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आपबीती लिखूं तो दीवारों पर जगह न बचे….

7 अप्रैल 2022

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मैं तब 13 साल की थी। होली का दिन था। पापा के दोस्त घर आए थे। मैं किचन में चाय बना रही थी। तभी पापा के दोस्त पीछे से आए और मेरे गाल पर रंग लगाने लगे। रंग लगाते-लगाते उनके हाथ मेरी कमीज के अंदर जा पहुंचे। मैं बुरी तरह से डर गई। फिर उन्होंने मेरी मां को रंग लगाया और उनकी छातियां दबा दीं। होली के कुछ दिन बाद मां ने पापा को सारी बताई, लेकिन पापा बहुत सीधे थे, हर कोई उनके सीधेपन का फायदा उठाता था। पापा के जिन दोस्तों की नजर मां पर रहती थी, वे मुझ पर भी अब नजर रखने लगे थे।मैं तब 13 साल की थी। होली का दिन था। पापा के दोस्त घर आए थे। मैं किचन में चाय बना रही थी। तभी पापा के दोस्त पीछे से आए और मेरे गाल पर रंग लगाने लगे। रंग लगाते-लगाते उनके हाथ मेरी कमीज के अंदर जा पहुंचे। मैं बुरी तरह से डर गई। फिर उन्होंने मेरी मां को रंग लगाया और उनकी छातियां दबा दीं। होली के कुछ दिन बाद मां ने पापा को सारी बताई, लेकिन पापा बहुत सीधे थे, हर कोई उनके सीधेपन का फायदा उठाता था। पापा के जिन दोस्तों की नजर मां पर रहती थी, वे मुझ पर भी अब नजर रखने लगे थे।

दुनिया में कोई ऐसी औरत नहीं है जिसका बचपन में यौन शोषण न हुआ हो। अगर कोई कहती है कि नहीं हुआ है तो वह झूठ बोलती है। मेरा इतना यौन शोषण हुआ है कि अगर मैं अपनी कहानी दीवारों पर लिखनी शुरू कर दूं तो दीवारें कम पड़ जाएंगी।

मेरा जन्म 1988 में उत्तर प्रदेश के बस्ती के मुंडेरवा एक गांव गूदी में हुआ। मेरे पापा चार भाई और तीन बहनें थीं। सभी के बच्चे भी थे। पापा घर में सबसे छोटे थे। इन नाते मेरी मां घर की सबसे छोटी बहू थी। घर में मेरे ताऊ की पत्नियां और दादी मां को खूब सताते। वह दिन भर कोल्हू के बैल की तरह काम करती। खाना बनाती, खेत जाती और गायों की देखभाल करती। हमारे पास 16 गायें थीं। एक दिन पापा और दादी के बीच पैसे को लेकर खूब झगड़ा हुआ। झगड़ा इतना बढ़ गया कि पापा घर छोड़कर चले गए। उस वक्त न तो फोन था न कोई और साधन कि हम पापा को ढूंढ पाते। मां ने कुछ महीने पापा का इंतजार किया, फिर मुझे लेकर अपने मायके आ गई। वहीं से मेरे शोषण की कहानी शुरू होती है।

वहां घर में दो मामा,एक मौसी, नानी, नानी की सास, छोटे नाना और उनकी पत्नी रहती थे। यहां हमारा हाल अपने गांव से भी बदतर था। मुझे खाने में बचा हुआ सादा चावल मिलता था। मैं खुद चटनी पीस कर चावल के साथ खाती थी। छोटे नाना की शादी देर से हुई थी तो उनका छोटा बच्चा था। अगर वह खुद से ही खाट से गिर जाता तो नाना मुझे चांटा मारते। तब मां कुछ नहीं कह पाती थी। उनसे घर में कोई बात भी नहीं करता था। हर किसी को लगता था कि इसका मर्द इसे छोड़कर चला गया है सो यह अब दूसरों के मर्दों को वश में कर लेगी।

मैंने मां के बारे में गांव की औरतों को कहते सुना था कि इसका किसी के साथ चक्कर था, तभी इसका मर्द छोड़ कर भाग गया। एक दिन मां नल पर पानी भर रही थी, तभी उनके एक मामा आए। उनके हाथ में लड्डू का डिब्बा था। उन्होंने मां से कहा कि अरे लो लड्डू खाओ..इस पर पीछे से आ रही उनकी पत्नी ने उन्हें खूब लताड़ा और मां को भी खूब गालियां दी।

हम रोज सुबह उठते, हांथ-मुंह धोते और खेत के लिए निकल जाते। खेत से वापस आने के बाद डलिया बुनने लगते थे, फिर दिन का खाना, चक्की पीसना, गायों का चारा पानी देना और फिर रात की तैयारी। ये रोज का हमारा काम था। इसी तरह एक-एक दिन करके वक्त गुजरता रहा।

मैं पांच साल की हुई तो एक स्कूल में दाखिला कर दिया गया। हम स्कूल के मास्टर को मुंशी कहते थे। जैसे ही मैं क्लास में जाती वह मुझसे पूछते कि तेरा बाप कहां गया? मैं जवाब देती कि मुझे नहीं पता, फिर वह हंसने लग जाते। स्कूल के दूसरे मास्टर भी मुझे मां-बाप को लेकर तंज मारते थे। इस वजह से स्कूल के बच्चों ने मुझे चिढ़ाना शुरू कर दिया। मैं घर आकर बहुत रोती थी। एक दिन तो मैंने मां से कह दिया कि अब स्कूल नहीं जाऊंगी और स्कूल जाना बंद कर दिया।

एक दिन मेरे एक फूफा हमें ढूंढते-ढूंढते नानी के घर आए। उन्होंने बताया कि पापा का पता उन्हें मिल गया है, वे मुंबई में हैं। उन्होंने अपने साथ हमें लखनऊ चलने के लिए कहा। हम फूफा के साथ लखनऊ आ गए। वहां से पापा को तार भेजा गया। कुछ दिन बाद पापा लखनऊ आए। आते ही उन्होंने सड़क पर मां को जोर से चांटा मारा और मां की गाली दी। मां ने कहा कि वह ट्रेन से कटकर मर रही है, सड़क पर तमाशा होने लगा। खैर कहा सुनी के बाद मामला ठंडा हुआ। पापा ने कहा कि वह हमें अपने साथ मुंबई ले जाएंगे। इस पर फूफा ने कहा कि नहीं, हमें तुम पर भरोसा नहीं है। तुम अपनी पत्नी को वहां बेच दोगे। इसलिए लखनऊ में ही रहो। हम 5-6 महीने तुम्हारी मदद कर देंगे।

पापा मान गए। जिंदगी ऐसे ही चलती रही। 5-6 महीने तक फूफा ने हमारी मदद की। फिर पापा को एक लकड़ी के कारखाने में नौकरी मिल गई। धीरे-धीरे हमारा परिवार बढ़ा हुआ। अब हम तीन बहनें और एक भाई हो चुके थे, लेकिन हमारी आर्थिक हालत बहुत खराब थी। पापा बहुत सीधे थे और मां बहुत सुंदर थी। ऐसे में पापा की शराफत और हमारी गरीबी का फायदा उठाकर उनके दोस्त हमारे घर आने लगे।

वे लोग उम्र में पापा से भी बड़े थे। मैं उन्हें चाय देने जाती तो मेरा हाथ पकड़ लेते। आते-जाते मेरे सीने में कोहनी खुबो देते। किचन में होती तो मुझे पीछे से आकर पकड़ लेते। बेटा-बेटा बोलकर जांघों पर हाथ फेरते, मेरी पीठ सहलाने लगते। मेरे प्राइवेट पार्ट को गुजिया बताते, मेरे साथ गंदी बातें करने की कोशिश करते। होली वाले दिन मां खूब रोई और पापा से कहा कि तुम तो शराब पीकर टल्ले हुए थे और वे लोग तुम्हारी बेटी के साथ क्या-क्या कर रहे थे। तुम तो बेटी की इज्जत लुटवा दोगे। उस दिन के बाद पापा ने कभी शराब नहीं पी। अपने दोस्तों से भी कहा कि वे हमारे घर न आएं। मैं भी अब मजबूत बन चुकी थी। पापा के दोस्तों को साफ-साफ बोल देती कि हमारे घर से चले जाओ।

लखनऊ में जहां हम रहते थे, वहीं मेरी बुआ भी रहती थी। बुआ के बेटे का अपने घर के सामने वाली एक शादीशुदा लड़की से चक्कर चल रहा था, जिसका अभी गौना होना था। यह बात उसके भाई को पता लग गई। एक दिन मैं खेलते-खेलते उनके घर चली गई। कमरे में बैठी थी तो उसके भाई ने मौका देखकर जोर से मेरी छाती दबाने लगा। अपना हाथ मेरे प्राइवेट पार्ट के अंदर डाल दिया। जबकि मैं उन्हें भैया बोलती थी। मैं 13 साल की थी और वे 30 साल के। उनकी शादी हो गई थी, बच्चा होने वाला था। मैं रोते- रोते अपने घर आ गई, लेकिन डर के मारे किसी को नहीं बताया। उसने अपनी बहन का बदला मेरे भाई से न लेकर मुझसे लिया।

फिर हम मड़ियाऊं शिफ्ट हो गए। अब मेरी दसवीं हो चुकी थी। मैं उस इलाके की एक संस्था के साथ जुड़ गई, जो पढ़ाने का काम करती थी, लेकिन हमारी आर्थिक स्थिति और भी बदतर हो गई थी। उस रोज मेरी ट्रेनिंग का हला दिन था। घर में चाय बनाने के लिए न चीनी थी न पत्ती और दूध। मां ने पानी में अजवाइन को नमक के साथ उबाल कर दिया कि इसे चाय समझ कर पी ले। मैंने उसे पिया और ट्रेनिंग के लिए निकल गई।

वहां दोपहर के खाने में मुझे दो सब्जी, दाल, रोटी और चावल मिला। मैं खाना देखकर रोने लगी। मुझे लगा कि घर में भाई-बहन भूखे हैं और मैं यहां ऐसा खाना खा रही हूं। सच पूछो तो खाना मेरे हलक से नीचे नहीं उतर रहा था। उस दिन जब मैं घर गई तो मां से पूछा कि तुम लोगों ने क्या खाया? मां ने बताया कि सब्जी वाला पूछ रहा था कि रात की बची हुई सब्जी वह फेंक दे या उसे वह बनाएगी ? तो सब्जी वाले ने साग दे दिया और घर में 5 रुपए मिल गए थे। उससे आधा किलो चावल खरीद कर साग के साथ खा लिया।

एक बार पापा को कहीं से 50 रुपए का काम मिला। वे बहुत खुश थे। कहने लगे कि चल तू चूल्हा जला मैं आटा लेकर आता हूं। आज रोटी बनाएंगे। मैंने चूल्हा जलाया, लेकिन पापा खाली हाथ आए। मैंने पूछा कि आटा कहां है तो कहने लगे कि 50 रुपए रास्ते में ही कहीं गिर गए। उस रात हमने जला चुल्हा पानी से बुझा दिया और पानी पीकर सो गए। मैं जानती हूं कि जब भूख लगती है तो कैसा लगता है और भूख क्या होती है। भूख में सूखी-बासी रोटी भी अमृत लगती है।

खैर जीवन चलता रहा। मैं जहां पढ़ाती थी वहीं एक लड़का भी पढ़ाता था। वह मेरा अच्छा दोस्त था। एक दिन हम लोगों को वाउचर जमा करना था तो उसने कहा कि वह अपना वाउचर घर भूल गया है। मैंने कहा कि ले लेते हैं। हम उसके घर लेने गए तो उसने दरवाजा बंद कर दिया। मैंने सोचा ऐसे ही किया होगा। मैं किचन में पानी पीने चली गई। उसने मुझे पीछे से आकर जकड़ लिया। मैंने सोचा कि मजाक कर रहा होगा, अभी छोड़ देगा। उसने मुझे छोड़ा ही नहीं और जोर से जकड़ लिया। मैं चिल्लाई तो उसने मेरे कपड़े फाड़ दिए, बाल नोच लिए, मुझे जगह-जगह से काट लिया और जबरदस्ती मेरी जींस उतारने लगा।

बेल्ट की वजह से वह मेरी जींस नहीं उतार सका, लेकिन मुझे इतनी जोर से जकड़ रखा था कि मेरी सांस घुट रही थी। उसकी जकड़ जरा ढीली हुई मैं किसी तरीके वहां से भागी। मेरे बाल बिखरे हुए थे , चेहरा लाल था और एकदम बदहवास थी। मैं घर जाकर मुंह हाथ धोकर एकदम चुप हो गई। सो गई। अगले दिन से काम पर नहीं गई। खाना-पीना, बात करना लगभग छोड़ दिया था। धीरे-धीरे मैं डिप्रेशन में आ गई। मेरी हालत पागलों जैसी हो गई। मुझे पैनिक अटैक आने लगे। सब लोग मुझे पागल समझने लगे।

किसी ने कहा कि इसे पागलखाने में भर्ती करवा दो। किसी ने कहा कि ओझा के पास ले जाओ। मेरा खूब झाड़ फूंक भी हुआ। एक दिन मेरे मां-बाप मुझे पागलखाने ले गए। वहां डॉक्टर ने मुझसे बात की। मैंने डॉक्टर को सारी बात बताई, उसने मेरे मां-बाप को बुलाया और खूब लताड़ा कि इसे पागलखाने में भर्ती करने के लिए क्यों लाए हैं। मेरी काफी दिन तक काउंसलिंग हुई। डेढ़ साल के बाद धीरे-धीरे मैं ठीक होने लगी।

साल 2008 में मैंने अपनी एक संस्था बनाई, जिसका नाम रखा बाल मंच। मैं खुद किसी के यहां काम करने की बजाय अपने मंच के जरिये बच्चों को पढ़ाने लगी। इसके साथ-साथ मैंने तय किया कि मेरे साथ जो बचपन से होता आ रहा है, वह किसी और के साथ न हो। यौन शोषण और रेप के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए। अपनी संस्था में रेप सर्वाइवर और बचपन में यौन शोषण की शिकार लड़कियों को भर्ती किया। हम 15 लड़कियां हो गईं। सभी ने मार्शल आर्ट ट्रेनिंग ली और हमने आगे यह ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी। इसके साथ साथ हमने नुक्कड़ नाटक शुरू किए। हमारे नाटकों में बहुत भीड़ आने लगी और हमें पैसे मिलने लगे। शराबी पति, दुनिया में औरत यानी रेप, छेड़छाड़, भ्रूण हत्या, मारपीट जैसे हमारे नाटक काफी चर्चा में रहे। फिर हम रैलियों में जाने लगे।

मैंने सोचा कि हम नाटक तो करने लगे हैं। मीडिया में हमें काफी तवज्जो मिलने लगी, लेकिन हमारा कोई ड्रेस कोड नहीं है। हमारे नाटक में जो लोग हमें पैसा देते थे, हमने उनके कहा कि वह हमें पैसे न दें, कपड़ा खरीद कर दे दें। हमने लाल रंग का कुर्ता और काली सलवारें सिलवाईं। अब हम नाटक, रैली या कुछ भी करने निकलते तो सभी एक जैसी ड्रेस में निकलते। मनचले लड़के हमें छेड़ते। कोई हमें बम कहता, कोई भाभी, कोई लाल परी, कोई तितलियां, कोई उड़ाका दल...लेकिन एक दिन एक लड़के ने हमें कहा पावरफुल रेड ब्रिगेड।

बस वहीं से मैंने सोच लिया कि हम पावरफुल रेड ब्रिगेड कहलाएंगी। मीडिया ने इसे खूब कवर किया। निर्भया रेप के वक्त हम कड़ाके की सर्दी में भी जीपीओ पर बैठे रहे। जिस वजह से हमें अच्छी-खासी पहचान मिली। अभी रेड ब्रिगेड में 40 एक्टिव मेंबर हैं। सभी या तो रेप सर्वाइवर हैं या बचपन में यौन हिंसा की शिकार। जिनके अंदर गुस्सा भरा है। मैं अभी तक 2 लाख लड़कियों को वॉयलेंस के खिलाफ ट्रेनिंग दे चुकी हूं। मैं हमेशा एक सवाल जरूर पूछती हूं कि जिसके साथ कभी यौन शोषण न हुआ हो वह अपना हाथ ऊपर उठाए, एक हाथ ऊपर नहीं उठता है। इसके अलावा मैं औरतों को डिजिटल ट्रेनिंग भी देती हूं कि ऑनालाइन FIR कैसे दर्ज करा सकें।

मुझे यह पढ़ेगी बेटी, तभी तो बढ़ेगी बेटी जैसे नारे बेमानी लगते हैं। लड़कियों की सुरक्षा सबसे बड़ा मुद्दा है। मेरे पास अब जब दूसरों के केस आते हैं तो अपना गम कम लगता है। साल 2011 की बात है। हम एक रेप सर्वाइवर से मिले। हमारे शरीर में जितनी छेद होते हैं, वहां उस 17 साल की लड़की से 30-30 साल के चार मर्दों ने रेप किया था। उसके होंठ लटक कर बाहर आ गए थे, चेहरा बिगड़ गया था। सिर के बाल नुच गए थे, उसकी शक्ल डरावनी हो गई थी।

45 देशों के पत्रकार मेरा इंटरव्यू कर चुके हैं। मैं केबीसी में जा चुकी हूं। मेरी संस्था के लिए किसी ने जमीन दी तो किसी ने पैसे, लेकिन मेरा मकसद पूरा नहीं हुआ है। अभी तो शुरू हुआ है।

उषा विश्वकर्मा जानी-मानी वुमन एक्टिविस्ट हैं। वे रेड ब्रिगेड संस्था की फाउंडर हैं। इसके जरिए वे महिलाओं को सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग देती हैं। अब तक 2 लाख से अधिक महिलाओं को ट्रेन कर चुकी हैं।

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