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समुंदर कहीं उलट न जाए आसमान में ( भाग 5 )

8 अगस्त 2022

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22   दरिया है समुंदर ढूंढ़ लेगा 

अभी है दरबदर घर ढूंढ़ लेगा 
वो दरिया है समुंदर ढूंढ़ लेगा 

उसे कश्ती चलाने दो नहीं तो 
वो तूफा़ं में मुकद्दर ढूंढ़ लेगा 

तलाशी खत्म होगी जिस्म की तब 
वो जब इक रूह का दर ढूंढ़ लेगा 

गिरा दे पेड़ तू फल खुद ही, वरना 
पके आमों को पत्थर ढूंढ़ लेगा 

समुंदर में गुहर इक छिपके सोचे 
मुझे भी कोई आकर ढूंढ़ लेगा 

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गुहर = मोती
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रचनाएँ
समुंदर कहीं उलट न जाए आसमान में
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समुंदर कहीं उलट न जाए आसमान में यह एक मिसरा (लाइन ) है जो मेरे एक शे'र का भाग है, शे'र जो मेरी एक ग़ज़ल का अंश है, ग़ज़ल जो मेरी इसी किताब का एक हिस्सा है....ऐसी कई परिकल्पनाएं होंगी इस किताब में। 42 साल के साहित्य सृजन में कोई 10 साल की है मेरे ग़ज़ल लेखन की उम्र। मैं मुशायरे या कवि सम्मेलन का शायर नहीं हूं। लेकिन मेरी हिंदुस्तानी ग़ज़लों को कई मान्य ग़ज़ल स्तंभों ने समर्थन दिया है। महान गीतकार पद्मभूषण गोपालदास नीरज, मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली (दोनों दिवंगत ), समीक्षक शायर डॉक्टर कलीम कैसर गोरखपुर, वरिष्ठ पत्रकार एवं छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी के पूर्व संचालक रमेश नैयर, डॉ. बशीर बद्र आदि ने मेरे दो प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह "दुबला पतला चांद" और "रेत की तह में दरिया" के ग़ज़लों की तारीफ़ की है। इन ग़ज़ल संग्रहों तथा कुछ नई पुरानी ग़ज़लों में से चुनकर यह किताब शब्द.इन के लिए तैयार होगी । इस किताब की सारी ग़ज़लें "बहर" में याने कि व्याकरण सम्मत फाइलातुन,मफाइलुन.... जैसी अनेक बंदिशों में है। इन्हें तरही ग़ज़ल के तौर पर पढ़ा जा सकता है, संगीत की धुन बनाकर गाया जा सकता है। मैंने ग़ज़लों का व्याकरण नई दिल्ली के उस्ताद शायर स्व डॉ. दरवेश भारती से सीखा है जो मृत्युपर्यंत " गजल के बहाने" के संपादक- प्रकाशक रहे और मुफ्त में इस पत्रिका को वितरित कर ग़ज़ल की सेवा करते रहे। अब ग़ज़ल गुरुओं की सम्मतियां: रंजीत की ग़ज़लों में सब नया : कवि गुरू नीरज की पाती ग़ज़ल के प्रमुख चार तत्व हैं। रस, तहजीब, संक्षिप्तता और संकेत- यह चारों ही तत्व ग़ज़ल की आत्मा हैं। रंजीत की ग़ज़लों में यह चारों तत्व प्राप्त होते हैं। ग़ज़ल होठों से कम, आंखों से ज़्यादा बोलती है यानी वह संकेतों की जुबान है। उनके शेर हैं- मैं अब भी झांकता हूं इसलिए हर नौजवां दिल में । कहीं उसमें नई दुनिया का इक नक़्शा न रक्खा हो ।। ऐ तितली, उंगलियों के पोर से तू खोल कर तो देख । किसी गुल की मुंदी आंखों में इक सपना न रक्खा हो ।। ग़ज़ल के इतिहास में रंजीत का यह संग्रह रेत की तह में दरिया निश्चित रूप से रेखांकित किया जाएगा। ( दि .20 /05 /2014 )।अन्य विद्वानों की सम्मतियां भी इस निःशुल्क किताब की शोभा बनेंगी। मैं 5-5 गजलें सप्ताह में दो बार देने का प्रयास करूंगा।किताब पढ़ें तो कुछ कहें जरूर।
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16 यूं तमन्नाएं हैं दिल में दर हुए खा़मोश सूनी खिड़कियां रहने लगीं घर में आबादी नहीं वीरानियां रहने लगीं कहकहों को हमने घर में दीं बहुत जगहें मगर छुप

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17 बस तितलियां गिनता रहा अब पूछ मत, जाने के तेरे बाद क्या करता रहा मैं धूप में उड़ती हुई बस तितलियां गिनता रहा अब तक फ़जा को हुबहू है याद वो सरगोशियां इक बार तू जो कह गया, सौ

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18 सफी़ना न दूंगा समंदर के हाथों अचानक घिरा मैं मुकद्दर के हाथों मेरा आशियां है बवंडर के हाथों मुझे पी चुके हैं ज़मीं-आसमां सब मैं दरिया चलूं अब समुंदर के हाथों जो बेटों

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19 कोई मुझ को खोज रहा है दुनिया को समझा जितना हूं उतना ही इस में उलझा हूं देर तलक क्यों चुप बैठा हूं शायद ज़्यादा बोल चुका हूं कोई मुझ को खोज रहा है फिर मैं किसको ढ

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20 समुंदर कहीं उलट न जाए आसमान में मेरे ख़्याल, तू भटक रहा है किस जहान में ये सीधी सड़क गई हुई है आसमान में यूं ऊपर लहर को खींच मत, ऐ चांद जोर से समुंदर कहीं उलट न जाये आसमान

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21 चांद देखो हंस रहाआ गया अनजाने ही मैं जानकर आता नहीं गर यही दुनिया है तब तो भूल कर आता नहीं तुम मिले कितने बरस में चांद देखो हंस रहा किसने बोला-वक्त़ फिर से लौट कर आता नहीं&nbsp

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23 ये जीवन की रेल दौड़ रहा है मंज़र पीछे, आगे भागी रेलचांद भी सरपट दौड़ा फिर भी पकड़ न आई रेलउस खिड़की पर पिया के कांधे लगकर सोई थी मैं नई दुल्हन की यादें लेकर बुढि़़या बैठ

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24 ये मेरी, वो तेरी ज़मींअब तलक कुदरत ने दुनिया में नहीं बेची ज़मींलोग फिर कहते हैं क्यों , ये मेरी-वो तेरी ज़मीं है फ़लक शौहर-सा, नौकर से हैं सूरज और चांद पीठ पर बोझा लिये फिरत

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