कोई अज्ञात व्यक्ति ऋषि गौतम की आश्रम की ओर बढ़ रहा था… उसके पूरे शरीर मे कई दिनों की धूल-मिट्टी लगी हुई थी… उसके लंबे बाल पेड़ की बेलों की तरह उसके कंधे तक आ रहे हैं… लगता है कोई तपस्वी बहुत दिनों बाद अपनी तपस्या पूरी करके लौटा है.
धूल से मलीन उसका चेहरा, लंबी दाढ़ी… उसे पहचानना मुश्किल है… यह शरव्दान है, बारह वर्षों के बाद वह अब युवक हो चुका था… उसका शरीर और भी सुडौल और परिपक्व हो चुका था…
जैसे ही वह आश्रम मुख्य द्वार पर पहुंचता है अपने पिता को देख कर वह वहीं रुक जाता है… ऋषि गौतम उसे पहचानने की कोसिस करते हैं…
" शरव्दान ! पुत्र…"
शरव्दान अपने पिता के पास पहुँचकर उनका आशीर्वाद लेता है… दोनों के लिये यह भावुक क्षण है…
शरव्दान को देखने के लिये आश्रम के सभी सदस्य वहीं इकट्ठा हो जाते हैं…
" तुम लौट आये पुत्र… अपनी पूरी योग्यता के साथ… मेने और धनुर्वेद ने तुम्हारी बहुत प्रतीक्षा की…" - अपनी भावनाओं को नियंत्रित करके ऋषि गौतम अपने पुत्र के बोलते हैं.
" हाँ पिता जी, में उस ज्ञान को धारण करने और उसे प्रसारित करने को अब तैयार हुँ…"
ऋषि गौतम और आश्रम के अन्य सदस्य शरव्दान का जल से अभिषेक करके उसकी वर्षों की मलीनता साफ करते हैं…
ऋषि गौतम धनुर्वेद को शरव्दान के सम्मुख लाते हैं… शरव्दान उस महान ग्रंथ को प्रणाम करता है… एक दिव्य प्रकाश उस ग्रंथ से निकलकर शरव्दान के अंदर समा जाती है और उस दिव्य प्रकाश के साथ ही धनुर्वेद अदृश्य हो जाता है…
शेष बचे पाँच बाणों को ऋषि गौतम शरव्दान को सौंपते हुये कहते हैं… " इन्हें ग्रहण करो पुत्र और अपने अभियान का आरंभ करो… "
शरव्दान उन बाणों को ग्रहण करता है और पूछता है " मुझे इस विद्या की प्रचार की शुरुआत कहाँ से करनी है पिता श्री?"...
" तुम्हे सबसे पहले इस ज्ञान को अपने पुत्र को देना है ! "
" मेरा पुत्र ? " - शरव्दान चोंकते हुये पूछता है
" हाँ ! ...सुनो पुत्र ! तुम्हारे वीर्य स्खलित होकर सरकंडो में जा गिरा और दो भागों में विभक्त हो गया जिनसे एक पुत्र और एक पुत्री का जन्म हुआ… हस्तिनापुर के राजा शान्तनु ने उनको अपने संरक्षण में लिया है… तुम्हारे पुत्र का नाम कृप और पुत्री कृपी है… तुम यहाँ से हस्तिनापुर जाओ और अपने पुत्र को यह ज्ञान प्रदान करो..."
अपने पिता की आज्ञानुसार शरव्दान अपने पुत्र को धनुर्वेद की शिक्षा देने के लिये हस्तिनापुर की ओर चल दिया.
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मध्य रात्रि का समय
चंद्रमा का प्रकाश पूरे आकाश आनंदित कर रहा है इधर गंगा पुत्र भीष्म अपने कक्ष की मुंडेर पर किसी गहन विचार में खोए हुये हैं.
भरद्वाज पुत्र द्रोण ने गुरु परसुराम से धनुर्वेद का ज्ञान दान स्वारूप प्राप्त कर लिया है… अब इस पृथ्वी पर तीन ही ऐसे योद्धा हैं जिन्हें यह विद्या प्राप्त है एक तो वे स्वयं जिन्हें स्वयं परसुराम ने धनुर्वेद का ज्ञान दिया है, दूसरे कुलगुरु कृपाचार्य जिन्होंने अपने पिता से यह ज्ञान प्राप्त किया और अब द्रोण भी इस सूची में आ चुके हैं.
अगर द्रोण भी हस्तिनापुर के साथ आ जाये तो यह राज्य सारे विश्व मे सर्वशक्तिशाली हो जायेगा. कूटनीति तो यही कहती है की इससे पहले की द्रोण किसी और राज्य के साथ अपना संबंध बना ले उसे हस्तिनापुर के साथ कर लेना उचित होगा…
" प्रणाम तात श्री.."
आओ विदुर में तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था.
" क्या बात है आप कुछ चिंतित लग रहे हैं " विदुर ने उनसे पूछा
" चिंतित नहीं एक विचार है मेरे मन… उसी विषय में तुम्हारी राय और परामर्श चाहता हूँ…".... और फिर भीष्म ने अपनी सारी बात विदुर के सामने रखी.
कुछ देर विचार के बाद विदुर बोले " एक ऊपाय है तात श्री, द्रोण को हस्तिनापुर के साथ लाने का "
" क्या..?" भीष्म ने तत्परता से पूछा
" द्रोण एक योग्य ब्राम्हण पुत्र हैं अगर होने वाले कुलगुरु कृपाचार्य ठीक समझें तो उनकी बहन कृपी का विवाह का प्रस्ताव द्रोण के सामने रखा जा सकता है "
विदुर की बात सुनकर से भीष्म के चेहरे पर प्रसन्नता आ चुकी थी
जब द्रोण के सामने यह प्रस्ताव रखा गया तो वे इस पृथ्वी के सर्वशक्तिशाली राज्य के साथ जुड़ने के अवसर को अपने हाथ से जाने नहीं दिया.
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दिन का तीसरा पहर
कृपाचार्य अपने निवास्थान में अध्यनरत हैं. किसी की आने की आहट से उनका ध्यान टूटता है.
" आपका स्वागत है द्रोण… परसुराम शिष्य को मेरा प्रणाम " - कृपाचार्य द्रोण का अभिवादन करते हैं
" कुलगुरु कृपाचार्य को मेरा प्रणाम " - द्रोण उन्हें प्रणाम करके उनके गले मिलते हैं
दोनों उचित आसान में बैठ कर वार्तालाप शुरू करते हैं -
" विवाह के आयोजन में मुझे आपसे अच्छे से मिलने का मौका ही नहीं मिला कृपाचार्य… आपकी बहुत प्रसंसा सुनी है, मे आपसे मिलने के लिये बहुत उत्सुक था… " - द्रोण ने कहा
" आप जैसा बहनोई पा कर मुझे बहुत गर्व का एहसास होता है भारद्वाज पुत्र…" - कृपाचार्य उनकी प्रसन्नता का उत्तर अपनी प्रसन्नता से देते हैं
गुरु द्रोण कुछ देर सोच कर बोलते हैं...
" कितनी अजीब बात है आचार्य हम दोनों का या यूँ कहूँ की हम तीनों का जन्म एक सी परिस्थितयों में हुआ और…और आज हम तीनों इस बंधन में बंध गये "
" हाँ द्रोण… कदाचित समय भी चाहता है कि हम दोनों अलग-अलग दिशा में न जाकर एक साथ आ जायें… देवताओं ने मेरे पितामह ऋषि गौतम और आपके पिता भरद्वाज के बीच मतभेद लाने के प्रयास में सफल हुये थे किन्तु हमारे साथ ऐसा नहीं होगा"
कृपाचार्य की बात सुनकर द्रोण ने उनके कंधे पर अपना हाथ रखते हुये अपनी सहमति देते हुये बोलते हैं - " देवताओं ने पहले मेरे पिता को अयोग्य किया फिर आपके पिता को… और वो बस इसलिए कि कहीं वे देवत्व को प्राप्त करके उनका स्थान न ले लें…"
" हाँ द्रोण ! अब हमें प्रतीक्षा करनी है उस क्षण की जब हम देवताओं से इसका प्रतिशोध ले सकें "
दोनों की आंखों में एक प्रण है….
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इस घने वीरान जंगल से वह बहुत जल्दी निकल जाना चाहता है लेकिन उसकी ढलती उम्र उसे आगे बढ़ने से रोक रही है… इस तरह तो वह वापिस नहीं पहुँच पायेगा जहाँ से कई सदियों पहले चला था… और अगर वह नहीं पहुँच पाया तो वह जो उसके पीछे तेजी आगे बढ़ रहा उसे ढूंढ लेगा.
यह द्वापर है… बुराइओं से लड़ते-लड़ते अपने तीन चरण पार कर चुका है… अब उसमें इतनी हिम्मत नहीं की वह कली का सामना कर सके.
इधर कली बहुत तत्तपर है समय की जमीन में अपना पहला बीज बोने के लिये.
साँझ होने को है … अपने लंगड़ाते हुये कदमो से द्वापर आगे बढ़ रहा है… एक सरसराहट की आवाज़ से वह रुकता है… कोई बहुत तेज़ी से उसके पास आ रहा है.
हवा के एक झोंके की तरह कली, द्वापर के ऊपर से गुजर कर उसके सामने आ खड़ा है…
" तुम कोई इंसान नहीं द्वापर जो लौट कर सत्य से मिल जाओगे… तुम समय हो तुम्हारा काम है आगे चलते रहना तुम्हे मुझे अपना कर मुझसे पार जाना ही होगा "...
" मुझे पता है कली की में क्या हूँ, लेकिन जब तक में हूँ तब तक सत्य धर्म की रक्षा करता रहूंगा…" - इतना बोलकर द्वापर फिर से चलने लगता है…
कली क्रोध में आकर जोर से हुँकार भरता है और खुद को द्वापर पर प्रहार करता है… इस प्रहार से द्वापर अचेत होकर गिर पड़ता है
कली जा चुका है और द्वापर को अब चेतना का रही है… वह उठ के बैठता है… वह चारों ओर देखता है उसके चेहरे पर भय है - " साँझ हो गई अंधेरा होने को है…. कली सफल हो गया… उसने अपना काम कर दिया है… कलयुग का पहला बीज वक्त की जमीन पर जम चुका है…"
...दुर्योधन !
द्वापर हर तरफ फैलते अंधकार को देखता है.