आज आखरी साँझ है तो, चुप्पियाँ साधे हुए थे
नेकी कम की थी जो अब, बिछड़न को यूँ भोग रहे थे
हाथों में वो हाथ लिए हम, लकीरों से पूछ रहे थे
जब नहीं मिलना था तुमको, फिर क्यूँ ये व्याकरण गढ़ रहे थे...
जो आँखें सदा हँसती थी, आज हँसने से मुकर रहीं है
जिन होंठों ने गीत सुनाये, उन पर चुप्पियों का शाशन है
जिस हृदय को अपना समझे थे, उसका भी सौदा हो चुका है
जिन हाथों को अपना कहते थे, वो भी हमसे छूट चुका है
जिन बाँहों में जन्नत बसती थी, वो भी यूँ तो सिसक रहे थे
नभ के बादल गरज रहे थे, मानो रो कर बरस रहे थे
हाथों में वो हाथ लिए हम, लकीरों से पूछ रहे थे
जब नहीं मिलना था तुमको, फिर क्यूँ ये व्याकरण गढ़ रहे थे...
स्वप्न जो सारे देखे थे हमने, अब वो बिल्कुल बिखर गए हैं
पेड़ पे खिले सारे मंजर तो, फल बनने से पहले टूट गए हैं
अगर इस झील ने प्रश्न किया तो, क्या मैं इसको बतलाऊँगा
पत्थर क्यूँ नहीं फेंक रहे तुम, तो क्या उत्तर फिर दे पाऊँगा
अंतर्मन ने विवश किया तो, किसकी आगोश में खुद को सौंपूँगा
स्मरण हुआ कोई श्रृँगार तो फिर, किसके मुखड़े को देखूंगा
हाथों में वो हाथ लिए हम, लकीरों से पूछ रहे थे
जब नहीं मिलना था तुमको, फिर क्यूँ ये व्याकरण गढ़ रहे थे...
चौसर में बिदाई रातों को, तुम सदा ही याद रखना
शोहरतों का तुम सौदा पर, मेरे महक से ना करना
बाकी सब तो ठीक है बस, इस संध्या को मेहफूज़ रखना
हर दिवस को ना कहता हूँ, पर त्योहारों में याद रखना
लिपट कर मेरे सीने से वो, अब सिसकियाँ जो भर रही थी
प्रतीत हुआ मानो अब तो,चुप्पियाँ खुद बोल रही थी
आज आखरी बार सुने वो, आवाज़ जो रोज़ सुना करते थे
थरथराते होंठों से मगर, आज भगवद से लग रहे थे
हाथों में वो हाथ लिए हम, लकीरों से पूछ रहे थे
जब नहीं मिलना था तुमको, फिर क्यूँ ये व्याकरण गढ़ रहे थे..!!!