रात के काले बादल दूर कहीं बरस चुके थे… महर्षि भारद्वाज गुफा के मुहाने आकर सुबह की पहली धूप का स्वागत कर रहे हैं…
फिर से पायल की मधुर आवाज… एक स्त्री… स्वेत वत्र धारण किये हुये… नदी कि ओर जा रही है… बलखाती कमर के नीचे मादकता से मटकते नितम्ब,उसके नीचे उन्नत जांघ और सबसे नीचे पैरों में बंधे नूपुर… ये वही आवाज़ है…
भारद्वाज तेजी से उसके पीछे बढ़ते हैं… मन में जिज्ञासा उमड़ रही है… इतनी मादकता लिये हुए कोन है ये स्त्री… कोई राज कन्या या कोई अप्सरा…
महर्षि अपने लंबे पैरों से लंबे कदम रखते हुए तेजी से उसकी ओर बढे जा रहे हैं… कोई अपरिचित सी शक्ति उन्हें उस ओर खींच रही है…
अचनाक से उनके कदम रुकते हैं… वह स्त्री नदी में प्रवेश कर रही हैं… और देखते ही देखते वह जल में समा गई…
महर्षि भारद्वाज कुछ पल विस्मय से देखते हैं फिर, वो स्त्री अदृश्य हो गई, ऐसा जानकर वापिस जाने के लिये पीछे मुड़ते हैं…
...जल की आवाज़… कोई नदी से ऊपर आ रहा है…
महर्षि वापस मुड़ते हैं… वही स्त्री नदी में भीगी हुई खड़ी है और ऊपर आ रही है… गीले स्वेत वस्त्रों में लिपटा उसका भरा हुआ सुडोल बदन साफ-साफ दिख रहा है… आंखों से लेकर उसके उन्नत वक्ष और पतली कमर पे नाभी को देख कर महर्षि के शरीर मे कामवासना का ज्वार फूटता है… उनका शरीर कांपने लगता है… आंखें बंद हो गई हैं… हाथ मे रखा द्रोण ( कमंडल ) छूट कर भूमि पर गिर पड़ा है…
महर्षि कुछ सचेत होते हैं… " यह तो स्वर्ग की अप्सरा घृताची है… और जैसा शरद्वान के साथ वही मेरे साथ हो रहा हैं… मेरा वीर्य स्खलित होने वाला है..." … महर्षि पास में भूमि में गिरा कमंडल उठाते हैं और अपने वीर्य को उसमे समाहित कर लेते हैं…
सब कुछ शांत हो चुका है… महर्षि भारद्वाज अचेत भूमि पर पड़े हैं…
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" गुरूदेव… गुरुदेव… कृप्या आँखें खोलिये गुरुदेव... " - पुनर्वसु, भारद्वाज को चेतना में लाने का प्रयास करते हैं…
भरद्वाज के शरीर मे कुछ हरकत होती है… अचानक अपनी आंख खोलते हैं… और उठ के बैठते हैं… वो मौन अपनी आंखों को फैलाकर अपलक दृष्टि से नदी की ओर देख रहे हैं… सब कुछ कितना शांत है है… जब काम का वेग शांत होता है तो ऐसी ही शांति जाती है…
" क्या हुआ था गुरुदेव… आप ऐसे अचेत अवस्था मे कैसे आ गये थे…? "...
भरद्वाज खड़े होते हैं…
" जो शरद्वान के साथ हुआ था… वही मेरे साथ भी हुआ है…"... " द्रोण… द्रोण… मेरा कमंडल कहाँ है...?".... भारद्वाज अपने कमंडल को देखते हैं… वो पुनर्वसु के हाथ मे हैं...अपना हाथ आगे बढ़ा के उसे उसके हाथ से लेते हैं और अपनी गुफा की ओर बढ़ते हैं… पुनर्वसु उनके पीछे-पीछे हो लेता है…
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" पता नही नदी किनारे ऐसा क्या हुआ… गुरूदेव ने कुछ बताया नहीं और… बहुत देर से गुफा के अंदर हैं… हमे अंदर जाने से भी मना किया है !..." पुनर्वसु ने दूसरे शिष्य उत्तंक से कहा.
भारद्वाज बाहर आते हैं उनके हाथ मे एक नवजात बालक है… उनके चेहरे पे एक संतोष का भाव और मुस्कुराहट दिख रही है… पुर्नवसु और उत्तंक उनके पास जाते हैं…
" ये कोन है गुरुदेव?... "
" ये द्रोण है पुनर्वसु… द्रोण…"
" द्रोण !..." - दोनों शिष्य एक दूसरे को आश्चर्य से देखते हैं...
" हाँ… द्रोण… इंद्र ने घृतिची नाम की अप्सरा भेज कर मेरा वीर्य स्खलित करा दिया… जैसा उसने शरद्वान के साथ किया था… उसका वीर्य कदाचित भूमि पर गिर कर नष्ट हो गया हो… लेकिन मेने अपने वीर्य को अपने द्रोण कमंडल में रख लिया था… उसी वीर्य से उत्पन्न मेरा पुत्र द्रोण है ये..."
सभी के मुख में संतोष का भाव है...
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महर्षि गौतम अपने आश्रम के पास एक पेड़ के नीचे ध्यान मग्न थे.
अब सूरज की किरणें महर्षि के चेहरे पे पड़ने लगी थी, दिन का दूसरा पहर शुरू होने वाला था… महर्षि धीरे-धीरे अपने नेत्रों को खोलते हैं और दोनों हाथ जोड़ कर सूर्य भगवान को प्रणाम करते हैं.
पिछले दिनों उनके पुत्र शरव्दान के साथ जो कुछ भी घटित हुआ उस बात का जरा सा भी चिंता भाव उनके मुख पर नहीं हैं. वे हमेशा की तरह सामान्य हैं.
अपना बैठने का आसन उठाकर वे आश्रम की और चलते है तभी किसी की आवाज़ सुनकर वे रुकते हैं….
" में आपके ध्यान से उठने की ही प्रतीक्षा कर रहा था…" ऋषि गौतम, ऋषि भारद्वाज की उस भारी आवाज़ को पहचानते हैं, वे पलटकर देखते हैं…
" प्रणाम ऋषिवर…" महर्षि भारद्वाज हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करते हैं…
" प्रणाम ऋषि भरद्वाज…" गौतम ऋषि उनके प्रणाम का जबाब देते हैं.
प्रश्न भरी आंखों से वे भरद्वाज को देखते हुये पूछते हैं… "आज इतने समय बाद वो भी इतनी सुबह ! कोई विशेष प्रयोजन लगता है?"
भारद्वाज मुस्कुराते हुये कहते हैं," आने का उद्धेश महत्वपूर्ण है महर्षि, इत्मीनान से बैठ कर बात करें? ".
" हमारे आश्रम में आपका स्वागत है महर्षि भारद्वाज " , दोनों आश्रम की ओर प्रस्थान करते हैं.
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दोनों महर्षि आश्रम की एक कुटिया में अपने अपने आसनों पर विराजमान हैं.
कहिये महर्षि भारद्वाज किस महत्वपूर्ण प्रयोजन से आप आये हैं?
" में यहाँ आपसे निवेदन करने आया हूँ कि… कि धनुर्वेद आप मुझे सौंप दें! "
गौतम ऋषि गंभीर भाव से उन्हें देखते हैं… अपने आसान से उठते हुये वे कहते हैं "आपको भलीभांति ज्ञात है महर्षि कि धनुर्वेद के पुनर्विकास के लिये परमशक्ति ने मेरा चुनाव किया है, फिर आप ये क्यों मांग रहे हैं"...
..." क्योंकि जिसे इस विद्या को ग्रहण करना था वह तो अयोग्य हो चुका है.." - भारद्वाज कहते हैं
भारद्वाज का संकेत शरव्दान से था. वीर्य स्खलन के कारण उसकी समस्त दैविक ऊर्जा क्षीर्ण हो चुकी है, जिसके बिना वह धनुर्वेद के ज्ञान को धारण नहीं कर सकता.
" योग्य तो आप भी नहीं… जो मेरे पुत्र के साथ हुआ वह आपके साथ भी हो चुका है… और आपके पास शरव्दान जैसा कोई योग्य शिष्य भी नहीं जो इसे धारण कर सके… " - ऋषि गौतम कहते हैं.
" आपके और मेरे… और अन्य सप्तऋषियों में यह योग्यता है कि वे इस युद्ध नीति संबंधी ज्ञान को धारण कर सकें किन्तु, उस परमशक्ति ने हमे ऐसा करने की आज्ञा नहीं दी है... लेकिन मेरे पास ऐसा शिष्य है जो इसे धारण करने में योग्य है..." - ऋषि भारद्वाज ने कहा
" कौन…?" - ऋषि गौतम विस्मय से पूछते हैं..
" मेरे वीर्य से उत्पन्न हुआ मेरा पुत्र, द्रोण." - भारद्वाज के शब्दों में अहँकार स्पष्ट दिख रहा था.
" अगर ऐसा है भी तो बिना उसकी आज्ञा या संकेत के में इसे आपको या किसी और को नहीं दूंगा " - ऋषि गौतम स्पष्ट भाषा में उन्हें चेताते हैं…
"ये किसकी आज्ञा की बात कर रहे हैं आप महर्षि?" भारद्वाज पूछते हैं…
" वही जिसने मुझे ये धनुर्वेद का दायित्व सौंपा है, में उस नारायण की आज्ञा की बात कर रहा हूँ ऋषि भारद्वाज "...
ऋषि गौतम के वाक्यों से भारद्वाज को ये समझ आ जाता है किसी भी कीमत पर ऋषि गौतम उन्हें धनुर्वेद नहीं देंगे. इस बात से उनके चेहरे पे क्रोध को साफ देखा जा सकता है. वो बिना कुछ बोले ही निकल जाते हैं.
ऋषि गौतम उन्हें मुड़कर देखते हैं. उनके चेहरे पे एक गंभीर भाव है जैसे वो खुद से कोई प्रश्न पूछ रहे हों…
अपने लंबे-लंबे कदमों से गौतम ऋषि के आश्रम से बारह निकलते भारद्वाज बहुत क्रोधित हैं. उनके चेहरे पे संकल्प का भाव है.
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महाभारत का चौदवा (14) दिन.
युध्दक्षेत्र के मध्य में अपने रथ पे खड़े द्रोणचार्य के चेहरे पर एक शांत भाव था. वे अपने चारों ओर हो रहे महासंग्राम कि ओर नज़र घुमाते हैं.
" पांडवों ! मुझे तुमसे सहानाभूति है किन्तु, ये युद्ध तुम नहीं जीत पाओगे… और उसका कारण है धनुर्वेद हमारे पक्ष का होना… उधर केवल अर्जुन ही है जिसके पास धनुर्वेद का उत्तम ज्ञान है वहीँ दूसरी ओर हमारे पक्ष में कृपाचार्य, कर्ण, अश्वस्थामा और स्वयं मेरे पास इस विद्या का ज्ञान है…"
" पितामह भीष्म ने तो पांडवों से प्रेमवश खुद को पराजित कर लिया लेकिन बाकी सारे योद्धा ऐसा नहीं करेंगे… तुम्हारी हार निश्चित है, निश्चित ! "
द्रोण ने अपना शंख बजाकर आज के दिन की युद्ध समाप्ति की घोषणा कर दी.
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अपने शिविर पर बैठे द्रोणाचार्य उस समय की स्म्रतियों में खोये हुये हैं जब उन्हें ज्ञात हुआ था कि भगवान परशुराम आपका सब कुछ ब्राम्हणों को दान दे रहे हैं.
यह बहुत अच्छा अवसर था जब वे अपने पिता ऋषि भारद्वाज की इच्छा को पूरा सकते थे. वह इच्छा थी धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करने की.
वे भगवान परशुराम के पास जाते हैं और उन्हें करके याचना करते हैं.
" मेरे पास तो कुछ भी शेष नहीं रह गया पुत्र! मेने अपनी समस्त सपत्ति का दान कर दिया है, तुमने आने में बिलम्ब कर दिया "
.." हे नारायणावतार राम! में सही समय आया हूँ, में इसी समय की प्रतीक्षा कर रहा था. क्योंकि मुझे आपकी सम्पत्ति नहीं कुछ और चाहिये " - द्रोण ने कहा
" क्या चाहिये तुम्हे? " -
" मुझे आपसे धनुर्वेद का ज्ञान चाहिये भगवन ! " - द्रोण ने उत्तर दिया
" वह धनुर्वेद जिसे मेने बहुत पहले क्षत्रियों के संघार के समय इस पृथ्वी से विलुप्त कर दिया था और फिर जिसका ज्ञान मेने गंगा पुत्र भीष्म को दिया है. लेकिन तुम्हे इसकी क्या आवस्यकता है ब्राम्हण?" - परसुराम ने पूछा
" इसके दो कारण है भगवन पहला तो ये की में इसे ग्रहण करके अपने पिता के अपमान को कम करना चाहता हूँ और दूसरा ये की में शरव्दान पुत्र कृप से बड़ा धनुर्धारी योध्दा बनना चाहता हूँ "
" उचित है ब्राम्हण, में तुम्हे तुम्हारी इच्छानुसार धनुर्वेद का ज्ञान अवश्य दूंगा…"
अपने शिविर पर द्रोणाचार्य के चेहरे पे हल्की खुसी है. ये खुसी उस विस्वास है कि इस युद्ध मे उनकी विजय निश्चित है और इस जीत का प्रतिनिधित्व वे स्वयं करेंगे.
रात के अंधेरे में दूर क्षितिज की ओर देखते हुये द्रोणाचार्य को प्रतीक्षा है कल के सूर्य की.