ब्रम्ह रहस्य के चार महावाक्य🌸🍁🌿
महावाक्य से उन उपनिषद वाक्यो का निर्देश है जो स्वरूप में लघु है, परन्तु बहुत गहन विचार समाये हुए है।
वो सब घोषणाए या वाक्य जो साधक और साध्य,
जीव और ब्रह्म को एक्य करती हैं, वे सब महावाक्य कहलाती हैँ।
पारम्परीक तरीके से चारों वेदो में एक महावाक्य को प्रतिनिधी महावाक्य माना गया हैं अतः हमारे पास चार महावाक्य हैँ।
कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद "शुकरहस्योपनिषद " में महर्षि व्यास के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य ये हैं-
१. ऋगवेद के ऐतरेय उपनिषद से प्रज्ञानं बह्म
२. यर्जूवेद के बृहदारण्यक उपनिषद से अहं ब्रह्मास्मि
३ . सामवेद के छन्दोग्य उपनिषद से तत् त्वमसि
४ अथर्ववेद के माण्डूक्य उपनिषद से अयं आत्मा ब्रह्म
लिया गया हैं।
१.प्रज्ञान्म ब्रह्म ( प्रकट ज्ञान ही ब्रह्म है ) को लक्षण वाक्य कहा गया है, क्यो की यह सर्वोच्च के लक्षण को चेतना रूप में बताता हैं। वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है।
जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है।
२.तत् त्वम् असि (वह ब्रह्म तुम ही हो ) उपदेश वाक्य हैं, क्योकी गुरु शिष्य को इसका उपदेश देता है, कि संपूर्ण जगत उससे ही बना हैं, मैं, तुम हम सभी अतः तुम ही वह हो। जैसे मिट्टी से बना घड़ा, स्वयं मिट्टी ही हैं, वैसे ही तुम वह ही हो।
३.अयं आत्मा ब्रह्म ( यह आत्मा ब्रह्म हैं ) इसे अनुसंशाधन वाक्य कहलाता हैं क्योकी साधक को इसका अनुसंधान करना होता हैं। स्वयं ध्यान साधना मनन चिन्तन से उस स्वयं के भीतर विद्यमान उस आत्मा को जानना हैं।
४.अहम् ब्रह्मास्मि ( मैं ही ब्रह्म हूँ ) को अनुभव वाक्य कहते हैं, जो की आपके ब्रह्म से एक होने का अनुभव हैं।
अन्त में जब जीव उस आत्मा का, ब्रह्म का अनुभव कर लेता हेै, तब दोनो के बीच द्वैत भाव नष्ट हो जाता हैँ तो वह स्वयं ही जान जाता हैं की मैं ही ब्रह्म हूँ।
अतः जब तक मन आत्मा में स्थित नही हो जाता, तब तक गुरु वाक्यों का श्रवण, शास्रो का अध्यन, उन विचारो का मनन और ध्यान करते रहना चाहिए ।
आत्मदीपः भवः 🍁🌸🙏