समय का पहिया कितनी जल्दी घूमता है. अठारह साल हो गये जब ऋषि गौतम को शरव्दान मिला था. इन अठारह वर्षों में शरव्दान ने योग और वेद का ज्ञान अपने पिता से प्राप्त कर लिया था.
दिन का तीसरा पहर
पश्चिम दिशा में सूर्य दिनभर की तपन से शीतल हो चला था. ऊपर एक शिलासन मे बैठे ऋषि गौतम अपने पुत्र शरव्दान के लक्ष्य-भेदन के अभ्यास को देख रहे थे.
मन ही मन वे बहुत प्रसन्न हो रहे थे कि उनके पुत्र ने इतने कम समय में बहुत ज्ञान अर्जन कर लिया है. एक धनुर्धारी के गुण तो उसमें स्वाभाविक हैं, उसका लक्ष्य कभी विफल नहीं जाता. ऋषि गौतम ने भी अपने पिता और गुरु दोनों का दायित्व बहुत अच्छे से निभाया है. इस देव पुत्र को उन्होंने हर संभव ज्ञान देने का प्रयत्न किया है जो वे दे सकते थे.
लेकिन अभी भी एक चिंता उनके मन में है कि अब आगे वे शरव्दान का मार्ग-दर्शन कैसे करें. क्या उचित समय आ गया है जब शरव्दान को धनुर्वेद दे दिया जाये या किसी संकेत की प्रतीक्षा करना उचित होगा.
ऋषि गौतम इन विचारों में खोये थे कि अचानक "नारायण-नारायण " की ध्वनि ने उनका ध्यान भंग किया…
… देवर्षि नारद को देख कर ऋषि अत्यंत प्रसन्न होते हैं, अपने आसन से उठकर उन्होंने नारद जी को प्रणाम करके उनका उचित सत्कार किया.
" बहुत उचित समय में आपका आगमन हुआ है भगवन…" - ऋषि गौतम ने कहा
" हे ज्ञानमूर्ति ऋषि गौतम सब कुछ तो उन नारायण की इच्छा से होता है, में तो केवल उनके आदेशों का पालन करता हूँ " - नारद जी बोले
" हे देवर्षि नारद ! जिनकी इच्छा के बिना सूर्य का उदय नहीं होता, वायु का प्रवाह नहीं होता, जो समस्त ब्रम्हांड के कारण हैं उन्होंने मुझे क्या आदेश दिया है?..."
" है महर्षि… आप तो भविष्य देख सकते हैं… अपने ज्ञान से आप यह जान सकते हैं कि आगे चल के इस पृथ्वी पर इस धनुर्वेद की क्या उपयोगिता होने वाली है... " - नारद जी ने ऋषि गौतम से कहा
" कदाचित में ये जान भी पाता लेकिन मेरा यह मस्तिष्क चिंताओं से घिरा है देवर्षि… और जब बुद्धि चिंताओं से घिरी हुई हो तो कोई भी अपने ज्ञान का प्रयोग नहीं कर सकता " - ऋषि गौतम ने कहा
नारद मुस्कुराते हैं और शरव्दान की ओर देखते हैं जो अपने अभ्यास में लगा हुआ है -
" शरव्दान को उत्तर की यात्रा करनी होगी महर्षि… उसे तप और साधना से वह योग्यता प्राप्त करनी होगी जिससे वह इस धनुर्वेद को धारण करने में सक्षम हो सके… तब तक आपको धनुर्वेद को अपने संरक्षण में ही रखना होगा "...
ऋषि गौतम दूर क्षितिज में डूबते सूर्य को देखते हैं… उनके चेहरे पर संतुष्टि का भाव है...
रात्रि का पहला पहर
शरव्दान संध्या-वंदन के बाद अपने पिता से मिलने उनकी कुटिया में जाते हैं. उनके चरण स्पर्श करके उन्हें प्रणाम करते हैं.
" पुत्र, हर मनुष्य जो जीवन मे ज्ञान अर्जन करना चाहता है और जिसे अपने जीवन का सही मूल्य जानना होता है उसे यात्रा करनी है. इस यात्रा के दौरान उसे कई ज्ञानियों से मिलने का अवसर मिलता है, कई साधनायें सीखने को मिलती है… अब तुम्हारे लिये वह समय आ गया है कि तुम भी ऐसी ही यात्रा पर जाओ " - ऋषि गौतम अपने पुत्र से शरव्दान से कहते हैं
" मेरे लिये क्या आज्ञा है पिता जी? "
अपने पुत्र के कंधे पर हाथ रखते हुये गौतम कहते हैं " उत्तर दिशा की यात्रा करो पुत्र और हिमालय तक जाओ और योग, तंत्र और यज्ञ आदि की उत्तम साधना करो "
" जैसी आपकी आज्ञा" - शरव्दान अपने दोनों हाथ जोड़ते हुये उनसे कहते हैं
" कल यात्रा की तैयारी करके अगले दिन तुम्हे अपनी यात्रा प्रारंभ करनी है " - ऋषि गौतम उसे आदेश देते हैं
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सुबह की पहली पहर
शरव्दान स्नान करने के लिये नदी में प्रवेश करता है. किसी के पायल बजने की आवाज़ से वह विस्मित होता है… वह देखता है एक स्त्री, स्वेत कंचन वस्त्र धारण किये नदी में स्नान कर रही है.
उस स्त्री का रूप मोहित कर देने वाला था. उसकी पतली बलखाती कमर, उन्नत वक्षस्थल, लंबे बाल… पानी मे भीगि होने के कारण उसका मादक शरीर साफ नजर आ रहा था.
वह अपनी मादक चाल से नदी से बाहर आती है… शरव्दान को अब उस स्त्री का मादक शरीर पूर्ण रूप से दिख रहा था… वह स्नान अधूरा छोड़ नदी से बाहर आता है…
यह पहला अवसर था जब शरव्दान किसी स्त्री के कामुक अंगों को ऐसे देखा था… उसके मन मे कामुकता समा चुकी थी. उसका शरीर काँपने लगा था, उसके गीले हुये शरीर से पसीना छूटने लगा था.
अपने शरीर पर से उसका नियंत्रण छूटता जा रहा था… उसे समझ मे नहीं आ रहा कि यह क्या हो रहा था, यह कामाग्नि उससे सहन नहीं हो रही थी… उसने अपने वस्त्र उतार फेंके और पूर्णतया नग्न हो चुका था.
वह स्त्री शरव्दान के इस स्थिति को देख रही थी… वह शायद इसी कार्य के लिये भेजी गई थी…. उसकी कामाग्नि को बढ़ाने के लिये उसने हर संभव प्रयास किया और सफल भी हुई…
शरव्दान से अब और न रहा गया और, उसका वीर्य स्खलित हो गया… उसका वीर्य सरकंडों पे गिर कर दो भागों में विभाजित हो जाता है.
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मध्य रात्रि में आसमान में बिजली तड़क रही थी… आसमान में इस प्रकार के शोर से महर्षि भरद्वाज, जो कि मशाल की रोशनी में अपने शिष्य पुनर्वसु के साथ आयुर्वेद के शुत्र की रचना कर रहे थे, अचानक अपना ध्यान अपने ताम्र पत्रों से हटाकर गुफा से बाहर देखते हैं…
बाहर आसमान में बिजली चमकने से मध्य रात्रि का काला आसमान बीच-बीच मे पूर्णिमा की रात्रि की तरह दिखने लगता है.
अपना लेखन का कार्य रोककर महर्षि भारद्वाज अपने आसान से उठकर बाहर अपनी गुफा के मुख्य द्वार पे आते हैं.
( बर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही वे अपना वसेरा अक्सर ऐसे ही सुरक्षित स्थान पर कर लेते हैं. उनके गिने चुने शिष्य भी उनकी सेवा में हमेशा उनके साथ रहते हैं )
उनकी आंखों में दूर घटित हुई घटना का संज्ञान स्पष्ठ रूप से दिख रहा है…
" आप किसी गहन विचार में दिख रहे हैं गुरुदेव!..."
" हाँ वत्स, कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई है… महर्षि गौतम का पुत्र शरद्वान ने कामवासना में बसीभूत संघटित अपार ऊर्जा का निष्कासन कर दिया है, और आत्म-ग्लानि वस पश्चताप के लिये हिमालय जाने का निश्चय कर लिया है… ताकि तप करके उस ऊर्जा को फिर से प्राप्त कर सके"
बादलों की गर्जना ने महर्षि के इन शब्दों की गंभीरता का अनुमोदन किया, और बिजली की तेज रोशनी ने उनके चेहरे के भाव प्रकट किये…बही तेज रोशनी दूर आसमान में काले बादलों के बीच चमक रही है…