वैदिक साहित्य में मनुष्य के अस्तित्व को समझने के लिए दो भागों में बाँटा हैं :
१.आत्मा
२.अनात्मा
आत्मा के विषय में तो हम सुनते रहते हैं, आज अनात्मा को समझते हैं :
शरीर, इन्द्रिया, प्राण,मन, अहंकार आदि और उनके सभी तरह के परिर्वतन , इन्द्रिय विष्य और उनके सब दुख सुख आदि सब अव्यक्त्त, उस संसार को अनात्मा कहते हैं। अर्थात् स्थूल शरीर और इन्द्रियों का संसार ही अनात्मा हैं।
क्या इन्द्रियों का सुख ही सबसे बड़ा सुख ?
जिसने कभी सच्चे सुख, आनन्द का साक्षात्कार नही किया वह यह ही सोचता हैँ।
विवेक चूडामणि में आदि शंकराचार्य ने कहा हैं :
हिरण हाथी पंतगा, भ्रमर इन्द्रियो का दास होने के कारण खत्म हो जाते हैं ।
जरा सोचिए उस मनुष्य का क्या होगा जो इन्द्रियों का दास होगा, ऐसा मनुष्य, मनुष्य होते हुए भी पशु पक्षियों के सामान हैं।
हम सब को एक शरीर मिलता हैं, जिसमे पाँचो इन्द्रियाँ समान होती हैं, जिसके द्वारा हम स्थूल संसार का अनुभव करते हैं, पशु पक्षियों के पास भी यही शरीर और इन्द्रियाँ होती हैं ,पर मनुष्यों के पास एक विषेश तरह का विवेक होता है, जससे वह उचित अनउचित , सत्य असत्य का भेद करता हैं ताकि उसके उदेश्य में कोई व्यवधान न हो।
और जो मनुष्य विवेक हीन होते हैं इन्द्रियों के दास होते हैं, वे संसार के साथ साथ अपना भी नाश करते हैं, वे ही धर्म का भी नाश करते हैं।
स्थूल शरीर का विषय जो कु६ भी हैं वह अनात्मा के अंर्तगत आता हैँ।
माना की पंच तत्वो से बना यह शरीर अंत में पंच तत्वों में ही विलीन हो जाएगा, माना की स्थूल शरीर और इन्द्रियों के नाश से आत्मा नष्ट नही होती और ज्ञानेन्द्रियाँ सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहती , परन्तु इन इन्द्रियों के माध्यम से हम बाह्य जगत को अनुभव क२ पाते हैं, इसालिए हम स्थूल इन्द्रियों के महत्व को इन्कार नही क२ सकते।
हमारे स्थूल शरीर (अनात्मा) के ज्ञनेन्द्रियॉं, कर्मेन्द्रियाँ, मनस, बुद्धि और प्राण ही, हमारे ज्ञान का माध्यम हैं।
अन्तःकरण हमारी ज्ञनेन्द्रियों से अनुभव ले कर्मेन्द्रियों को कर्म करने का निर्देश देश देता हैं।
अतः मनुष्य को चाहिए कि, वह अपनी अनात्मा की सत्ता का सही तरह से उपयोग कर, शुद्ध अन्त:करण से स्वयं को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करें।