उपन्यास लिखना जितना प्रतिभा का विषय है, उससे अधिक धैर्य का। कविता, कहानी, निबंध में हाथ आजमाने के बाद करीब साल भर पूर्व मन में विचार कौंधा कि एक उपन्यास लिखा जाए! यह विचार अकेला प्रस्फुटित नहीं हुआ, इसके साथ कहीं अवचेतन में एक कहानी भी आकार लेने लगी थी। एक कहानी, जो कही जानी थी- बताई जानी थी। तब विचार मंथन और साहित्यिक मित्रों के साथ चलने वाली चर्चाओं और उन चर्चाओं के सकारात्मक प्रतिफलन ने इस बात पर मुहर लगा दी कि इस कहानी को अब उपन्यास का रूप दिया ही जायेगा। ‘उपन्यास’ के विस्तार और उस विस्तार में आने वाली गठन की समस्याओं से मन पहले तो घबराया भी, किन्तु ‘वह एक और मन रहा राम का, जो न थका’ को याद करते हुए इसे एक चुनौती की तरह स्वीकार किया गया।उससे मिलने वाला प्रसाद एक रचनाकार को संतोष से तो भर ही देता है।
प्रस्तुत उपन्यास एक ऐसे व्यक्ति की कहानी बयाँ करता है जो अपने जीवन को दूसरों के लिए होम कर देता है। स्नेहमल नाम का यह व्यक्ति अपने दृढ़ चरित्र से अन्य लोगों को प्रेरित-प्रभावित करता हुआ चलता है। अपने जीवन की समस्याओं को यह सीढ़ी बनाकर अपनी मंज़िल में उनका भी योग ले लेता है। वह बहते हुए पानी की तरह निर्मल स्वभाव का धनी होने के नाते लोगों के मन में व्याप्त बुराइयों को प्रच्छालित करता है। अपनी जीवन यात्रा पर चलने के दौरान मिलने वाले राहगीरों का भला करने के बाद भी उनसे मिले रोष और द्वेष का भागी बनते हुए भी प्रसन्नता व प्रमुदित मन से अनन्त यात्रा की ओर सफ़र कर जाता है।
इस उपन्यास को लिखना एक पूरी मानसिक यात्रा को तय करने जैसा है। बिना परमपिता की ऊर्जा और परिवारीजनों के सहयोग इसका पुस्तकाकार रूप में आ पाना असंभव होता। इस उपन्यास को पूर्ण करने में मेरी जीवनसंगिनी रेनू शर्मा की प्रेरणा का महती योगदान रहा है। अपनी इच्छा-अनिच्छाओं को उन्होंने इस उपन्यास की तपस्या में होम कर दिया। धन्यवाद या आभार कहकर उनके इस त्याग को छोटा करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। मेरे छोटे भाई-बहिन (मनीष शर्मा-मंजीता शर्मा) इस उपन्यास की यात्रा में जरूरी रसद बनते रहे। उनसे भी छोटे मगर काम के सुझाव इस दौरान मिलते रहे।
मेरे दादा-दादी (स्व.बौ. श्री हुकमचंद शर्मा- स्व.श्रीमती रामदेई) का आशीर्वाद न होता तो यह उपन्यास अपनी पूर्णता को प्राप्त न कर पाता। मित्र सौम्य का योगदान इस अर्थ में कि समय बेसमय इस उपन्यास पर होने वाली चर्चाओं को वे अनथक और पूरी रूचि के साथ सुनते रहे और अपने अमूल्य सुझाव देते रहे, पुनः उनके लिए धन्यवाद एक औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं।
इस उपन्यास के संपादन में साहित्य कुंज के संस्थापक, मेरे पितृतुल्य श्री सुमन कुमार घई का विशेष योगदान रहा है। वे बराबर मुझे कुरेदते रहे ताकि सामाजिक – पारिवारिक जीवन की व्यस्तता के बावजूद यह उपन्यास अपना आकार ग्रहण कर पाया। बिना धैर्य की परीक्षा दिए सागर-मंथन जैसा यह काम अपनी पूर्णता को प्राप्त न कर पाता।
यह उपन्यास मेरी दूसरी पुस्तक है जो 'शब्द.in' पब्लिकेशन से प्रकाशित हो रही है।
जबकि मेरी पहली पुस्तक 'पत्थर नहीं है हृदय मेरा'एक काव्यसंग्रह है जिसमें मित्र सतीश सिंह राघव का काफी योगदान रहा।
यह उपन्यास अपने संपादन के दौरान समय समय पर मेरी परिवार रूपी बगिया में खिले नाना प्रकार के छोटे-छोटे पुष्प यथा: प्रियांशु,चारु,रितिका,रिया,वेद,लावण्या, मितांश, गार्गी,लोकित आदि का स्नेह रूपी सुगन्ध पाता रहा है।
अंत में सभी पाठकों का भी धन्यवाद जिन्होंने तकनीक के समय में पुस्तक चुनकर 'सहृदय सामाजिक' के विरुद को अर्थवत्ता प्रदान की है। यह उपन्यास अपने प्रयास में कितना सफल हो सका है, इसका फैसला मैं सुधी पाठकों पर छोड़ता हूँ....
आपका
प्रवीण कुमार शर्मा
खिजूरी,भरतपुर,राजस्थान।
अध्याय 1