सारे अर्थ,
निरर्थक हो गए।
निकाले जो,
तुमने मेरे इरादों के।
खेल गया स्वार्थ,
अपना खेल पहले ही।
लगा दी बोली,
भरे बाजार में,
मेरे नादान जज्बातों की।
बांधे रखी थी अब तक,
डोर जो एक विश्वास की,
पलभर में ही टूट गई,
हर छड़ी वो आस की।
खड़े रहे हम मौन,
उन वीरान सड़कों पर।
लहरा जाते समंदर,
इन निर्दोष पलकों पर।
समझ लिया होता गर,
अर्थ हमारे इरादों का।
यूँ सरेआम मोल न करते,
नादान मेरे जज्बातों का।
स्वरचित :- राठौड़ मुकेश