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देह में बाज़ार और बाज़ार में देह

8 अप्रैल 2022

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-अनिल अनूप

इशारे करती आंखों को देख गाड़ियां अक्सर यहां धीमी हो जाती हैं. काजल भरी आंखें, मेकअप से सजे चेहरे और चटकीले लिबास लपेटे सैकड़ों जिस्म रोज़ाना इन सड़कों पर किसी का इंतज़ार करते हैं.

मध्य प्रदेश में मंदसौर से नीमच की ओर बढ़ने वाले हाइवे पर ये नज़ारा आम है. जिस्मफ़रोशी के इस बाज़ार में रोज़ाना ना जाने कितनी ही लड़कियां चंद सौ रुपयों के लिए अपनी बोली लगाती हैं.
हिना भी इनमें से एक थीं, जिन्हें 15 साल की उम्र में वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेल दिया गया. ऐसा करने वाले कोई और नहीं, बल्कि उनके अपने ही थे.
हिना ने बचपन से अपने आस-पास की लड़कियों को ये काम करते हुए देखा था मगर सोचा नहीं था कि ऐसा समय भी आएगा कि वो ख़ुद को उन्हीं लड़कियों के साथ सड़क के किनारे पर खड़ा पाएंगी.
हिना ने ख़ूब विरोध किया था. जब कहा कि पढ़ना चाहती हूं तो परंपरा की दुहाई दी गई. फिर भी नहीं मानी तो कहा गया कि तुम्हारी नानी और मां ने भी यही काम किया है. आख़िर में दो जून की रोटी का वास्ता दिया गया.

हिना की आंखों के सामने अपने छोटे-छोटे भाई-बहनों के चेहरे घूमने लगे और घुटने टेकते हुए समझौता कर लिया.

हिना बाछड़ा समुदाय से आती हैं. इस समुदाय की लड़कियों को परंपरा का हवाला देकर छोटी उम्र में ही देह व्यापार के दलदल में धकेल दिया जाता है.
गांव के एक बुज़ुर्ग बाबूलाल का कहना है, "बाछड़ा समुदाय में लड़कियों को वेश्यावृत्ति में भेजना हमारी परंपरा का हिस्सा है और ये सदियों से चला आ रहा है."
वे एक किस्सा सुनाते हुए कहते हैं, "पहले हमारे लोग गांव में नहीं रहते थे. वे एक रात कहीं रुकते थे तो दूसरी रात उनका डेरा कुछ और होता था. एक बार कहीं चोरी हो गई और पुलिस ने हमारे लोगों को पकड़ लिया. तब थानेदार की निगाह हमारी एक लड़की पर पड़ी. लड़की बहुत सुंदर थी. उसने बोला कि एक रात मुझे इस लड़की के साथ रहने दो और उसके बाद गांव छोड़कर निकल जाओ."

बाबूलाल ने कहा, "उस दिन लड़की ने बाप-दादा की जान बचाई. वो दिन था कि हमारे समाज के लोगों में ये बात बस गई कि लड़कियां जान बचाती हैं. हम लोगों के पुरखों ने चोरी-चकारी जैसा कुछ काम नहीं किया था लेकिन उनपर झूठा आरोप लगा दिया गया. बस वहीं से ये कहावत आ निकली कि लड़की जान बचाती है. समाज को लगने लगा कि लड़की किसी भी समस्या का समाधान निकाल लेती है और तब से इस परंपरा की शुरुआत हो गई."

इस समुदाय की लड़कियों को वेश्यावृत्ति से निकालने का काम करने वाले आकाश चौहान बताते हैं कि मध्य प्रदेश के नीमच-मंदसौर-रतलाम में बाछड़ा समुदाय के 72 गांव हैं, जहां 68 गांवों में खुलकर देह व्यापार होता है.
उनके मुताबिक, "क़रीब 35 हज़ार आबादी वाले समुदाय में लगभग सात हज़ार महिलाएं वेश्यावृत्ति के काम में लगी हैं, जिनमें से क़रीब दो हज़ार नाबालिग हैं. समुदाय में 10 से 12 साल की बच्चियों को अपने माता-पिता द्वारा जबरन देह व्यापार में डाल दिया जाता है. एक लड़की के पास एक दिन में 10 से 12 ग्राहक आते हैं. वो एक दिन के दो हज़ार रुपये कमा लेती है."
हिना भी इन्हीं परिस्थितियों से गुज़र रही थीं. उनका दम घुट रहा था और इसी बीच उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया. इसी के बाद हिना ने ठान लिया था कि वो अपनी बेटी को अब इस पेशे में नहीं आने देंगी.
वे बताती है, "गुस्सा आता था. ग़लत लगता था. तक़लीफ़ होती थी शरीर में. लेकिन मज़बूरी के कारण करना पड़ता था. नहीं करते तो खाते क्या. बहुत सारी ऐसी लड़कियां थीं जिन्हें बीमारी भी लग गई."

ये भी डर लगा रहता था कि कहीं गर्भवती न हो जाएं. इसके बावजूद कई लड़कियों के कम उम्र में बच्चे भी हो गए.''

हिना कहती हैं कि इसी दौरान उन्हें एक ग़ैर-सरकारी संस्था 'जन साहस' के बारे में पता चला. ये संस्था लड़कियों को वेश्यावृत्ति से निकलने में मदद करती है. इस संस्था के लोग बाछड़ा समुदाय की लड़कियों से मिलकर उन्हें समझाते हैं.
हिना इस संस्था के लोगों से मिलीं और बात की कि वो ये काम नहीं करना चाहतीं. संस्था ने इसमें उनकी मदद की और हिना को अपने यहां नौकरी भी दे दी.

अब हिना अपने समुदाय की दूसरी लड़कियों को कुप्रथा के इस दलदल से निकलने में मदद कर रही हैं. वो उनसे मिलती हैं और उन्हें शिक्षा से जोड़ने की कोशिश करती हैं.
हिना कहती हैं, "अगर मैं निकली हूं तो दूसरों को भी निकालूंगी. मैं चाहती हूं कि शुरू से ये जो परंपरा चली आ रही है वो बिल्कुल ख़त्म हो जाए."
हिना अब अपने समुदाय की दूसरी लड़कियों को पढ़ाई के बहाने बाहर निकलने में मदद कर रही हैं.
वो बताती हैं, "हम इस काम में लगी लड़कियों के घर जाते हैं. हम सीधे ये नहीं बोलते कि ये काम छोड़ दो क्योंकि इससे उनके घर वाले हमारा विरोध करते हैं. ये काम मुश्किल होता है, बार-बार उनके घर जाते हैं. हम उन्हें फिर से पढ़ाई शुरू करने के लिए कहते हैं. कई लड़कियों को अलग ले जाकर बात भी करते हैं और पूछते हैं कि क्या वो ये काम छोड़ना चाहती हैं. वो छोड़ने की इच्छा जताती हैं तो उन्हें साथ देने का भरोसा देते हैं. उन्हें बताते हैं कि आप और भी काम कर सकती हैं."
हिना की कोशिशों से समुदाय की कुछ लड़कियां इस कुचक्र से बाहर आ गई हैं लेकिन अब भी कई लड़कियां हैं जो इसमें फंसी हुई हैं.

इस कुप्रथा को खत्म करने की कोशिशों के तहत मध्य प्रदेश सरकार ने इनके पुर्नवास के लिए 1993 में जबाली योजना शुरू करने का ऐलान किया गया था. इस योजना के तहत समुदाय के लोगों को जागरूक किया जाना, उन्हें शिक्षा से जोड़ना, कोई काम करने के लिए ट्रेनिंग देना शामिल है.
लेकिन हिना का कहना है कि समुदाय की लड़कियों को कुछ रोज़गार मिल जाए तो वो इस सबसे बाहर निकल सकती हैं. वो कहती हैं, "कमाने के लिए कुछ है भी नहीं. इसीलिए तो मजबूरी में उन्हें वही काम करना पड़ता है. वो चाहती भी हैं कि निकल जाएं लेकिन निकल नहीं पाती हैं. दूसरा कोई रास्ता नहीं है न उनके पास."
लेकिन हैरानी की बात है कि सरकारी ऐलान के 25 साल बीत जाने के बाद भी अबतक ये योजना ज़मीन पर लागू नहीं हो पाई है.

इसकी वजह जानने के लिए हम मंदसौर के बाल एवं महिला विकास मंत्रालय के अधिकारी राजेंद्र महाजन से मिले.
उन्होंने बताया कि इस योजना को किसी एनजीओ के ज़रिए लागू किया जाना है, लेकिन हमें अबतक कोई एनजीओ नहीं मिला है.
महाजन ने कहा, "जबाली योजना को एनजीओ के माध्यम से संचालित किया जाना है और इसके लिए अख़बार के ज़रिए आवेदन हम मंगाते हैं, लेकिन कोई एनजीओ इसमें आगे नहीं आया. जो आए वो सिलेक्ट नहीं हो पाए. इस साल भी आवेदन आए हैं, हम उसमें से अध्ययन करके प्रपोज़ल शासन को भेजेंगे. एनजीओ के जो आवेदन आए हैं, उनकी तुलना होगी. गाइडलाइन्स पात्रता देखी जाएगी."

लेकिन क्या वजह है कि अबतक कोई एनजीओ इस योजना के लिए सिलेक्ट नहीं हो पाया?
इस सवाल के जवाब में महाजन कहते हैं कि विज्ञापन निकाले जाते हैं तो एनजीओ भी आगे आने चाहिए. इसमें शासन कुछ कर नहीं सकता.
उन्होंने बताया कि एनजीओ के लिए क्राइटीरिया ये है कि उसने इस फ़ील्ड में काम किया हो. उन्होंने कहा, "एनजीओ आवेदन तो दे देते हैं लेकिन एक्शन प्लान नहीं देते कि वो किस तरह काम करेंगे और पैसा किस तरह खर्च करेंगे. एनजीओ को फ़ंड का प्रपोज़ल भी देना पड़ता है. जितने पैसे का एनजीओ प्रपोज़ल देगा, उतना फ़ंड मिल जाएगा. एक बार एक एनजीओ सिलेक्ट हुआ था लेकिन फिर उसने फ़ंड का प्रपोज़ल नहीं दिया."
महाजन का कहना है कि ये एक सामाजिक समस्या है, इसे डंडे की नोक पर ठीक नहीं किया जा सकता.
लेकिन हिना का कहना है कि इस कुप्रथा के न रुक पाने की एक वजह पुलिस और प्रशासन की नाकामी भी है.
उनका आरोप है कि नाबालिग लड़कियां हाइवे पर खुलेआम वेश्यावृत्ति के लिए बैठी रहती हैं लेकिन पुलिस और प्रशासन मूक दर्शक बना हुआ है.
हिना का आरोप है कि 'पुलिस इन लड़कियों से हफ़्ता वसूल करती है और ठोस कार्रवाई नहीं करती. अगर कभी करती भी है तो पैसा लेकर छोड़ देती है.'

मंदसौर के एसपी मनोज कुमार सिंह से मिले और पूछा कि पुलिस इस कुप्रथा को रोकने के लिए क्या कर रही है.
उन्होंने कहा कि पुलिस वक्त-वक्त पर कार्रवाई करती है. "कुछ लड़कियों को यहां ट्रैफ़िक करके भी लाया जा रहा है. उनमें से कईयों को भी पुलिस ने छुड़वाया है."
उनका कहना है कि "समुदाय के लोग ह्यूमन ट्रैफ़िकिंग में भी लड़कियां ख़रीदते थे. पिछले समय में हम लोगों ने लगभग 40 से 50 लड़कियों को रेस्क्यू किया है. हाल में ट्रैफ़िक करके लाई गई एक दो साल की बच्ची को बचाया है. पकड़े जाने वालों पर इमोरल ट्रैफ़िक (प्रिवेंशन) एक्ट की धारा लगती है. माइनर का रेप माना जाता है उसमें पॉस्को की धाराएं लगती हैं."
"ये सभी धाराएं संज्ञेय हैं और ग़ैर-ज़मानती अपराध हैं. हम गिरफ़्तार करके इन्हें कोर्ट में पेश कर देते हैं. कोर्ट की प्रक्रिया के तहत ही उन्हें ज़मानत मिलती है."

एसपी मनोज कुमार सिंह का कहना है, "पुलिस कोशिश करती रहती है, पुलिस बार-बार रेड मारती है लेकिन ये समाजिक समस्या है और समाज द्वारा ही इस समस्या को दूर किया जा सकता है."
समुदाय के ही एक युवा आकाश चौहान ने इस देह व्यापार को रोकने के लिए हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दाख़िल की हुई है, जिसकी अंतिम सुनवाई बाक़ी है. उन्हें उम्मीद है एक अच्छा फ़ैसला आएगा.
इस बीच हिना अपनी छोटी कोशिशों से बड़े बदलाव लाने की कोशिशें कर रही हैं.
उनका कहना है कि मैं ज़्यादा से ज़्यादा लड़कियों को इस दलदल से निकालने की कोशिश कर रही हूं. उन्होंने कहा, "मुझे काम करना है और अपनी गुड़िया को पढ़ा-लिखाकर क़ाबिल बनाना है."

इनका भी कुछ कम योगदान नही

इलाहाबाद शहर की एक अदालत में एक मई 1958 को एक जवान महिला पर सभी की आंखें टिकी हुई थीं.

24 वर्षीया हुसैन बाई ने न्यायाधीश जगदीश सहाय से कहा कि वह एक वेश्या थीं. संविधान का हवाला देते हुए उन्होंने मानव तस्करी पर प्रतिबंध लगाने के लिए आए एक नए क़ानून को चुनौती देने वाली याचिका दायर की थी.
बाई की दलील थी कि आजीविका के साधनों पर हमला करके नए क़ानून ने देश में संविधान द्वारा स्थापित कल्याणकारी राज्य के उद्देश्य के विपरीत काम किया है.
ये एक समाज विद्रोही क़दम था जो एक ग़रीब मुस्लिम वेश्या ने उठाया था. उन्होंने न्यायाधीशों को सड़क की उन महिलाओं को देखने के लिए मजबूर कर दिया था जब भारतीय समाज से वेश्याओं को बाहर रखा हुआ था.
आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, उनकी संख्या - 1951 में 54,000 से घटकर 28,000 हो गई थी और उनके लिए सार्वजनिक समर्थन भी. जब वेश्याओं ने कांग्रेस पार्टी को चंदे की पेशकश की तो महात्मा गांधी ने इनकार कर दिया था.
बावजूद इसके कि वेश्याएं उन लोगों के कुछ समूहों में से थीं जिन्हें मतदान करने की इजाज़त थी क्योंकि वे पैसे कमाती थीं, टैक्स देती थीं और उनके पास अपनी संपत्ति भी थी.

हुसैन बाई के निजी जीवन के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है और किसी आर्काइव में कोई तस्वीर भी नहीं मिली. उनके बारे में इतना पता चला कि वह अपनी कज़िन बहन और दो छोटे भाइयों के साथ रहती थीं जो उनकी कमाई पर निर्भर थे.
लेकिन येल यूनिवर्सिटी के इतिहासकार रोहित डे की नई किताब में बाई की व्यापार को चलाने के अधिकार के लिए संघर्ष की भूली-बिसरी कहानी भी शामिल है.
'ए पीपल्स कांस्टिट्यूशन: लॉ एंड एवरीडे लाइफ़ इन द इंडियन रिपब्लिक एक्सपलोर्स' किताब इस बात की पड़ताल करती है कि भारतीय संविधान, कुलीन लेखकों के लिखे जाने और विदेशी अतीत होने के बावजूद, भारत के औपनिवेशिक राज्य से लोकतांत्रिक गणराज्य में तब्दील होने के दौरान रोज़मर्रा की ज़िंदगी और कल्पना के साथ आया था.
देशभर में महिलाओं के बड़े आंदोलन के हिस्से के रूप में हुसैन बाई की कहानी को बताने के लिए रोहित डे अदालती रिकॉर्ड पर निर्भर थे क्योंकि किसी भी आर्काइव में बाई की जानकारी नहीं थी.
बाई की याचिका से लोगों में चिंता और दिलचस्पी दोनों बढ़ी.
नौकरशाहों और राजनेताओं ने इस पर काफ़ी बहस की और लंबे काग़ज़ी दस्तावेज़ बने. इलाहाबाद की वेश्याओं का एक समूह और नृतक लड़कियों की यूनियन इस याचिका के समर्थन में आए.

दिल्ली, पंजाब और बॉम्बे की अदालतों में भी वेश्याओं की इस तरह की याचिकाएं बढ़ने लगीं.
बॉम्बे में रहने वाली एक वेश्या बेगम कलावत को शिकायत के बाद शहर से बेदख़ल कर दिया गया था क्योंकि वह स्कूल के पास अपना व्यापार कर रही थीं.
वह उच्च न्यायालय में पहुंची और तर्क दिया कि उनके समानता के अधिकार और व्यापार और आने-जाने की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन हुआ है.
नए क़ानून ने वेश्याओं को अपने भविष्य को लेकर परेशानी में डाल दिया था. उन्होंने अदालत में इस क़ानून से लड़ने के लिए ग्राहकों और स्थानीय व्यापारियों से धन इकट्ठा किया.
एक पेशेवर गायक और नर्तकियों के एसोसिएशन की सदस्या होने का दावा करने वाली कुछ 75 महिलाओं ने राजधानी दिल्ली में संसद के बाहर प्रदर्शन भी किया.

उन्होंने सांसदों से कहा कि उनके पेशे पर हमला इस पेशे को सम्मानजनक क्षेत्रों में फैला देगा.

गायक, नृतक और 'बदनाम' समझी जाने वाली 450 महिलाओं ने भी नए क़ानून से लड़ने के लिए एक यूनियन बनाई. इलाहाबाद में नृतक लड़कियों के एक समूह ने घोषणा की कि इस क़ानून के विरोध में वे प्रदर्शन करेंगी क्योंकि यह 'संविधान में निर्धारित किसी भी पेशे को अपनाने के अधिकार पर स्पष्ट अतिक्रमण था.'
कलकत्ता के रेड लाइट इलाक़े की 13 हज़ार सेक्स वर्करों ने आजीविका के वैकल्पिक साधन नहीं दिए जाने की सूरत में भूख हड़ताल पर जाने की धमकी दी.
पुलिस और सरकार ने हुसैन बाई की याचिका पर अपनी चिंता व्यक्त की. ये हैरानी की बात नहीं थी कि इस याचिका को महिला सांसदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के विरोध का सामना करना पड़ा जो मानव तस्करी के ख़िलाफ़ क़ानून के लिए अभियान चला रही थीं.

इतिहासकार रोहित डे बताते हैं कि उस वक़्त आलोचक वेश्याओं के संवैधानिक सिद्धांतों के आह्वान पर हैरान थे.
"हुसैन बाई की याचिका और उसके बाद की ऐसी याचिकाओं को नए गणराज्य के प्रगतिशील एजेंडे पर हमले के रूप में देखा गया."
भारत की संविधान सभा में कई महिलाएं शामिल थीं जिन्हें अनुभवी आयोजक माना जाता था, उनका तर्क था कि महिलाओं ने वेश्या बनने का विकल्प नहीं चुना है और परिस्थितियों के कारण मजबूरी में उन्हें ये पेशा अपनाना पड़ता है.
शायद इन याचिकाओं ने उन्हें चौंकाया होगा कि वेश्याओं ने अपना व्यापार जारी रखने के लिए और निम्न दर्जे की ज़िंदगी जीने के लिए मौलिक अधिकारों की दुहाई दी.

बारीकी से देखा जाए तो यह स्पष्ट होता है कि यह किसी व्यक्ति का साहस भरा क़दम नहीं था बल्कि पूरे भारत में यौन व्यापार में लिप्त लोगों के संगठन की सामूहिक कार्रवाई का एक हिस्सा था."
"ये साफ़ था कि जो लोग सेक्स व्यापार में लिप्त थे, वे पहले से ही अपने पेशे पर ख़तरा महसूस कर रहे थे और इस नए क़ानून ने दबाव को और बढ़ा दिया था."
बाई की याचिका को तकनीकी आधार पर दो हफ्तों के भीतर ख़ारिज कर दिया गया था.

कहा गया कि उनके अधिकारों को अभी तक नए क़ानून से चोट नहीं पहुंची है क्योंकि ना उन्हें अपने काम से बेदख़ल किया गया था और ना ही उनके ख़िलाफ़ कोई आपराधिक शिकायत की गई थी.
न्यायाधीश सहाय ने कहा कि बेदख़ल पर उनके तर्क सही थे लेकिन न्यायाधीश ने और कुछ नहीं कहा.
आख़िरकार, सुप्रीम कोर्ट ने क़ानून को संवैधानिक रूप से सही पाया और कहा कि वेश्याएं आजीविका के अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगी.

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