जब कभी खुद को पुछताहूँ
क्या हम बकाई आज़ाद हे?
दिल की किसी कोने पे रह रह कर
यह आवाज़ आता हे:- की हम अभी भी गुलामी के ज़ंजीर में जकड़े हुए हें -१-
जकड़े हुएँ हें गूलमी की जंजीरों से
सर से पाओं तक बिलकुल
अपना ही सोच और बिचार में
रुकता हुआ सांश, बोझल नजरे- ना आवाज़ हे, हिम्मत में बस गया हे धूल । -२-
अंग्रेज़ो से छुड़ाया वतन
हम खुद अपना शासन करेंगे,
हमारा करम हमारा वतन
एक मिसाल बनकर इस धरती पे- एक नया इतिहास लिखेंगे । -३-
मेरा वतन और अमन से
मिटा देंगे सब रश्मों की दीबारें
ना डर ना कोई खाफ
पाओं इस धरती पर –नज़र आसमान पर टिकता रहे । -४-
[लेकिन] ये बस एक सपना था
हकीकत कुछ और कह रहा हे
अपना ही मुल्क और शासन में
जिल्लत -और- जेहाद के नाम पर – हम बस आज़ाद देश के गुलाम ही हे । -५-
एक तरफ भूक तो दूसरी और
आबरू से हो रहा हे खिलवाड़
अपना हॉक पाने के लिए
आबाज उठाए तो -नीचे से ऊपर तक बस मिलता हे मारधाड़ । -६-
चलो मिटाएँगे यह सारी अडचन
खुद को ना करेंगे नीलाम
खुद के साथ और बिचार से
ये होगा एक आर-पार की लढाई- क्यौन की नेहीन बनाना होगा हम को
अपना ही मुल्क में- ‘आज़ाद देश की गुलाम’
-समाप्त -
कबी: श्री सहसरानशु प्रियदर्शी [अध्यापक रबीन्द्र मिश्रा]
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