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अध्याय 1

16 जनवरी 2023

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रेत का समंदर चारों ओर फैला हुआ है। रात में चाँदनी ऐसी लगती है मानो रेत पर दूध उड़ेल दिया हो। पूर्णिमा का चाँद ऐसा नज़र आता है मानो साक्षात्‌ राम के सिर के पीछे धवल ज्योति पुंज देदीप्यमान हो रहा हो। चारों ओर निर्जन ही निर्जन नज़र आ रहा है। मध्य रात्रि होने को है। एक अधेड़ आदमी चला जा रहा है। वह आदमी एक धवल चोगे में लिपटा हुआ है जो सर से पैरों तक तन को ढँके हुए है। दायें हाथ में लाठी तथा बायें काँधे पर झोला लटका हुआ है जिसमें उसकी रोज़मर्रा का सामान रखा है। चाँद उसके पीछे ज्योतिपुंज की तरह नज़र आता है और रेत के टीले पर चलता हुआ यह आदमी कोई दिव्यआत्मा प्रतीत होता है। उस अधेड़ के चेहरे पर थोड़ी उम्र की झुर्रियाँ ज़रूर हैं पर चेहरे का तेज धवल चाँद के पुंज की ही तरह शांत किन्तु कांतिमय है।
इस अधेड़ का अंतर्मन शीशे की तरह बिल्कुल साफ़ है। जैसा अंदर वैसा ही बाहर। लेकिन फिर भी दुनिया ने इसको दुःख ही दिया है। कोई भी व्यक्ति इसको ढंग से आज तक नहीं समझ पाया और न ही किसी ने इसे समझने की कोशिश की। सभी ने इसकी मासूमियत का मज़ाक ही उड़ाया है। आज भी तो ऐसा ही हुआ है पास के गाँव वालों से ही तंग आकर तो मध्यरात्रि को कोई दूसरा ठिकाना ढूँढ़ने निकल पड़ा है। किसी ने भी एक रात्रि तक का सब्र नहीं किया। इसे भगा कर ही चैन लिया। इसका क़ुसूर बस इतना था कि जिस मंदिर में यह रह रहा था उस मंदिर के पुजारी की करतूत को इसने गाँव वालों को बता दिया। गाँव वालों ने उस बात को अपनी नाक बना लिया और पुजारी को दंडित करने के बजाय इसे ही गाँव से बाहर निकाल दिया।
बात बस इतनी थी कि पुजारी वैसे तो हरिजन को मंदिर चढ़ने नहीं देता है। शाम के अँधेरे में कल वह चुपके से कुछ चढ़ावा चढ़ा गया था। पुजारी वहाँ था नहीं। यह आदमी मंदिर में ही ठहरा हुआ था। इस आदमी ने उसका चढ़ावा रख लिया और मारे भूख के कुछ हिस्सा इस चढ़ावे में से खा लिया। हरिजन जब मंदिर से निकल रहा था तो इतने में ही पुजारी वहाँ आ पहुँचा और उसने आज के चढ़ावे का उस आदमी से हिसाब लिया। उस आदमी ने अपने भोलेपन से हरिजन की तरफ़ इशारा कर दिया। अभी तक सिर्फ़ कुछ ही चढ़ावा आ पाया था। उस आदमी ने बिना किसी छुआ-छूत के उस हरिजन का चढ़ावा मंदिर में रख लिया था। इस बात को जानकर पहले तो वह पुजारी थोड़ा परेशान दिखा। बाद में इधर-उधर निगाह डाल कर देखा। जब कोई आता नहीं दिखाई दिया तो पैसे और कपड़े पुजारी ने चुपके से रख लिए। लेकिन खाने में आए फलों में से कुछ को वह आदमी खा चुका था। पुजारी ने सामान चुप-चाप रख लिया और सब के सामने उसे मारने लगा। कहने लगा कि तूने हरिजन को मंदिर क्यों चढ़ने दिया और उसका चढ़ावा क्यों रख लिया? उस आदमी ने फलों को खाने की बात कही और शेष पुजारी को दे देने की बात कही। लेकिन किसी ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। वहाँ पर इकट्ठे सभी लोग पुजारी का ही पक्ष लेने लगे।
दो ही दिन तो हुए थे अधेड़ को इस गाँव में आए। लेकिन पुजारी को तो वह आँख का काँटा नज़र आने लगा था। उसे डर था कहीं यह आदमी इस मंदिर में ही न जम जाए। अगर यह आदमी यहीं जम गया तो उसका सारा धंधा चौपट हो जाएगा। किसी भी तरह से वह इसे इस गाँव से निकालकर भगाना चाहता था। आज ईश्वर ने उसे मौक़ा दे दिया था तो उसने इसे निकलवा दिया। गाँव वालों के सामने हरिजन ने मंदिर में चढ़ने को क़ुबूल कर लिया था और पुजारी की जान से मारने की धमकी सुन कर हरिजन बुरी तरह डर गया और उसने सबके सामने झूठ-मूठ का ही स्वीकार कर लिया कि इस आदमी ने मुझसे खाने के लिए कुछ माँगा जब मैं मंदिर की साफ़-सफ़ाई करने आया था। मुझे दया आ गयी तो मैं इसके लिए चढ़ावे का बहाना करके कुछ फल ले आया। साथ में कुछ कपड़े और पैसे भी ले आया जिससे इस परदेसी को कुछ मदद मिल सके। मंदिर के पास आते ही इसने कहा कि चढ़ावा लेकर ऊपर ही आजा अब कोई नहीं है तो मैं इसकी बातों में आ गया। नहीं तो मैं इसे नीचे से ही चढ़ावा दे रहा था। जबकि वास्तविकता कुछ और ही थी . . .
वास्तविकता में अधेड़ को हरिजन पर दया आ गयी थी जब उस हरिजन ने इस से मंदिर में दर्शन की विनती की थी। अधेड़ ने कहा कि तुम भी ईश्वर की ही संतान हो। मन्दिर भी आ सकते हो। लेकिन पुजारी ने इस बात का पुरज़ोर विरोध किया जबकि चढ़ावे के कपड़े और पैसे लेने में क़तई देर नहीं की। तभी अपनी नाक रखने के लिए और बदनामी के डर से पुजारी और गाँव वालों ने इसे निकाल दिया। हरिजन को इस तरह उसके कारण इस अधेड़ को निकाले जाने का दुख बहुत हुआ। लेकिन वह अपने मन को मसोसकर रह गया और चाहते हुए भी कुछ न कर पाया। पश्चाताप के आँसू अपनी आँखों में लिए वह उस आदमी को रात में जाते हुए एकटक देखता रहा।
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अध्याय 2
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रचनाएँ
प्रेम का पुरोधा
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यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो अपने जीवन को दूसरों के लिए होम कर देता है।स्नेहमल नाम का यह व्यक्ति अपने दृढ़ चरित्र से अन्य लोगों के चरित्र को गढ़ता हुआ चलता है।इसके जीवन में कई समस्याएं भी आती हैं लेकिन वह संत स्वभाव का होने के कारण समस्त समस्याओं को पार पाने में सफल होता है।वह बहते हुए पानी की तरह निर्मल स्वभाव का धनी होने के नाते लोगों के मनों में व्याप्त बुराइयों को प्रच्छालित करता हुआ अपनी जीवन यात्रा को मुस्कुराते हुए समाप्त कर अनन्त यात्रा की ओर सफर कर जाता है।
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समर्पित

16 जनवरी 2023
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कुलगौरव परदादा स्व. बौ. श्री यादराम शर्मा \ भूमिका

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भूमिका

16 जनवरी 2023
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उपन्यास लिखना जितना प्रतिभा का विषय है, उससे अधिक धैर्य का। कविता, कहानी, निबंध में हाथ आजमाने के बाद करीब साल भर पूर्व मन में विचार कौंधा कि एक उपन्यास लिखा जाए! यह विचार अकेला प्रस्फुटित नहीं हुआ, इ

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अध्याय 1

16 जनवरी 2023
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रेत का समंदर चारों ओर फैला हुआ है। रात में चाँदनी ऐसी लगती है मानो रेत पर दूध उड़ेल दिया हो। पूर्णिमा का चाँद ऐसा नज़र आता है मानो साक्षात्‌ राम के सिर के पीछे धवल ज्योति पुंज देदीप्यमान हो रहा हो। चार

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अध्याय 2

16 जनवरी 2023
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चलते चलते सुबह के चार बजने को आ गए हैं। अभी थोड़ी दूर कुछ पशु पालकों की बुदबुदाहट और पशुओं के रंभाने की आवाज़ सुनाई देने लगी है। अचानक पैर पड़ जाने से कुत्ते की चीख निकलने के साथ ही उस अधेड़ की विचार त

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अध्याय 3

16 जनवरी 2023
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अब वह शहर पहुँच चुका है लेकिन उसका मन बिल्कुल ही नहीं लग रहा। उसे तो अपने उस जीवन की ही याद आ रही थी जहाँ प्राकृतिक और आध्यात्मिक माहौल था। पक्षियों का कलरव, गाय के बछड़े का उछल कूद, उस घर के आँगन में

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अध्याय 4

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शादी की रस्में शुरू होने को हैं। ये सोच स्नेहू की माँ बहुत ही ख़ुश है। बेटे की शादी होने पर माँ ही है जिसे सबसे ज़्यादा ख़ुशी होती है। उसकी माँ को थोड़ा सा दुःख है तो सिर्फ़ इसलिए कि संतानों की शादी की शुर

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अध्याय 5

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स्नेहू और रीता के दिन ख़ुशी-ख़ुशी गुज़रने लगे। धीरे-धीरे ज़िम्मेदारी बढ़ने लगी। शादी को पाँच वर्ष होने को हैं। दो बच्चे हैं। लेकिन अभी कोई रोज़गार नहीं मिला है। माँ बाप भी शादी होने तक ही साथ देते हैं। शाद

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अध्याय 6

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स्नेहमल अपनी जवानी के दिनों को याद करता था। यही गुरु थे यही कुटिया थी। वह अपने उन दिनों को याद करके भाव भिवोर हो जाता था, प्रेमल दास की कुटिया में स्नेहू अब रोज़ जाने लगा था। प्रेमल दास जितनी स्नेहू की

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अध्याय 7

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गुरुजी के मार्गदर्शन में वह अपनी ज़िन्दगी जी रहा था। मानव सेवा ही अब उसका धर्म बन चुका था। स्नेहमल ने एक अनाथालय से सम्पर्क कर लिया, जहाँ वह हर महीने आर्थिक और शारीरिक मदद करने पहुँच जाता। अपनी दिनचर्य

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अध्याय 8

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स्नेहमल ने महामारी से लड़ने के लिए जो साहस दिखाया उसके कारण लोग उसे देवता मानने लगे। स्नेहमल ने कई लोगों की जान बचाई। लोगों ने उसके इस परोपकार के लिए उसे संत का दर्जा दे दिया। इस तरह समाज ने उसे इस पु

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अध्याय 9

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स्नेहमल रीता के जाने के बाद बिल्कुल अकेला रह गया था। बेटी और बेटा रीता की मौत की ख़बर सुनकर आए तो थे लेकिन उसकी तेरहवीं करके चले गए। बेटा ने उससे अपने साथ चलने की ज़िद भी की थी लेकिन उसने साथ चलने से इं

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अध्याय 10

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गाँव में प्रवेश करते ही उसे लोग आते–जाते दिखने लगे। सभी लोग अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त थे। कुछ अपनी मवेशियों को चारा डाल रहे थे, कुछ मवेशियों का दूध दुहने में व्यस्त थे, कुछ अपने नित्य कर्मों में व

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अध्याय 11

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खाना खाने के बाद दिन में स्नेहमल को लेटे-लेटे नींद आ गयी। तभी दो नौजवान उस महिला से ठाकुर के बेटे से न मिलने की कहने आए। वह महिला बिचारी उन के सामने हाथ जोड़े गुहार लगा रही थी कि मुझे तो तुम धमका दोगे

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अध्याय 12

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रात होते होते स्नेहमल को नींद आ गयी। घर के अंदर जाकर वह महिला अपने कामों को निपटाने में लग गयी। एक गहरी नींद लेने के बाद पास में उस घर से आ रही बुदबुदाहट से उसकी निद्रा में कुछ अड़चन आयी। लेकिन वह उस

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अध्याय 13

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पिछली रात को जैसे ही ठाकुर का बेटा उस महिला से मिलकर अपने घर पहुँचा वैसे ही उसके कमरे के बाहर दारु पीकर धुत्त पड़ा पहरेदार को अचानक से चेत हो गया। चेत होते ही उसे कमरे में से कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। आवा

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अध्याय 14

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तीनों ही पेड़ से बँधे बेहोशी की हालत में बारिश में भीग रहे थे। कोई भी इस जहान में ऐसा नहीं था जो उन्हें होश में ला सके, सँभाल सके। लेकिन प्रकृति की नज़र में तो सब बराबर हैं। वह सभी पर बराबर नेह बरसाती

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अध्याय 15

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सुबह होते ही स्नेहमल अपने नित्य कर्मों से फ़ारिग़ हो गया। थोड़ी देर बाद वह घर से ठाकुर से मिलने निकल गया। साथ में उस ठाकुर के बेटे के वफ़ादार नौकर वेश बदलकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे। उन सब ने साधुओं का व

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अध्याय 16

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स्नेहमल ठाकुर के गाँव को छोड़कर दूसरे गाँव की ओर चला जा रहा था। उसका मन विचारों में डूबा हुआ था। वह सोचता हुआ जा रहा था कि जिन बच्चों को पाल-पोस कर इतना बड़ा कर दिया वही उसके सगे बच्चे आज उसे पहचान नहीं

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अध्याय 17

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स्नेहमल अपनी लंबी यात्रा के बाद एक गाँव में ठहरा। गाँव में एक तालाब के किनारे पेड़ की छाँव में बैठ गया। पास ही में एक कुएँ से पानी खींचकर उसने अपनी प्यास बुझाई और अपनी बोतल को भर लिया। वहीं पर वह अपने

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अध्याय 18

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स्नेहमल सोचने लगा कि पागलपन दुनिया का वह कड़वा सच है जो पूरी दुनिया को आईना दिखाता है। दुनिया जिन लोगों के पागलपन पर हँसती है वह वास्तविक रूप में ख़ुद पर हँस रही होती है। पागल और शराबी एक जैसे होते हैं

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अध्याय 19

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सर्दियों के दिन थे, अँधेरा गहराया हुआ था। स्नेहमल एक वीरान जगह में होकर गुज़र रहा था कि अचानक उसे किसी से ठोकर लगी और गिर पड़ा। उसने जब नीचे की ओर निगाह डाली तो देखा कि जर्जर, फ़टे पुराने कपड़े पहना हुआ,

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अध्याय 20

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पौ फटते ही स्नेहमल उस व्यक्ति को लेकर उस गाँव में पहुँचा। हालाँकि वह व्यक्ति इतना डरा और सहमा हुआ था कि वह सुबह बमुश्किल ही गाँव चलने को राज़ी हो पाया था। लेकिन स्नेहमल उसे साहस देते हुए यहाँ लाया था।

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अध्याय 21

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सुबह होते ही उस धनराम नाम के ज़मींदार ने गाँव के लोगों को इकट्ठा किया। रात को आये ख़्वाब के बारे में सभी को बताया। पहले तो किसी ने भी उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन जब उसने लोगों से बहुत ही ज़िद क

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