बीच तानसेन बनने की जंग छिड़ी हुई थी। बिस्तर के बगल में रखा टेबल लैम्प भी जल-बुझ रहा था, सामने खुली खिड़की से आती जोरदार हवा ने पूरे कमरे में धुंध फैला दी जिससे बेचैन होकर दीवार पर चिपकी छिपकली छत पर और ऊँचा चढ़ती जा रही थी। थोड़ी देर में छिपकली को अपनी गलती का अहसास हुआ, जोश-जोश में वो छत पर सबसे ऊपर चढ़ गई और अब घबराहट में छत पर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रही थी। गदाधर सिंह के ऊपर एक छोटी सी संकट मँडरा रहा था, आखिरकार छिपकली की पकड़ ढीली हुई और वो गिरी और उसका निशाना था नीचे लेटा वो शख्स। इससे पहले वो छिपकली उसके ऊपर गिरती एक हाथ हवा में लहराया और छिपकली को पकड़कर बगल में फेंक दिया, पिछले दो घंटों से बेहोश पड़े उस साये में जान आई रही थी।


गदाधर सिंह ने आँखें खोली “सिंह जी?.....” उसकी आवाज़ का कोई जवाब नहीं आया, शायद रमन सिंह सो गए हैं एैसा सोचकर वह उठा और कमरे से बाहर आया, प्यास से गला सूख रहा था इसलिए वह रसोईघर में गया। पानी पीने के बाद वह वापस मुड़ा तो सामने का मंज़र देखकर उसकी आँखें फ़टी की फ़टी रह गई। सामने वही पचास बंदूकधारी अपनी बंदूखें उस पर लाने हुए थे, गदाधर को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। इतनी दूर से इनको चकमा देने के बाद भी उन्होंने उसे ढूँढ कैसे लिया। गदाधर की मदद करने की एवज़ में ये लोग रमन सिंह को भी मार डालेंगे क्योंकि ये अंग्रेजों की सबसे खूँखार खूफ़िया पुलिस है जो इंग्लैंड में भी काफ़ी कुख्यात थी। इनपर रानी विक्टोरिया का हुक्म भी नहीं चलता है, ही हस्तियों, विरोधी रानेताओं को कत्ल करने के लिये इन्हें बड़ी कीमत दी जाती थी। लोग इन्हें 'डेथ हंटर’ के नाम से जानते थे।


गदाधर सिंह को ये कभी समझ नहीं आया कि ये लोग उसे क्यों मारना चाहते हैं। अचानक रमन सिंह दिखे तो गदाधर चीख उठा “सिंह जी!..... यहाँ से भाग जाइए, …. ये लोग बहुत ही खतरनाक हैं और ये आपको भी मार डालेंगे!”

रमन सिंह नहीं भागे बल्कि उन कातिलो के बीच से निकलकर गदाधर के सामने आकर खड़े हो गए। उन हंटर्स ने रमन सिंह को कुछ नहीं किया, रमन सिंह के चेहरे पर धूर्त मुस्कान देख गदाधर सब समझ गया।


“सिंह जी! आप?....” गदाधर की आँखों में दर्द साफ़ झलक रहा था।

“हाँ मैं! ……. मैंने इन्हें बुलाया है ताकि तुझे मार कर मेरे रास्ते का सबसे बड़ा काँटा हटाया जा सके।

“पर क्यों?...” गदाधर ने पूछा।

“क्योंकि मैं तुझसे नफ़रत करता हुँ, लेकिन मेरी बेटी तेरे प्यार में अंधा हो गई है, वो तुम चंद क्रातिकारियों का साथ दे रही है दिन से मैं नफ़रत करता हुँ” रमन सिंह ने सिगार सुलगाया और फिर बोले “क्या समझते हो तुम लोग? चंद क्रांतिकारी पूरी गोरों की सेना से जीत सकते हो? कुत्ते की मौत मरोगे सब और तेरे प्यार में मेरी बेटी की जान भी खतरे में पड़ गई है, …..…”।


रमन सिंह ने बगल में खड़े हंटर से बंदूक ली और गदाधर के सीने से लगाकर बोला “तुझे मरना होगा”।


गदाधर ने बंदूक को देखा फिर रमन सिंह की तरफ़ देखकर बोला “सिंह जी, एक क्रांतिकारी मरने से नहीं डरता, वो अपने सिर पर कफ़न बाँधकर चलता है, रही बात आपकी बेटी की तो आपने एक बार मुझसे कहा तो होता, मैं खुद आपकी बेटी से दूर चला जाता”।


“तुम लोग पागल हो! तुम लोग अंग्रेजो की सेना से कभी नहीं जीत सकते!” रमन सिंह गुस्से से तमतमाते हुए बोला।


“ये तो वक्त बताएगा सिंह जी! तुम मुझे मार कर भी नहीं मार पाओगे, नंदिनी के दिल से तुम मुझे कभी नहीं निकाल पाओगे!” गदाधर की आँखों में आँसु थे।


“नंदिनी तुझे कभी भुला नहीं पाएगी, वो तुझे याद तो करेगी लेकिन एक गद्दार के रूप में। ……… तेरी लाश किसी को नहीं मिलेगी और मैं उसे बताऊँगा कि तू अपनी जान बचाकर विदेश भाग गया” रमन सिंह की अंगुलियाँ ट्रिगर पर दबने लगीं, “आज के बाद लोग तुझे याद करेंगे एक गद्दार के रूप में और नंदिनी की नफ़रत तुझे मरने के बाद भी तड़पाएगी”।


रमन सिंह ने ट्रिगर दबा दिया “धाँ!! ……….य!!....”।


कैसा अजीब सपना था ये? मेरी आँखे खुल चुकी थी। “नंदिनी! ….” ये उसके अंतिम शब्द थे।


दोपहर के दे बज रहेे थे और मेरे ज़ेहन में बस एक ही नाम गूँज रहा था “नंदिनी…”। दोपहर की धूप मुझे ज़ला रही थी, मैं उठा और चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई, हर तरफ़ शांती थी। कौन सी जगह है यह? मैं अब कहाँ जाऊँ? सब इतनी ज़ल्दी घटित हुआ कि कुछ सोचने का मौका ही नहीं मिला। मैं तो ट्रेन से पनवेल जा रहा था फिर यहाँ कैसे आ गया? वो लोग कौन थे जो मुझे गन्ने के खेत में छोड़कर चले गए? ……. और वो …. वो नकाबपोश लड़की कौन थी?


जवाब कम और सवाल ज्यादा थे, फिलहाल मेरे लिये यहाँ से निकलना ज्यादा जरूरी था। मैं पश्चिम दिशा की तरफ़ चल पड़ा, अचानक मेरा हाथ मेरी जेब में गया “सत्यानाश!.... मेरा …… मेरा फ़ोन!”। थोड़ी देर में याद आया कि फ़ोन तो वहीं रह गया जहाँ वो नकाबपोश मुझे ले गए थे। वापस जाऊँ या ना जाऊँ? जाने पर जान का खतरा जरूर था पर मन इतना मँहगा फ़ोन इतनी आसानी से छोड़ने को तैयार भी नहीं था। मेरे कदम अनायास ही उस तरफ़ बढ़ चले।


लगभग एक घंटे में मैं वहीं था जहाँ से मैं बचकर भाग रहा था। किसी ने सही कहा है, हम परिस्थितियों से भाग नहीं सकते हैं क्योंकि भागकर हम स्वयं को धोखा देते हैं। मैंने सोचा था कि चोरी छुपे मैं वहाँ जाऊँगा और मौका देखकर मेरा फ़ोन चुरा लूँगा। किस्मत ने मुझे मेरे ही फ़ोन का चोर बना दिया।


मैं नकाबपोशों के ठिकाने से सौ मीटर की दूरी पर था और अब मुझे चारों तरफ़ फ़ैले धुँए की वजह पता चली। नकाबपोशों के ठिकाने पर आग लगी हुई थी उनका ठिकाना पूरा ध्वस्त हो गया। मैं कुछ देर के लिये ठिठक गया लेकिन फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ा। अंदर हर तरफ़ आग लगी हुई थी जो बुझने के कगार पर थी, फ़र्श पर सैकड़ों चलाए हुए कारतूस और गोलियाँ बिखरी हुई थी।


दीवारों पर पड़े गोलियों के गड्ढे यहाँ की खूनी दास्तान बयाँ कर रहे थे। दूसरे कमरे में गया तो वहाँ का खूनी मंज़र देखकर मुझे ऊबकाई आ गई, कमरे में तीन लाशें थी जिनके बदन पर ना जाने कितनी गोलियाँ थी। खून नीचे बहकर सूख गया था। मैं तुरंत ही उस कमरे से निकलकर दूसरे कमरे में गया तो वहाँ दो लाशें और थी जिनके सिर गायब थे।


मेरा सिर घूमने लगा और मैं वापस जाने के लिये मुड़ा तो मौत मेरे सामने ही खड़ी थी। वह बूढ़ा जरूर था पर जिस तरह से उसनें बंदूक पकड़ी थी उससे मुझे कोई शक नहीं था कि उसका निशाना चूक सकता था।


“कौन हो तुम??......”


मेरे गले में तो जैसे आवाज़ अटक गई थी।

“मैंने पूछा कौन हो तुम?..” वह गरज़ कर बोला।

“मुसाफ़िर हुँ बाबा, भटक गया हुँ।” मेरी बातों पर उसे यकीन नहीं था, वह मेरे पास आया, बंदूक मेरे सीने से सटाते हुए बोला “तो तुझे तेरी मौत का भी खौफ़ नहीं जो झूठ बोलने की हिम्मत कर रहा है, ठीक है अब तेरी आत्मा भटकेगी यहाँ” यह कहकर उसके हाथ ट्रिगर पर कस गए। मुझे लगा कि अब तो मेरा अंत हो ही जाएगा पर फिर भी मैं डरने कि बजाए बूढ़े की आँखों में देख रहा था। बूढ़ा ट्रिगर दबाने ही वाला था कि तभी उसकी नज़र मेरी कमर में बँधी पोटली पर गई और उसने लपक कर पोटली मेरी कमर से निकाल ली।


“यह पोटली तुम्हारे पास कैसे आई?.... जवाब दो!!!!” बूढ़ा पोटली को खोलकर सुपारी, सरौती और नमक को एैसे देख रहा था कि जैसे वह उस पोटली को बहुत अच्छे से पहचानता था।


“पता नहीं, मैं स्टेशन से गाड़ी पकड़ रहा था तभी एक पागल बूढ़े ने यह पोटली मेरी तरफ़ फेंक दी, तभी से यह मेरे पास है। तुम चाहो तो ये पोटली रखलो पर मुझे जाने दो” मैंने संभलते हुए कहा।


“कुछ कहा था उस बूढ़े ने?..” बंदूक मेरे सीने से हटाते हुए वह बोला। “कुछ खास नहीं, ……. कह रहा था किसी सज्जन सिंह को दे देना”। सज्जन सिंह, पता नहीं इस शब्द में एैसा क्या था कि उसके हाथ से बंदूक नीचे गिर गई, इससे पहले मैं कुछ समझ पाता वो मेरे पैरों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगा “उसे बचालो! ….. वो पिछले एक साल से लड़ रही….. समाज से, …...अंग्रेजों से

अपने आप से”।


“किसे बचा लुँ?….. देखो तुम मुझे गलत समझ रहे हो …..” मेरी बातों का उस पर कोई असर नहीं हुआ। वो फिर बोला “उसकी जान खतरे में है, वो लोग बहुत खतरनाक हैं, …… वो उसे तड़पा-तड़पाकर मार डालेंगे……”।


“आप समझ नहीं रहे हैं, मैं वो नहीं ………”

“वचन दो मुझे, तुम उसे बचाओगे ….. सिर्फ़ तुम ही उसे बचा सकते हो” मेरी बात बीच में ही काटते हुए वो बोला।


मैं उसके पास पहुँचा तो समझ में आया कि उसे भी गोली लगी थी पीठ पर, शायद वो ही उस हमले में जीवित बचा था। खून बहुत बह जाने से उसकी हालत खराब हो रही थी।


“मैं कोशिश करूंगा” मैंने उसका ढाढस बँधाने के लिये कहा। “मुझे वचन दो! …” वह मेरी कॉलर पकड़ते हुए बोला और मैंने उससे पीछा छुड़ाने के लिये कह दिया “मैं वचन देता हुँ …”। बूढ़ा अब निढाल हो गया था, मुझे नहीं लगता कि वो अब जिंदा बचेगा, उसकी आँखें बंद होने लगी, शायद वो अपनी अंतिम साँसें ले रहा था। अचानक मैंने पूछा “उस लड़की का नाम क्या है?”


“नंदिनी!” ये बूढ़े के आखिरी शब्द थे।


मैं काफ़ी देर तक सोचते रहा कि क्या किया जाए? नंदिनी को बचाने में बड़ा खतरा था, दिमाग कह रहा था कि अपनी जान बचाओ लेकिन कोई तो था मेरे अंदर जो मुझे बार-बार रोक रहा था, ……. कुछ तो था जो मुझे उस लड़की को बचाने के लिये मजबूर कर रहा था। सहसा ही मेरे कदम बढ़ते चले गए ….. उस लड़की को बचाने के लिये।


मुझे चलते-चलते लगभग दो घंटे हो गए थे और जंगल लगातार घना होता जा रहा था लेकिन नंदिनी का कोई सुराग नहीं था। वो यहाँ है भी नहीं ये भी नहीं जानता, कैसे पता लगाऊँ नंदिनी का? ……… काफ़ी देर से उसे ढूँढते-ढूँढते अब मैं थोड़ा निराश होने लगा था।


कहाँ खोजूँ उसे? …… वो लोग उसे किस दिशा में ले गये होंगे? ……… वो जिंदा भी होगी या नहीं? ……… वापस चलता हुँ, मैं क्यों अपनी जान खतरे में डालूँ? शाम के चार बज रही थी और थोड़ी ही देर में अँधेरा हो जाएगा, मुझे जल्द ही फ़ैसला लेना था।


हाँ वापस ……. “टंन न न न!!!! ……. टंन न न न!!!!!”।

मैं सोच ही रहा था कि कहीं से घंटे की आवाज़ आई, क्या आस-पास कोई मंदिर है? …….. वो भी इस घने जंगल में? मुझे वापस जाने का रास्ता भी याद नहीं था, सूरज की तपिश मंद पड़ गई थी और वो भी शाम की थकान से लाल होकर पश्चिम दिशा की तरफ़ बढ़ रहा था।


मैं घंटे की आवाज़ की तरफ़ बढ़ चला। वो मंदिर क्या था बल्कि मंदिर का अवशेष था। पत्थर की बनी दीवारें कई जगह से टूटी हुई थी, जगह-जगह पर घास और पेड़ों की जटाओं और बेलों ने दीवारों और खम्बो को ढँक दिया था। सिर्फ़ केंद्र में मंदिर सही-सलामत था जो शायद मंदिर का गर्भगृह था।


१० फ़ीट चौड़ा और १५ फ़ीट लंबा गर्भगृह ही वक्त की मार से अबतक लड़ रहा था। मैं तो इसी भाग को ही मंदिर कहूँगा। ८ फ़ीट लंबा चबूतरा पूरा पत्थर का था, बगल में दो पत्थर के खम्बे थे जिन पर कई तरह की मूर्तियाँ बनी हुई थी जिनमें से किसी को भी पहचानना मुश्किल था।


सामने मंदिर के अंदर शिवलिंग था जिसके सामने ही नंदी की मूर्ति थी। चारों तरफ़ घास, सूखे पत्ते और धूल थी …….. शायद कोई दशकों से यहाँ नहीं आया था। अतीत में भव्यता की मिसाल देता यह मंदिर आज गुमनामी की धूल फाँक रहा था।


मंदिर की धूल साफ कर मैं बैठा ही था कि मेरी नज़र सामने विराजमान शिवलिंग पर पड़ी जिस पर

धूल की मोटी परत पड़ी हुई थी। मकड़ियों के गालों के बीच भी उस शिवलिंग में ना जाने कैसा आकर्षण था कि मुझसे रहा ना गया। मैं उठा और पास जाकर शिवलिंग को करीब से देखा, कैसे पत्थर से बना यह शिवलिंग कम से कम १००० पुराना लग रहा था। बगल की दीवार में गणेश और पार्वतीजी की मूर्तियाँ गढ़ी हुई थी। मेरे बाँए तरफ़ श्रीविष्णु और उनके बत्तीस अवतारों के चित्र खुदे हुए थे। गर्भगृह का द्वार पश्चिम की तरफ़ था जिससे डूबते सूरज की किरणें सुनहरी आभा बिखेरे हुए थी।


गर्भगृह साफ़ करते-करतेे अँधेरा छाने लगा, ठंड बढ़ रही थी, मैं उठा और लकड़ियाँ लाकर आग चलाने लगा। जब आग जली तो ठंड से राहत हुई। मैं बैठकर सुस्ताने लगा, रह-रह कर मेरी नज़र शिवलिंग पर टिक जाती थी, कुछ अलग ही आकर्षण था इसमें, ये सोचते-सोचते थकान ने कब मुझे नींद के आगोश में ढकेल दिया ये पता ही नहीं चला।


नींद गहरी थी, शायद किसी सपने का इंतज़ार कर रही थी और वो इंतज़ार भी खत्म हुआ। सपनें में यही मंदिर था, यही शिवलिंग, अचानक दो साँप भागते दिखाई दिये। एक प्रेमी युगल, एक लड़की और एक लड़का मंदिर में भगवान के सामने सिर झुकाए हुए थे। थोड़ी देर पहले यही मंदिर, शिवलिंग और नंदी दोनों के विवाह के साक्षी बने थे और अब दोनों अपने नए जीवन के पहले दिन के लिये भगवान से आशिर्वाद लेने आए थे।


दोनों ने अभी सिर झुकाया ही था कि “धाँ!!........य!”।


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मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा। ... ये, ये क्या हुआ? .... क्या ये सपना था या हकीकत? .... ग गोली किसने चलाई? ... मैंने चारों तरफ देखा तो दूर दूर तक अँधेरे के सिवा कुछ नहीं था। शायद मैंने सपना ही देखा था, मैं अभी सोच ही रहा था की एक और आवाज आई “धाँ!!........य!”। ये सपना नहीं था किसी ने सच में गोली चलाई थी और वो आवाज मंदिर के पीछे कहीं दूर से आई थी।


मैं धीरे से उठा और पास में पड़ी लकड़ी उठाकर उसे हथियार की तरह लेकर धीरे-धीरे आवाज की तरफ बढ़ चला। घुप्प अँधेरे में कुछ ना दिखाई दे रहा था ना सुनाई, थोड़ी दूर चलने के बाद ही मुझे कुछ आवाजें सुनाई देने लगी। मैं और सतर्क होकर आगे बढ़ा, यह कोई पुराना खंडहर था जहाँ से कुछ रौशनी सी आ रही थी।


मैं ऊपर दीवार की आड़ में जा छुपा जहां से कुछ आवाजें सुनाई दे रही थी। पता लगाने के लिए मैं दीवार पर चढ़ गया, लगभग बीस फ़ीट दूर जाते ही मैं छत के किनारे जा पहुँचा जहां से मुझे सब साफ़ दिखाई भी दे रहा था और सुनाई भी दे रहा था। नीचे बरामदे में ठीक बीच में आग जल रही थी, आस-पास की दीवारों पर मशालें जल रहीं थी जो तेज हवा से जूझते हुए खुद को जलाये रखने के लिए संघर्ष कर रही थी। आग के पास में एक व्यक्ति की लाश पड़ी हुई थी, उसका बहता खून देख कर लग रहा था की उसे अभी-अभी गोली मारी गई है।


पर मैंने तो दो आवाजें सुनी थी गोली चलने की, ... दूसरी गोली किस पर चली थी । थोड़ा और ध्यान से देखने पर मुझे दूसरी लाश भी दिख गई। वह एक अधेड़ उम्र का आदमी था जो दूसरी गोली का शिकार हुआ था। मैं अभी सोच ही रहा था की मेरी नजर अँधेरे में होती हलचल पर पड़ी, कोई साया था शायद, किसी के कराहने की आवाजें आ रही थी। मैंने छत के एकदम कोने में जाकर कान लगाकर सुनने की कोशिश की पर सब बेकार, बस इतना पता चला की कोई जनाना आवाज थी।


"का रे ददुआ! इन दोनों की लाशों को अभी तक ठिकाने नहीं लगाया?"

"अ अभी लगाता हूँ" एक काला सा ठिगना आदमी जल्दी जल्दी आया और दोनों लाशों को वहां से घसीट कर ले गया। थोड़ी देर में कहीं फेंकने के आवाज आई।


मैं सब समझने की कोशिश ही कर रहा था कि अचानक तीन हट्टे-कट्टे नकाबपोश आये और उस पेड़ से बंधे साये को घेर कर खड़े हो गए। कंधे पर टँगी बन्दूक आग की रौशनी में मानो चेतावनी दे रही हो कि मुझसे दूर रहो। अचानक एक नकाबपोश ने बड़ा सा छुरा निकाला और उस साये की तरह बढ़ गया।


"कितनी सख्त है रे तू! .... किसके लिए अपनी जान देने पर तुली है? ..... वो लोग तुझे बचाने नहीं आ पाएंगे" नकाबपोश की आवाज भारी थी की किसी का भी दिल बैठ जाए।

"सही कहा। .... वो लोग नहीं आएंगे , तुम लोगों को मुझसे बचाने के लिए" जिस आवाज़ ने उसका जवाब दिया वो भारी तो नहीं थी पर फिर भी उसमे वो तेज था की वो नकाबपोश भी निरुत्तर होकर पीछे हट गया।


"डर गया का रे रंगा?...." फिर वही आवाज़, शायद उनका सरदार था। अँधेरे से एक साया बाहर आया, उम्र कुछ ५० साल, कद ५ फ़ीट, दुबला शरीर और रंग एकदम काला। माथे पर एक गहरा कटे का निशान था जो शायद किसी दुर्घटना में मिला था। धूर्त आँखे और लंबे चेहरे पर झूलती दाढ़ी, पूरा का पूरा शैतान का पुजारी लग रहा था पर नाम था उसका देव ..... नामदेव। वो लोग उसे देबू दादा के नाम से बुला रहे थे।


वो धीरे-धीरे लँगड़ाते हुए उस जनाना साये के पास गया और मशाल एकदम उसके चेहरे के पास रखकर बोला "बकरी कितना भी उछले-कूदे पर वो भेड़ियों का शिकार ही होती है, ..... बोलने दे इसे आखिर मरने से पहले इसे अपनी इच्छा तो पूरी कर लेने दे, ....... बस जैसे ही चाँद निकलेगा हम बलि देंगे और तब देखेंगे की इसके तड़पते सर में कितनी जान है, ...... इसका गर्म खून जब उस पत्थर पर बहेगा तब हम इसके खून की गर्मी देखेंगे।"


देबू, बुड्ढा कहीं का साला! मैंने मन ही मन उसे गाली देते हुए कहा की तभी वो जनाना आवाज गूँजी "भेड़ियों को यही लगता है की शेरनी अगर बंधी है तो वो भी बकरी लगती है पर उनकी एक गलती उनपर भारी पड़ती है", "तू मेरी बलि लेने आया है पर किस्मत बड़ी बुरी चीज है जो कभी भी धोका दे जाती है"। उसकी आवाज में मौत का डर नहीं बल्कि जूनून था। उसकी जनाना आवाज मर्दों से भी शक्तिशाली थी।


बुड्ढे ने गुस्से में आग में से एक जलती हुई लकड़ी, लड़की की तरफ फ़ेंक दी। उस आग की रौशनी में पहली बार उस लड़की का चेहरा मैंने देखा। २२ साल की गोरी लड़की, चेहरे पर तेज के साथ मासूमियत का अनोखा संगम, जैसे मन में कोई बिजली कौंधी, ऐसा लगा जैसे इस चेहरे को ना जाने कितने जन्मों से पहचानता हूँ। जैसे मेरा इस लड़की से कोई तो सम्बन्ध है, मैं इसे मरने नहीं दे सकता।


उसे बचाना मुश्किल था, मेरी जान भी जा सकती थी पर मेरे अंदर किसी गहरे कोने से आवाज आ रही थी की इस लड़की को बचाना होगा!


वो पाँच लोग थे, तीन भारी हथियारों से लेस थे, एक ठिगना सा आदमी जो बड़ी मुश्किल नहीं था और वो बूढा देबू। बस एक गलती और मेरी लाश भी ये लोग इसी तरह ठिकाने लगा देंगे। बुडढा कहीं अंदर चला गया था, वो तीन बंदूकधारी वहीँ खड़े थे। थोड़ी देर में दो नकाबपोश पास में जलती आग के पास बैठ गए और तीसरा दीवार के पास बैठ गया जहां थोड़ा अँधेरा था।


मैं संभल के पीछे की दीवार पर उतरने लगा, मौसम का मिज़ाज भी थोड़ा बदलता लग रहा था। साफ़ आसमान पर गहरे काले बादलों का कब्जा हो रहा था और हवाएँ भी मदमस्त होकर ऐसे झूम रही थी मानों हजारों लीटर शराब सिर्फ इस हवा ने ही पी रखी हो। अँधेरे में कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा था, दीवार पर जमी मिटटी भी भुरभुरी होकर गिर रही थी जिससे मेरा पैर बार-बार फिसलने से बचा। अचनाक मेरा पैर फिसला और मैं नीचे धम्म से गिर गया, मेरा प्लान फ़ेल हो गया और अब ये सब जान जायेंगे की मैं यहां हूँ। गलती तो हो चुकी थी और मेरा दिल धाड़-धाड़ कर धड़क रहा था, ना जाने किस पल वो नकाबपोश आवाज सुनकर इधर आएँ और मेरी कहानी यहीं खतम।


मैंने अपनी आँखें बंद कर ली, मौत की आहट सुनने से बचने के लिए मैंने अपने दोनों हाथ अपने कानों पर रख लिए और मेरा दिल जो कभी भी रुक सकता था, ... आने वाली मौत का इन्तजार करने लगा।


मुझे ऐसे ही लेते हुए लगभग तीन मिनट हो चुके थे पर कोई नहीं आया, मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। मैं बहुत जोर से गिरा था और उसकी आवाज किसी ने नहीं सुनी हो ये हो ही नहीं सकता। आखिर माजरा क्या है? ..... क्या ये लोग यहाँ से चले गए हैं? .... जब दस मिनट बाद भी कोई नहीं आया तो मैं उठा, भगवान् का शुक्र है की मैं मिटटी और पत्तों से ढकी जमीन पर गिरा था जिससे कोई हडडी नहीं टूटी यहीं गनीमत है।


मैं धीरे से उठा और चुपके से बरामदे में झाँककर देखने की कोशिश करने लगा की तभी कोई आहट पाते ही मैं वापस दीवार के पीछे छुप गया। एक नकाबपोश मेरी तरफ ही आ रहा था .... मुझे दूसरा मौका नहीं मिलने वाला था। अंधेरे में मैं उसे नहीं दिख रहा था लेकिन मैं उसे अच्छी तरह से देख सकता था। मैं अँधेरे में इधर-उधर कुछ ढूंढने लगा, थोड़ी ही देर में मेरे हाथ में एक नुकीला पत्थर आ गया जिसे मैंने दिवार से लगभग पाँच फ़ीट पर एकदम खड़ा रख दिया।


मैं जिधर गिरा था वो एक अंधेरा कोना था जिसकी दीवार छः फ़ीट से ज्यादा ऊँची नहीं थी। दीवार के बीच में टूटी हुई थी और लगभग तीन फ़ीट का फ़ासला था दोनों तरफ की दीवार में। शायद वो कभी दरवाजा रहा होगा। जैसे ही नकाबपोश अंदर आया, मैंने नीचे अपना पैर अड़ा दिया और वो सीधा गिरा। मेरी किस्मत अच्छी थी की उसी समय बिजली कड़की और उसके गिरने की आवाज़ को दबा गई। नकाबपोश मेरे प्लान के हिसाब से सीधा पत्थर पर गिरा और पर-लोक सिधार गया। पत्थर सीधा उसके गले में घुस गया, ... बेचारे को चीखने तक का मौका नहीं मिला।


मैंने जल्दी से उसके कपड़े पहन लिए, ..... उसकी बंदूक भारी थी, मुझे कुछ पल लगे बंदूक को संभालने में। थोड़ी देर में ही मैं नक़ाब लगाकर बरामदे की तरफ बढ़ने लगा।


सर्द रात में वो दोनों नकाबपोश आग सेंक रहे थे, मैं धीरे से उनकी तरफ बढ़ा तभी उनमे से एक ने मेरी तरफ देखा, मैं ठिठक गया "क्यों रे छोकरे? कितना समय लगाता है?" नकाबपोश बोला। मैं कुछ ना बोला, बोलना जानलेवा हो सकता था... पर नहीं बोलूंगा तो उनको शक भी हो सकता था, मैं ये सोच ही रहा था कि नकाबपोश गरजते हुए बोला "बोलता क्यों नहीं?... साँप सूँघ गया क्या?". मेरे लिए पल-पल कठिन होता जा रहा था मैं बोला "कुछ नहीं दादा, बस लगा कि कोई है वहाँ"। दोनों में से हट्टाकट्टा नकाबपोश मेरी तरफ घूरते हुए बोला "तेरी आवाज को क्या हो गया है? अभी तक तो ठीक थी"। "दादा सर्दी बहुत है जिसके कारण ठीक से मुँह नहीं खोला जा रहा तो आवाज कैसे ठीक आएगी? " मैंने घबराते हुए कहा।


"नया लड़का है दादा, अभी पिछले हफ्ते ही आया है अपने गिरोह में,..." नकाबपोश का साथी बोला और ये सुन मेरी जान में जान आई। हट्टा-कट्टा नकाबपोश अभी भी मुझे घूर रहा था, शायद उसे शक हो रहा था। "इस लड़की का क्या करना है? इसके गिरोह में शायद ये ही आखिरी बची है" साथी नकाबपोश बोला। "देबू दादा तो साधना में लगा है और वो सुबह चार बजे से पहले नहीं उठेगा" नकाबपोश बोला तो साथी नकाबपोश ने उसके कान में कुछ कहा और दोनों धूर्त की तरह हँसने लगे। "सही कहा रे तूने, ... रमन सिंह की बेटी कोई मामूली लड़की तो होगी नहीं जो देबू इसको अब तक जिन्दा रखता" नकाबपोश लड़की की तरफ देख रहा था, मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए लड़की से १२ फ़ीट पास पहुँच गया।


"रमन सिंह की बेटी है तभी तो इतनी करारी है, देबू सुबह वैसे भी इसको मार ही देगा तब तक हम ही कुछ कर लेते हैं" साथी नकाबपोश की बात सुनकर नकाबपोश की आँखों में वासना के डोरे उतर आये। रमन सिंह? ये नाम सुनते ही मुझे जैसे झटका लगा, ऐसा लग रहा था कि शायद मैं इस नाम को बरसों से जानता हूँ, शायद इस नाम का मुझ से गहरा सम्बन्ध है।


"सही कहा मरने से पहले हम इसका मजा तो ले लें, ....." " जा जाकर खोल ला उसे लड़की को!" नकाबपोश अपने साथी से बोला। "ना ना बाबा, शेरनी का शिकार करना है तो उसे बँधे ही रहने दो, .... " साथ नकाबपोश बोला। "अरे तो फिर मजा कैसे लेगा इस लड़की का?" नकाबपोश झल्लाते हुए बोला।



"दादा, ये चाक़ू उसके सारे कपडे तार-तार कर देगा फिर जो चाहे, जितना चाहे जैसे चाहे कर लेना" साथी नकाबपोश बोला।


मेरे सामने संकट की घड़ी थी, अगर इस लड़की को बचाना है तो जल्दी कुछ करना होगा। साथी नकाबपोश चाक़ू लेकर उठा और लड़की की तरफ बढ़ने लगा, इससे पहले वो उस लड़की के पास पहुँचता मैं उसका रास्ता रोककर खड़ा हो गया। मुझे बीच में आया देखकर वो ठिठककर रुक गया और नकाबपोश की त्योरियां चढ़ने लगी।

"ये काम मैं करूँगा, चाक़ू मुझे दो" मेरी बात सुनकर वो थोड़ा हैरान हुआ, उसने पीछे मुड़कर नकाबपोश की तरफ देखा और उसने आँखों ही आँखों में उसको सहमति दे दी। मेरी छठी इंद्री मुझे खतरे का आभास देने लगी, मैंने उसके उत्तर का इन्तजार किये बगैर चाक़ू उससे लिया और लड़की की तरफ बढ़ने लगा।


उस लड़की ने अपना सर उठाया और मेरी तरफ घृणा से देखा लेकिन मेरी आँखों की तरफ देखते ही घृणा ना जाने कहाँ से गायब हो गई। मेरी हैरानी का ठिकाना नहीं था, मैं चाक़ू लेकर कुछ दूर ही चला था की अचानक किसी ने मुझ पर पीछे से प्रहार किया और मैं जमीन पर गिर पड़ा। "तुझे क्या लगता है कि हम बेवकूफ हैं?" नकाबपोश गुस्से से आँखें तरेरकर बोला, पीछे उसका साथी हँस रहा था। साथी बोला "क्या सोचता हैं कि हमने तुझे कैसे पहचाना?... अरे तूने ही बताया हमें की तू हमारा साथी नहीं है"। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, तभी नकाबपोश ने अपने एक हाथ से मेरी गर्दन पकड़कर मुझे हवा में उठा लिया, वो मुझे अपने हाथों से ही फांसी देना चाहता था। तभी उसका साथी बोला "हमारा साथी गूँगा था और तू बोला तभी हम समझ गए की तू इस लड़की का साथी है"... " अब तू मरेगा, क्यों आया मौत के मुँह में मरने को?"।


"हमारे हाँथों से आजतक कोई नहीं बचकर गया है, फिर भी तू आया इस लड़की को बचाने के लिए,.... या तो तू पागल है, या फिर इसका प्रेमी" साथी नकाबपोश हँसते हुए बोला। नकाबपोश के हाँथ मेरी गर्दन पर कसते जा रहे थे, ..... मेरा दम घुट रहा था, "ये जो भी हो, लेकिन ये मरेगा, ... ये भी मरेगा जैसे हमने गदाधर सिंह को मारा था"। गदाधर सिंह!... जैसे किसी ने मेरा ही नाम पुकारा हो, मुझे वो सपना याद आ गया जिसमे गदाधर सिंह की मौत हुई थी। वो एक धोखे से मार दिया गया लेकिन आज वो नहीं मरेगा। ... आज गदाधर सिंह नहीं मरेगा। इतना सोचते ही मेरे अंदर ना जाने कैसे शक्ति आ गई की मैंने अपनी लात नकाबपोश के घुटनों के बीच दे मारी। नकाबपोश ने कराहते हुए मुझे दूर फ़ेंक दिया।


मैं अकेला इन लोगों से नहीं जीत सकता था, मुझे जल्दी ही मदद लेनी पड़ेगी, लेकिन यहाँ मेरी मदद कौन करेगा? तभी मेरी नजर लड़की पर पड़ी, किस्मत से मैं लड़की से थोड़ी दूर ही गिरा था। मैंने मेरी कमर में खोंसा हुआ चाक़ू उसकी तरफ फ़ेंक दिया अँधेरे में यह कोई नहीं देख पाया।


थोड़ी देर में नकाबपोश संभल गया और उसने मुझे फिर से जकड लिया, उसकी भुजाएँ जैसे अज़गर की कुंडली थी। जैसे-जैसे मैं छूटने की कोशिश करता उतना मेरा दम निकलता जा रहा था, तभी मैंने नकाबपोश की नाक में अपने सर से जोरदर प्रहार किया, नकाबपोश तिलमिलाकर दूर हट गया और मैं उसकी पकड़ से आजाद हो गया। तभी एक आवाज ने मेरा ध्यान खींचा, उसके साथी ने बन्दूक लोड कर ली थी, इससे पहले वो मुझपर गोली चला पाता मैंने पास में पड़ा पत्थर उठाकर उसकी खोपड़ी में दे मारा और तभी उसकी बन्दूक भी चल गई।


मैं अभी भी ज़िंदा था, साथी नकाबपोश का निशाना चूक गया था, मेरे पत्थर ने उसका सर फोड़ दिया था। मैं उसके पास गया, वो मर चूका था, मैंने उसके बन्दूक उठाई और जैसे ही उसे चलने के लिए पलटा तो नकाबपोश मेरे सामने था। उसने मेरी गर्दन पकड़ ली "तू इस लड़की को यहाँ से बचा कर नहीं ले जा पायेगा, मैं तुझे उसके सामने ही मारूँगा" इतना कहकर वो मुझे घसीटता हुआ लड़की के सामने चार फ़ीट की दुरी पर ले आया। मुझे गिराकर वो मुझ पर सवार हो गया और उसके दोनों हाथ मेरी गर्दन पर कस गए।


मेरी साँसे रुकने लगी, .... पूरा शरीर साँस लेने के लिए तड़प रहा था, ..... मैंने उसकी गिरफ्त से छूटने की बहुत कोशिश की लेकिन प्राणवायु की कमी से मेरे हाथों में जान नहीं थी। मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा, .... मेरा अंतिम समय निकट था..... धीरे-धीरे मेरी आँखों के सामने मेरे जीवन की तस्वीरें फ़िल्म की तरह घूमने लगी। वो बचपन में शिव मंदिर में चुप जाना, खेतों की पगडंडियां, वो बागों से आम चुराकर खाना, वो दोस्तों के साथ खेल ना। जवानी में कुश्ती में सबको हराना, सुबह-शाम कसरत और भैस का दूध पीना, वो ठाकुर साहब की सवारी देखना, ठाकुर साहब की सवारी में एक छोटी पालकी से झांकती छोटी सी लड़की। वो बंदूकों की धाँय, अंग्रेजों का हमारा पीछा करना, जंगलों में छुपकर मिलना। संगठन में मेरी तरफ ताकती वो दो जोड़ी आँखें, वो मासूम सा चेहरा, वो लड़की ...... नंदिनी।


अचानक जैसे मेरे हाथों में कोई शक्ति आ गई, मैंने अपनी बची खुशी साँस इकट्ठी की और उसपर घूँसा मारा, लेकिन निशाना चूक गया। मेरे अंदर अब ना तो साँस बची थी और ना ही उस से लड़ने की शक्ति। शायद यही मेरा अंत था। अब मुझे कोई चमत्कार ही बचा सकता था और चमत्कार ही हुआ। मेरे गले से उसके पकड़ ढीली पड़ गई, मेरी धुँधली होती आँखों ने बस इतना देखा की वो मेरे ऊपर से हट गया था। कुछ ही पल में मेरी आँखें बंद हो गई..... शायद हमेशा के लिये।


नरेंद्र केशकर - Narendra Keshkar की अन्य किताबें

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