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अध्याय 2

16 जनवरी 2023

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चलते चलते सुबह के चार बजने को आ गए हैं। अभी थोड़ी दूर कुछ पशु पालकों की बुदबुदाहट और पशुओं के रंभाने की आवाज़ सुनाई देने लगी है। अचानक पैर पड़ जाने से कुत्ते की चीख निकलने के साथ ही उस अधेड़ की विचार तंद्रा भंग हुई। पिछले एक पहर से वह विचार तंद्रा में ही तो था।
एक जाने माने ज़मींदार के घर उसका जन्म हुआ था। नाम रखा गया 'स्नेहमल'। सब लोग प्यार से उसे 'स्नेहू' पुकारते थे। पिता का नाम पूरनमल था। चार भाई बहनों में सबसे छोटा था, स्नेहू। सबसे छोटा था इसलिए सबका लाड़ला भी था। उसे अपने पढ़ाई के दिन याद आने लगे . . .।
एक चार-पाँच साल का लड़का अपने बड़े भाई-बहनों के साथ पीछे-पीछे खिंचा चला जा रहा है। उसके हाथ में टाट का बना हुआ बस्ता है। उस बस्ते में स्लेट और चाक रखी हुई है। बस्ते में वज़न तो न के बराबर है लेकिन चार-पाँच साल के लड़के के लिए ये ही बहुत ज़्यादा है। पिता का मानना है कि बच्चों को स्वावलंबी होना चाहिए। अतः वे उसके बड़े भाई बहनों से उसकी कोई भी मदद करने की मना कर देते हैं। वह न केवल रेत में बहुत दूर तक पैदल चलकर अपनी शाला जाता है बल्कि अपना बस्ता भी ख़ुद ही लेकर जाता है। भाई बहनों में कोई भी उसको गोदी तो दूर उसके बस्ते को भी नहीं लेता है। शाला भी तो लगभग मील भर की दूरी पर है। स्नेहू पढ़ने लिखने में शुरू से ही ठीक रहा है। सब बच्चों में अव्वल ना भी रह पाता हो पर प्रमुख दो चार में उसकी गिनती ज़रूर होती है। बड़े भाई बहन पढ़ने लिखने में ज़्यादा कुशाग्र नहीं हैं।
एक दिन की बात है जब स्नेहू बच्चा ही था और अपनी कक्षा में न जाकर अपनी बहन के साथ उसकी ही कक्षा में चला गया तब उसके गुरूजी ने उसकी ख़ूब पिटाई की थी। तब उसने कुछ दिनों के लिए शाला ही जाना छोड़ दिया था। इसका प्रभाव यह हुआ कि उस गुरूजी को बड़ा पछतावा हुआ क्योंकि उसकी मासूमियत ही एसी थी कि हर किसी को उस पर दया आ जाये। उसमें बचपन से ही ऐसी दिव्यता थी कि जो भी उससे मिलता उसे प्रेम करने लगता।
अब स्नेहू बड़ा होने लगा है। उसके दोस्त बहुत ही कम हैं। इसका कारण यह है कि वह अपनी ही धुन में रहने वाला है। उसे मौज मस्ती में कोई दिलचस्पी नहीं है। उसे तो प्रकृति से ही अद्भुत प्रेम है। इसलिए उसके हमउम्र उसे ज़्यादा समय नहीं देते हैं। वह भी ज़्यादा सामाजिक होने की चाह नहीं रखता है। वह तो एकांत में ही रमता है। जीव-जंतु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे इत्यादि में ही उसका मन लगता है।
एक बार की बात है उसके पिताजी ने उसे खेत पर खलिहान की रखवाली करने बिठा दिया था। पास में ही कदंब का पेड़ और चाँदनी रात वह तो सब कुछ भुला कर मीरा के भजन में रम गया:
हरि तुम हरो जन की भीर।
द्रोपदी की लाज राखी, तुम बढायो चीर॥
भक्त कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर।
हिरणकश्यपु मार दीन्हों, धरयो नाहिंन धीर॥
बूडते गजराज राखे, कियो बाहर नीर।
दासि 'मीरा लाल गिरिधर, दु:ख जहाँ तहँ पीर॥
थोड़ी देर बाद जब उसके पिताजी घर से खाना खाकर लौटे तो देखते हैं कि वह तो खलिहान से कुछ दूर कदंब के पेड़ के नीचे बैठा ज़ोर की आवाज़ में भजन गाने में लीन है और उधर कुछ आवारा मवेशी खलिहान को उजाड़ रही है। पिताजी ने आकर ही उसे होश दिलाया और तब उन्हीं ने उस मवेशी को वहाँ से दूर भगाया। इस तरह से वह दुनियादारी से बेफ़िक्र होकर कबीर, तुलसी, बिहारी, सूरदास आदि-आदि संतों के भजनों में रम जाता था। ये उसका रोज़ का काम हो गया था।
इस तरह से सांसारिकता से दूर प्रकृति और अध्यात्म की छाँव में ही वह पलने बढ़ने लगा। एक ओर वह किशोरावस्था में प्रवेश कर रहा था उधर दूसरी ओर उसकी आध्यात्मिकता प्रगाढ़ होती जा रही थी। फ़सल को देख कर कल्पना करने लगता कि जिस तरह से ये गेहूँ, धान आदि के पौधे अपने शैशव को जीते हैं, उसके बाद बड़े होकर इनमें दाना पड़ता है, फिर ये पकते हैं और अंत में किसान अपने हंसिया से पकी हुई फ़सल को काट देता है। उसी प्रकार मनुष्य धरती पर जन्मता है फिर बचपन को जीकर जवान होने लगता है और उसके बाद उम्र पक जाने पर ईश्वर किसान ही की तरह अपने काल रूपी हंसिया से मनुष्य रूपी फ़सल को काट देता है।
अब वह किशोर हो गया है। और उसके पिता ने उसे आगे की पढ़ाई के लिए पास ही के शहर में जाने का फ़रमान सुना दिया है। उसे यह सुनकर बहुत ही दुख हुआ और शहर जाने से इंकार कर दिया। वह पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, जीवजंतु आदि को छोड़कर कहीं भी नहीं जाना चाहता था। तब उसके पिता ने स्पष्ट कह दिया कि तुझे शहर तो जाना ही होगा और अब तेरा इस कल्पना लोक से निकल कर वास्तविक लोक में आने का समय हो गया है। तूने बहुत इनसे मन लगा लिया। इससे तेरा पेट तो भर नहीं जाएगा। पेट भरने के लिए व्यावहारिक ज्ञान की ज़रूरत होती है और उसके लिए शहर जा और वहाँ लोगों से घुल-मिल कर सामाजिक विकास करते हुए अपने जीवन को व्यवाहरिक बना। बिना व्यवहारिकता के जीवन जीना कठिन है।
पिता को मन ही मन एक चिंता ये भी हो रही थी कि कहीं हमारा बेटा वैरागी ना हो जाए क्योंकि उसकी सोच और हरकतें कुछ सालों से वैरागी होने की ही नज़र आ रहीं थीं। कहीं बेटा संन्यासी ना हो जाये इस डर से पिता ने अंततः उसे उसके बड़े भाई के पास शहर भेज दिया।
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अध्याय 3
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रचनाएँ
प्रेम का पुरोधा
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यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो अपने जीवन को दूसरों के लिए होम कर देता है।स्नेहमल नाम का यह व्यक्ति अपने दृढ़ चरित्र से अन्य लोगों के चरित्र को गढ़ता हुआ चलता है।इसके जीवन में कई समस्याएं भी आती हैं लेकिन वह संत स्वभाव का होने के कारण समस्त समस्याओं को पार पाने में सफल होता है।वह बहते हुए पानी की तरह निर्मल स्वभाव का धनी होने के नाते लोगों के मनों में व्याप्त बुराइयों को प्रच्छालित करता हुआ अपनी जीवन यात्रा को मुस्कुराते हुए समाप्त कर अनन्त यात्रा की ओर सफर कर जाता है।
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समर्पित

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कुलगौरव परदादा स्व. बौ. श्री यादराम शर्मा \ भूमिका

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भूमिका

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उपन्यास लिखना जितना प्रतिभा का विषय है, उससे अधिक धैर्य का। कविता, कहानी, निबंध में हाथ आजमाने के बाद करीब साल भर पूर्व मन में विचार कौंधा कि एक उपन्यास लिखा जाए! यह विचार अकेला प्रस्फुटित नहीं हुआ, इ

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अध्याय 1

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रेत का समंदर चारों ओर फैला हुआ है। रात में चाँदनी ऐसी लगती है मानो रेत पर दूध उड़ेल दिया हो। पूर्णिमा का चाँद ऐसा नज़र आता है मानो साक्षात्‌ राम के सिर के पीछे धवल ज्योति पुंज देदीप्यमान हो रहा हो। चार

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अध्याय 2

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चलते चलते सुबह के चार बजने को आ गए हैं। अभी थोड़ी दूर कुछ पशु पालकों की बुदबुदाहट और पशुओं के रंभाने की आवाज़ सुनाई देने लगी है। अचानक पैर पड़ जाने से कुत्ते की चीख निकलने के साथ ही उस अधेड़ की विचार त

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अध्याय 3

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अब वह शहर पहुँच चुका है लेकिन उसका मन बिल्कुल ही नहीं लग रहा। उसे तो अपने उस जीवन की ही याद आ रही थी जहाँ प्राकृतिक और आध्यात्मिक माहौल था। पक्षियों का कलरव, गाय के बछड़े का उछल कूद, उस घर के आँगन में

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अध्याय 4

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शादी की रस्में शुरू होने को हैं। ये सोच स्नेहू की माँ बहुत ही ख़ुश है। बेटे की शादी होने पर माँ ही है जिसे सबसे ज़्यादा ख़ुशी होती है। उसकी माँ को थोड़ा सा दुःख है तो सिर्फ़ इसलिए कि संतानों की शादी की शुर

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अध्याय 5

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स्नेहू और रीता के दिन ख़ुशी-ख़ुशी गुज़रने लगे। धीरे-धीरे ज़िम्मेदारी बढ़ने लगी। शादी को पाँच वर्ष होने को हैं। दो बच्चे हैं। लेकिन अभी कोई रोज़गार नहीं मिला है। माँ बाप भी शादी होने तक ही साथ देते हैं। शाद

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अध्याय 6

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स्नेहमल अपनी जवानी के दिनों को याद करता था। यही गुरु थे यही कुटिया थी। वह अपने उन दिनों को याद करके भाव भिवोर हो जाता था, प्रेमल दास की कुटिया में स्नेहू अब रोज़ जाने लगा था। प्रेमल दास जितनी स्नेहू की

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अध्याय 7

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गुरुजी के मार्गदर्शन में वह अपनी ज़िन्दगी जी रहा था। मानव सेवा ही अब उसका धर्म बन चुका था। स्नेहमल ने एक अनाथालय से सम्पर्क कर लिया, जहाँ वह हर महीने आर्थिक और शारीरिक मदद करने पहुँच जाता। अपनी दिनचर्य

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अध्याय 8

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स्नेहमल ने महामारी से लड़ने के लिए जो साहस दिखाया उसके कारण लोग उसे देवता मानने लगे। स्नेहमल ने कई लोगों की जान बचाई। लोगों ने उसके इस परोपकार के लिए उसे संत का दर्जा दे दिया। इस तरह समाज ने उसे इस पु

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अध्याय 9

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स्नेहमल रीता के जाने के बाद बिल्कुल अकेला रह गया था। बेटी और बेटा रीता की मौत की ख़बर सुनकर आए तो थे लेकिन उसकी तेरहवीं करके चले गए। बेटा ने उससे अपने साथ चलने की ज़िद भी की थी लेकिन उसने साथ चलने से इं

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गाँव में प्रवेश करते ही उसे लोग आते–जाते दिखने लगे। सभी लोग अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त थे। कुछ अपनी मवेशियों को चारा डाल रहे थे, कुछ मवेशियों का दूध दुहने में व्यस्त थे, कुछ अपने नित्य कर्मों में व

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खाना खाने के बाद दिन में स्नेहमल को लेटे-लेटे नींद आ गयी। तभी दो नौजवान उस महिला से ठाकुर के बेटे से न मिलने की कहने आए। वह महिला बिचारी उन के सामने हाथ जोड़े गुहार लगा रही थी कि मुझे तो तुम धमका दोगे

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रात होते होते स्नेहमल को नींद आ गयी। घर के अंदर जाकर वह महिला अपने कामों को निपटाने में लग गयी। एक गहरी नींद लेने के बाद पास में उस घर से आ रही बुदबुदाहट से उसकी निद्रा में कुछ अड़चन आयी। लेकिन वह उस

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पिछली रात को जैसे ही ठाकुर का बेटा उस महिला से मिलकर अपने घर पहुँचा वैसे ही उसके कमरे के बाहर दारु पीकर धुत्त पड़ा पहरेदार को अचानक से चेत हो गया। चेत होते ही उसे कमरे में से कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। आवा

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तीनों ही पेड़ से बँधे बेहोशी की हालत में बारिश में भीग रहे थे। कोई भी इस जहान में ऐसा नहीं था जो उन्हें होश में ला सके, सँभाल सके। लेकिन प्रकृति की नज़र में तो सब बराबर हैं। वह सभी पर बराबर नेह बरसाती

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सुबह होते ही स्नेहमल अपने नित्य कर्मों से फ़ारिग़ हो गया। थोड़ी देर बाद वह घर से ठाकुर से मिलने निकल गया। साथ में उस ठाकुर के बेटे के वफ़ादार नौकर वेश बदलकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे। उन सब ने साधुओं का व

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स्नेहमल ठाकुर के गाँव को छोड़कर दूसरे गाँव की ओर चला जा रहा था। उसका मन विचारों में डूबा हुआ था। वह सोचता हुआ जा रहा था कि जिन बच्चों को पाल-पोस कर इतना बड़ा कर दिया वही उसके सगे बच्चे आज उसे पहचान नहीं

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अध्याय 17

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स्नेहमल अपनी लंबी यात्रा के बाद एक गाँव में ठहरा। गाँव में एक तालाब के किनारे पेड़ की छाँव में बैठ गया। पास ही में एक कुएँ से पानी खींचकर उसने अपनी प्यास बुझाई और अपनी बोतल को भर लिया। वहीं पर वह अपने

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अध्याय 18

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स्नेहमल सोचने लगा कि पागलपन दुनिया का वह कड़वा सच है जो पूरी दुनिया को आईना दिखाता है। दुनिया जिन लोगों के पागलपन पर हँसती है वह वास्तविक रूप में ख़ुद पर हँस रही होती है। पागल और शराबी एक जैसे होते हैं

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अध्याय 19

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सर्दियों के दिन थे, अँधेरा गहराया हुआ था। स्नेहमल एक वीरान जगह में होकर गुज़र रहा था कि अचानक उसे किसी से ठोकर लगी और गिर पड़ा। उसने जब नीचे की ओर निगाह डाली तो देखा कि जर्जर, फ़टे पुराने कपड़े पहना हुआ,

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अध्याय 20

16 जनवरी 2023
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पौ फटते ही स्नेहमल उस व्यक्ति को लेकर उस गाँव में पहुँचा। हालाँकि वह व्यक्ति इतना डरा और सहमा हुआ था कि वह सुबह बमुश्किल ही गाँव चलने को राज़ी हो पाया था। लेकिन स्नेहमल उसे साहस देते हुए यहाँ लाया था।

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अध्याय 21

16 जनवरी 2023
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सुबह होते ही उस धनराम नाम के ज़मींदार ने गाँव के लोगों को इकट्ठा किया। रात को आये ख़्वाब के बारे में सभी को बताया। पहले तो किसी ने भी उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन जब उसने लोगों से बहुत ही ज़िद क

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