ऐसा नहीं है कि सतयुग में सब कुछ अच्छा होता है या कलयुग में सबकुछ गलत ही होता है. हर युग मे धर्म और अधर्म दोनों होता है. इस समय ये जो अंधकार द्वापर को दिख रहा है, प्रकाश भी कहीं न कहीं से होगा, वह ऐसे निराश होकर नहीं बैठ सकता. लेकिन वह जाये भी तो कहाँ जाये वह तो समय है उसे न कोई सुन सकता है और देख सकता है केवल महसूस कर सकता है.
महाभारत का 15 वां दिन
गुरु द्रोण अपने पुत्र अश्वथामा की मृत्यु का समाचार सुनकर शोक से भर चुके थे. अपने रथ से उतर कर वे युद्ध भूमि में ध्यान की मुद्रा में बैठ जाते हैं और परमसत्य नारायण का ध्यान करने लगते हैं.
पाँचों पाण्डव और उनके सेनापति दृष्टद्युमन्य अपने-अपने रथ में सवार गुरु द्रोण की इस अवस्था को देख रहे थे.
श्रीकृष्ण का संकेत मिलते ही दृष्टद्युमन्य अपनी तलवार लेकर रथ से उतरता है और द्रोणाचार्य का सिर उनके धड़ से अलग कर देता है.
एक चीखती हुई शांति से युद्ध भूमि में सूर्य ढलने लगता है.
----
रात्रि का दूसरा पहर
क्रोध से भरा हुआ दुर्योधन कुलगुरु कृपाचार्य के शिविर में प्रवेश करता है.
चेहरे पे एक शांत भाव लेकर कृप अपलक दृष्टि से गहरे ध्यान में थे… उन्हें ऐसे शांत ध्यान देख कर दुर्योधन का क्रोध और भी बढ़ता है.
" अब क्या हुआ कुल गुरु कृपाचार्य?..." - दुर्योधन की तीक्ष्ण वाणी से कुलगुरु का ध्यान भंग होता है. वे दुर्योधन की तरफ देखते हैं…
"आपको ओर द्रोणाचार्य को तो यह विश्वास था कि विजय हमारी ही होगी क्योंकि धनुर्वेद धारियों की संख्या हमारे पास अधिक है… लेकिन एक-एक करके पहले पितामह और अब डरो द्रोणाचार्य रास्ते से हटा दिये गये… ये कैसे ही रहा है कुलगुरु?..."
" ये ऐसे हो रहा है दुर्योधन की एक शक्ति इस युद्ध में धनुर्वेद धनुर्धारियों का आमना-सामना होने ही नहीं दे रही…" - कृपाचार्य ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया
दुर्योधन की आँखें आश्चर्य से बड़ी होती हैं " कोई शक्ति! कोन सी शक्ति कुलगुरु? " दुर्योधन तेज़ स्वर में पूछता है…
" यह युद्ध सामर्थता और असामर्थता, योग्यता और अयोग्यता से परे है युवराज… ये युद्ध आने वाले युग के लिये पृष्ठ-भूमि तैयार करने के लिये है..." - कृपाचार्य दुर्योधन को समझाने का प्रयास करते हैं
" आप मुझे सिर्फ उस शक्ति का परिचय दें कुलगुरु… फिर उससे में निपट लूंगा " - दुर्योधन पुनः पूछता है
कुलगुरु मुस्कुराते हुये दुर्योधन की ओर देखते हुये कहते हैं " सुनना चाहते हो तो सुनो दुर्योधन, वह शक्ति स्वयं नारायण हैं…"
नारायण का नाम सुनते ही दुर्योधन के मुख के क्रोध का भाव भय में परिवर्तित हो जाता है.
----
इस घने अंधकार भरे जंगल मे भटकते-भटकते द्वापर को कुछ प्रकाश दिखाई देता है. उसकी पथराई आंखों में उम्मीद की एक किरण जगती है. अब वह निराशा से आशा की ओर अग्रसर है.
----
अपने शिविर के बाहर आग के सामने बैठे हुये श्रीकृष्ण दूर क्षितिज की ओर देखते हुये मुस्कुरा रहे हैं.
अर्जुन को ये देखकर रहा न गया और पुछ पड़े…
" क्या देख रहे हैं माधव…"
" समय को…" - कृष्ण बोलते हैं
" समय को?... लेकिन इस मुस्कुराहट का कारण" - अर्जुन फिर से सवाल करते हैं
" समय बहुत बलवान होता है अर्जुन लेकिन वर्तमान नहीं जानता कि भविष्य में क्या है… मेरे मुस्कुराने का कारण उस वर्तमान की सोच है अर्जुन, जो ये सोच रहा है कि अंधकार मिटने को है लेकिन ये तो केवल मुझे पता है कि आगे तो ये अंधकार और भयंकर होने वाला है… ये जो वर्तमान अभी प्रकाश की तलाश में है वही भविष्य में अंधकार को अपना लेगा… और मुझे एक बार फिर आना है इस अंधकार को मिटाने कलयुग में "
----
कृष्ण से मिलने की तीव्र इच्छा लिये कृप अपने लंबे-लंबे कदमों से आगे बढ़ रहे हैं. सबसे छिपते-छिपाते वे इस सघन वन मार्ग से द्वारिका की ओर बढ़ रहे हैं.
महाभारत का युद्ध तो समाप्त हो गया लेकिन भय का घेरा अभी चारों ओर मंडरा रहा है. बहुत से प्रश्न कृप के पास हैं और उन प्रश्नों का उत्तर कृष्ण के अतिरिक्त और किसी के पास नहीं.
कृप अथिति कक्ष में बैठे कृष्ण की प्रतीक्षा कर रहे हैं तभी कृष्ण की आहट पाकर वे अपने आसान से उठते हैं…
" प्रणाम कृपाचार्य… आसन ग्रहण किजये " - कृष्ण उनका अभिवादन करते हैं.
कृप भी उनको प्रणाम करके अपने आसन पर बैठते हैं…
"कहिये कृपाचार्य कैसे आना हुआ?..."
चेहरे पे गंभीर स्वर लेके कृप बोलते हैं - " युद्ध के पहले सबका ये प्रश्न था कि ये कैसे होगा, और अब मेरा आपसे ये प्रश्न है वासुदेव की ये कैसे हुआ?..."
" इसका एक ही उत्तर है कृपाचार्य… ये सब मैंने किया " - कृष्ण कृपाचार्य की ओर मुस्कुराते हुये देखते हैं
कृपाचार्य फिर से गंभीर स्वर में पूछते हैं - " मुझे क्यों जीवित रखा आपने… ऐसा तो था नहीं कि मेरा तोड़ आपके पास नहीं था, सारे धनुर्वेद धारियों को जो अधर्म की ओर से युद्ध लड़ रहे थे उन्हें तो नष्ट कर दिया आपने फिर मुझे क्यों छोड़ दिया आपने "
कृष्ण कुछ गंभीर स्वर में आकर उनसे बोलते हैं -
" सुनिये कृपाचार्य मेरे और अर्जुन के बाद धनुर्वेद प्रत्यक्ष रूप से इस पृथ्वी से विलुप्त हो जायेगी… लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से ये विद्या केवल तीन व्यक्तियों के पास रहेगी भगवान परसुराम, अश्वस्थामा और आपके पास… "
" अर्थात में चिर काल तक इस पृथ्वी पर जीवित रहूंगा ? - कृप पूछते हैं
" हाँ… आप उन सात चिरंजीवीओं में से एक हो कृप… और यही नहीं आप सावर्णिक नामक आठवे मन्वंतर में वेदव्यास और अश्वस्थामा सहित सप्तऋषियों में भी शामिल रहेंगे " -
कृष्ण के इतना कहते ही कृप की सारी उलझन नष्ट हो जाती हैं और उनके चेहरे पे परम शांति का भाव या जाता है. वे कृष से पुनः पूछते हैं -
" है कृष्ण ! मैने सुना है और मेरा विश्वास है कि आप ही नारायण हैं… मेरे इस विश्वास को यथार्त कीजिये और बताइये की आप ही नारायण हैं ?"
कृष्ण मुस्कुराते हैं और कहते हैं - " हाँ कृप ! धनुर्वेद का निर्माता और उसे पुनः धरती में लाने वाला में ही वो नारायण हूँ… सब कारणों का कारण में ही हूँ… फिर से सुनो कृप में ही नारायण हूँ ".
कृप निकल पड़ते हैं उस अनंत समय की यात्रा में.